भारतीय हिमालयी सरहदों के ऊंचाई वाले इलाकों में रहने वाले शौका समुदायों का तिब्बती समाज से गहरा रिश्ता रहा है। ये लोग सदियों से एक दूसरे को जानते और आपस में कारोबार करते रहे हैं। सरहदों की घाटियों से तिब्बत की ओर खुलने वाले दर्रे यहाँ रह रहे लोगों के लिए आरपार आने जाने के मुख्य रास्ते थे। इन्ही दर्रों से ये लोग तिब्बत व्यापार के लिए आते-जाते थे। तिब्बत व्यापार से जुड़े ये लोग वहां से सुहागा, नमक, स्वर्ण चूर्ण, चंवर, कस्तूरी, शहद, समरू खालें, तिब्बती और पशमीना ऊन के साथ-साथ और यारकंदी कालीन आदि लाते थे और भारत से गुड़, गेहूं, तंबाकू, मोती, कांच की माला, कांसे के बर्तन, फाँफर, लहसुन, सूखी मूली आदि व्यापार के लिए ले जाया करते थे। हालांकि 1962 में चीन से सम्बन्ध खराब होने के चलते यह कारोबार बंद हो गया था।
सुदूर पूर्व में सिक्किम के नाथुला से लेकर उत्तराखंड में लिपुलेख या क्वेंइगला,लंपियाधुरा, कुंगरी–बिंगरी-ला, बाल्चाधुरा, शलशल-ला, नीती-ला, माणा-ला, छिरबिटिया-ला या डुंग्री ला, थांगला, साङचोक-ला, सोनम-ला (निलांङ-ला), रैठल-ला, मुलिंग-ला, बोरगुड़ा-ला और हिमाचल के सिप्की-ला से ये हिमालयी व्यापार सदियों से चला आ रहा था। सिक्किम में लेप्चा, व्यास- चौदांस और दारमा घाटी के रङ शौका, जोहार घाटी के जोहारी शौका, नीती घाटी और माणा घाटी के माणयां, मारछा, तोल्छा, निलांङ घाटी के चोङग्सा/जाड के साथ-साथ स्पीती घाटी के सिप्त्याल समुदाय इस व्यापार विनिमय के आधार रहे हैं।
भारत की सरहदों को पार कर विभिन्न इलाकों से आए इन व्यापारियों को तिब्बत में पुरांङ या ताकलाकोट, ज्ञानिमा, दापा, गरतोक, ठोक-ज्यालुंङ, छपरांङ,पुलिंङ,चुलिंङ आदि अलग-अलग स्थानों में मंडियां लगाने और व्यापार करने की इजाजत मिली हुई थी। उनके पास तिब्बत में व्यापार हेतु प्रवेश के लिए लाम्यिक (प्रवेशपत्र) होना आवश्यक था।
आमतौर पर ब्यांस-चौदांस और रालम घाटी के व्यापारी लिपुलेख, लंपियाधुरा आदि दर्रों को पार कर तिब्बत में पुरांङ या ताकलाकोट पहुंचते वहीँ जोहार घाटी के शौका व्यापारी कुंगरी–बिंगरी ला, बाल्चाधुरा, शलशल-ला दर्रे पार कर पुरांङ और ज्ञानिमा (खेरका) मंडी में अपने कारोबार के लिए जाते थे। नीती और माणा घाटी के माणयां, मारछा, तोल्छा लोग नीती-ला और माणा-ला को पार कर पुलिंङ, चुलिंङ गरतोक, तूलिंङ, ठोक-ज्यालुंङ, की मंडियों में कारोबार करने के लिए पहुचते थे। यह उल्लेखनीय है कि जोहारी व्यापारियों को बिना लाम्यिक के न केवल तिब्बत की अधिकाँश मंडियों में जाने और कारोबार का अधिकार था बल्कि वे किसी भी दर्रे से आ जा भी सकते थे।
भागीरथी घाटी में हिमालय पारीय आवागमन और व्यापार का ये सिलसिला थांग-ला, साङचोक-ला, सोनम-ला और कभी कभार सबसे कठिन दर्रे-रैठल-ला से होता था। भागीरथी घाटी में भैरोंघाटी से उत्तरपूर्व की ओर निलांङ-जाडंङ घाटी के कार्च्छा, हंडोली और निलांङ गाँव हैं। स्थानीय समाज इस इलाके को चोङग्सा कहता है। इस इलाके के वासिंदों को जाड कहा जाता हैं। दरअसल जाड गंगा घाटी में रहने के कारण इस घाटी के सभी समुदाय जाड कहलाने लगे। हिमाचल के रामपुर और बुशहर इलाकों के अलावा तिब्बत के कतिपय खम्पा परिवार भी कालांतर में यहाँ आकर बसे गये थे। यह एक रोचक तथ्य है कि जाड अपने को चोङग्सा कहलाना पसंद करते है और तिब्बत के छपरांङ जिले के च्योंङसा को अपना मूल स्थान बताते हैं। अधिकांश जाड बौद्ध मतावलंबी हैं।
