उत्तराखंड के पहाड़ों में मशरूम – इतिहास और भविष्य

हाल के वर्षों में बढती बेरोजगारी से निजात पाने के लिए पहाड़ों में युवा आजीविका के नए नए तरीकों पर विचार कर रहे हैं। पलायन विशेषज्ञ खेती की ओर लौटने की बात कर रहे हैं । जड़ी बूटी उत्पादन, सगंध पादपों की खेती के साथ-साथ जैविक (ओर्गेनिक) खेती, मशरूम उत्पादन की चर्चा ज़ोरों पर है। ऐसा नहीं की ये सब पहली बार सोचा जा रहा है। दरअसल सत्तर के दशक से ही पहाड़ों में अंगोरा ऊन, मत्स्य और मशरूम उत्पादन द्वारा रोजगार के वैकल्पिक तरीकों को बढ़ाने की कोशिश होती रही। सरकारों ने कई तरह की ऋण योजनाओं और छूट द्वारा लोगों को इन योजनाओ की ओर आकर्षित करने की कोशिशें भी की। आश्चर्य है कि अंतर्राष्ट्रीय से लेकर घरेलू बाजार में अच्छी ख़ासी माँग होने के बावजूद ये प्रयास परवान नहीं चढ़ सके।

आज एक बार फिर पहाड़ों में मशरूम उत्पादन की चर्चा हो रही है । कुछ एक युवाओं ने तो इस ओर कदम भी बढ़ाए हैं और तराई से लेकर पहाड़ में मशरूम उत्पादन की कुछ एक इकाईयाँ उभर कर आई हैं। ये प्रयास कहाँ तक जाएँगे देखा जाना है। क्या पहाड़ों में मशरूम उत्पादन रोजगार का वैकल्पिक साधन हो सकता है ? आखिर पहले किए गए प्रयास सफल क्यों नहीं हो पाये? क्या आज मशरूम उत्पादन के लिए अपनाये जा रहे तरीके स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप हैं? या उनमे बदलाव की जरूरत है ? क्या मशरूम को लंबे समय तक संग्रहित किया कता है? मशरूम उत्पादन में सरकारी योजनाओं की क्या भूमिका है ? पहाड़ों में मशरूम उत्पादक को बाजार मिलने की कितनी संभावना हैं ? ये कुछ एक ऐसे प्रश्न है जिनका उत्तर तलाशा जाना आवश्यक है। 

1970 का दशक उत्तराखंड में मशरूम उत्पादन के रूप में उद्यमिता के विचार को लेकर आया था। एक श्रमसाध्य काम की यह शुरूआत काफी दिलचस्प थी। बड़े पैमाने पर पहाड़ में कई युवाओं ने तब इस विचार को मूर्त रूप देने की कोशिश भी की। उत्तराखण्ड सेवा निधि द्वारा नैनीताल में कृष्णापुर एस्टेट में एक प्रयोगशाला बनाकर इसकी शुरुआत की गई। बाद में यही प्रयोगशाला कुमाऊँ विश्वविद्यालय के मशरूम सेंटर के नाम से चर्चित हुई।

पैनी बन मशरूम के साथ श्री विनोद पांडे

मशरूम को एक वनस्पति विज्ञानी और उद्यमी के रूप में गहराई से समझने वाले नैनीताल निवासी श्री विनोद पांडे ने अपने पेशेवर जीवन की शुरुआत सत्तर के दशक में इसी प्रयोगशाला से की। आइये उनसे समझते हैं मशरूम की खेती और पहाड़ों में उसके व्यवसाय की कहानी और बारीकियों को ।

विनोद जी, आप तो लंबे समय तक मशरूम उत्पादन से जुड़े रहे। पहाड़ों में मशरूम कितना लोकप्रिय था?

शुरुआती दिनों में पहाड़ ही क्या, सम्पूर्ण भारत में मशरूम की स्थिति रोचक थी। प्रकृति में होने वाले मशरूम को आदिवासी और दलित ही पहचानते और खाते थे सवर्ण इनसे पूरी तरह दूरी बना कर रखते और इसे खाने से परहेज करते थे। इसे निम्न वर्गों का भोजन समझा जाता था। इसीलिए तो इसे कुकुरमुत्ता कहा जा रहा था। देखिये ना, नाम ही इसकी हीनता को व्यक्त करता है। पहाड़ों में इसे ‘च्यो’ कहा जाता था। स्थानीय तौर पर मशरूम की माँग शून्य थी। एक भय यह भी था कि ये जहरीले होते हैं। उस समय तक पहाड़ में मशरूम अध्ययन को लेकर कोई केंद्र भी नहीं था जहाँ इसके औषधीय गुणो और पौष्टिकता की चर्चा हो, इसकी महत्ता को समझा जा सके और  इसे व्यावसायिक नजरिए से देखा जा सके।

इसके ठीक उलट औद्यानिकी को जमीन पर उतारने वाले हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार संस्थागत रूप से राज्य को आगे ले जाने के लिए नित नए प्रयोग कर रहे थे। कसौली के अलावा तब सोलन में बटन मशरूम की शुरूआत की जा चुकी थी। वहाँ एक अत्याधुनिक प्रयोगशाला की स्थापना की गई। कसौली में महाराजा अमरेन्दर सिंह का कारोबार अत्याधुनिक व बड़े पैमाने पर ’तेग मशरूम’ नाम से अपना परचम फैला चुका था ।

पहाड़ों में मशरूम की खेती की शुरुआत कैसे हुई?