यमुना घाटी के ऊपरी रवाई के साथ साथ रैथल इलाके के स्थानीय व्यापारी भी समय के साथ तिब्बत व्यापार में हिस्सेदारी करने लगे थे। वे जाड व्यापारियों के साथ तिब्बत आजा जाना करते और उनकी तिब्बती और स्थानीय भाषाओ में महारत का लाभ लेते हुए उनके सहयोग से तिब्बत व्यापार किया करते थे। इस तरह के संपर्क में जाड बखूबी द्विभाषिए का काम करते थे।
वर्ष 1957 में अमेरिकी फिल्मकार जेकब माईकल हैगोपियन ने जाड व्यापारियों के जीवन पर ‘तिब्बतन ट्रेडर्स’ नाम से महत्वपूर्ण वृतचित्र बनाया था। अटलान्टिस प्रोडक्शंस द्वारा निर्मित यह वृतचित्र तत्कालीन जाड जन-जीवन और संस्कृति के अनेक अनछुए पहलुओं को सामने रखता है। वृतचित्र में दर्शाया गया भौगोलिक क्षेत्र, रहन- सहन व कार्यकलाप, उत्तराखंड से तिब्बत व्यापार कर रहे दूसरे समुदायों से बहुत मेल खाता है। इसलिए वृतचित्र के ऐतिहासिक महत्व और उपादेयता को देखते हुए ज्ञानिमा ने इसके अंग्रेजी संवाद का हिंदी रूपांतरण किया है, ताकि आम हिंदीभाषी इस वृतचित्र को आसानी से समझ सके।
इस फिल्म के कैमरा पर्सन और निर्देशक जे माईकल हैगोपियन का जन्म 1913 में अरमीनिया में हुआ था। 1915 में युद्ध से बचते बचाते उनकी माँ उन्हें अमेरिका ले आई। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी व हावर्ड यूनिवर्सिटी से शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात जे माईकल हैगोपियन एक फिल्मकार बन गए और अटलांटिस फिल्म कम्पनी कि स्थापना की। उन्होंने नस्लीय अल्पसंख्यकों और विदेशी समाजों पर 50 से अधिक डाक्यूमेंट्री फिल्में बनायीं। अर्मीनिया जनसंघार पर बनी उनकी फिल्म एम्मी अवॉर्ड के लिए मनोनीत हुई। 20 वर्षों के शोध से निर्मित इस फिल्म में 400 गवाहों के साक्षात्कार हैं। जे माईकल हैगोपियन का निधन 2010 में 97 वर्ष की आयु में हुआ।
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बड़ा रोचक लेख है। धन्यवाद!
ऊपर कुछ ऐसे शब्द भी सीखे जिनका सिर्फ़ हिंदी रूप पता था…जैसे “फांफर”।
इस व्यापार का सदियों से इन दोनों क्षेत्रों के संस्कृति, जन जीवन, भाषाओं, खान पान पर गहरा असर हुआ होगा। मज़ेदार विषय है।
तिब्बती व्यापार वृत्तचित्र देखा. सीमांत के जाड गांव के निवासियों के जीवन पर बनी यह फिल्म जानकारियों से भरी है और बहुत रोचक है. इतनी कठिन परिस्थितियों में जीवन यापन एक काल्पनिक दुनियां की तरह लगता है. हिन्दी अनुवाद बहुत अच्छा किया है.
यह एक बेशकीमती दस्तावेज है।
बहुत ही ज्ञानप्रद। हार्दिक आभार आदरणीय। 🙏
बेहद ज्ञानवर्धक एवं शानदार लेखन 🙏🏻
बेहद महत्वपूर्ण लेख। बहुत से दर्रों की जानकारी सम्मिलित है
बहुत सुन्दर जानकारी आज के परिप्रेक्ष्य में।
पर्वतीय ऊन उद्योग के विकास से जुड़े कार्यक्रमों व उस उद्योग के विकास के विकास केलिए परम्पपरागत यंत्रों में सुधार व नवीन यंत्रों का आविष्कारक के नाते यह लेख मेरे लिए बहुत माने रखता है ।
इसके लिए पांडे जी बधाई के पात्रहैं
धन्यवाद के पात्र हैं।
सादर
आनन्द बल्लभ जोशी
शोधकर्ता
पर्वतीय जीवन के लिए सुधरे यंत्र
प्रणाम निवास कौसानी