नैनीताल को ही ले लें। आप जानते हैं तब नैनीताल की छवि एक फैशनपरस्त शहर की हुआ करती थी। पढ़ाई के लिए अच्छे स्कूल और स्वास्थ्य सुविधाओं के अलावा यह शहर सीजनल पर्यटन के लिए ज्यादा जाना जाता था। ऐसे में एक मेहनत वाले काम की शुरूआत दिलचस्प थी। संभावनाओं को देखते हुए दिल्ली के एसकॉर्ट में अच्छी नौकरी छोड़कर एक केरल वासी मेनन साहब मशरूम उगाने नैनीताल आ गये थे। यहाँ एक लखानी और एक सरीन नामक व्यक्ति गोपनीय तरीके से बटन मशरूम उगाते थे।

फिर भी यहाँ व्यवसाय के लिए मशरूम को लाने का श्रेय शुकदेव पाण्डे जी को है। वे बिड़ला के पिलानी इंस्टिट्यूट के संस्थापकों में से थे । उनके मन में पहाड़ों के लिए कुछ करने की इच्छा थी। नैनीताल के कृष्णापुर एस्टेट में एक नवाब साहब की बड़ी संपत्ति जिसमें कई इमारतों के साथ खेती की जमीन थी। उन्होंने इसे एक ट्रस्ट बनाकर कई तरह के काम करने की कोशिशें की। कृष्णापुर एस्टेट को उत्तराखण्ड सेवा निधि को देकर उसमें जापान के सहयोग से बागवानी की परियोजना को यहाँ लाना उनकी एक बड़ी उपलब्धि थी ।

मशरूम की खेती में सहयोग के लिए जापान ही क्यों चुना या?

बागवानी परियोजना में कई तरह की साग-सब्जियों का उत्पादन शामिल था। इसके अंर्तगत एक परियोजना थी मशरूम उत्पादन। मशरूम उत्पादन के लिए इस परियोजना में वनस्पति विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि लिए एक होनहार विद्यार्थी चितरजंन भट्ट की नियुक्ति की गई और उन्हें प्रशिक्षण के लिए जापान भेजा गया।

जापान अपने अभिनव प्रयोगों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। जापान उस समय दो प्रमुख किस्म के मशरूम उगाता था। इनके वैज्ञानिक नाम थे – प्लूरोट्स ऑस्ट्रिएटस (हीराताके) और लेंटिनस इडोडस (सिताके)। आज भी दुनिया में इनके इनके यही जापानी नाम प्रचलित हैं। इन दोनों की खासियत यह है कि से दोनों मशरूम प्रकृति में मूलतः लकड़ियों में उगते हैं । सिताके तो केवल बांज की लकड़ियों में उगता है, पर हीराताके किसी भी पतझड़ वाले पेड़, जिनमें लीसा न हो, में उगता है – जैसे पांगर, अखरोट, पॉपलर, आदि। उस जमाने में लकड़ियों की उपलब्धता आसान व सस्ती थी । साथ ही इन दोनों मशरूमों की विशेषता यह भी थी कि इनकी फसलों में दूसरे फफूदों और जीवाणुओं के संक्रमण का खतरा कम रहता था। जिससे इनके फसलों में बीमारियों का डर नहीं के बराबर रहता था। सिताके को उगाना कुछ जटिल होता था पर हीराताके उगाना तो बहुत ही आसान था।

आप कहते हैं कृष्णापुर में मशरूम केंद्र बनाया गया था लेकिन आज तो वहाँ कुछ भी नहीं है ?

अपने सीमित संसाधनों और उस समय की परिस्थितियों के कारण उत्तराखण्ड सेवा निधि और चितरंजन भट्ट बेहद आसानी से उगने वाले इन मशरूमों का कृष्णापुर से बाहर प्रसार नहीं कर पा रहे थे। सरकारी सहयोग के अभाव में उत्तराखण्ड सेवा निधि के प्रयास बहुत ही संकुचित हो गये थे। चितरंजन भट्ट एक बहुत ही प्रतिभावान व्यक्ति थे। उनको अपने भविष्य की चिंता सताने लगी थी। वे अवसाद की स्थितियों में आने लगे थे। इसी बीच सुकदेव पाण्डे जी ने कुमाऊँ विश्वविद्यालय की स्थापना से उत्साहित होकर यह केन्द्र पूरा नवसृजित कुमाऊँ विश्वविद्यालय को सौंप दिया ताकि इस संस्था की विरासत विकसित हो व अनुभवों का  बेहतर उपयोग हो सके।

चितरंजन भट्ट इस केंद्र में काम करना चाहते थे पर विश्वविद्यालय उन्हें संतोषजनक वेतन देने को तैयार नहीं था। हालांकि विश्वविद्यालय ने इसी बीच पर्वतीय विकास विभाग से इस केन्द्र की स्थापना के लिए अच्छा खासा बजट मंजूर करवा लिया था। कुमाऊँ विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति डा. डी.डी.पंत की यह असफलता ही समझिये कि उन्होंने संभावनाओं से भरे एक विशेषज्ञ को खोने दिया। आश्चर्यजनक रूप से बाद में उसी केन्द्र के एक गैर वैज्ञानिक निम्नपद के व्यक्ति को इस केन्द्र का सर्वेसर्वा बनाकर एक प्रकार से इस केन्द्र की समाप्ति की इबारत लिख दी गई। बाद में प्रख्यात कवक विज्ञानी प्रो. बी.एस. मेहरोत्रा की कोशिशों पर भी अंततः 1984 में ये केन्द्र विधिवत बंद हो गया।

मशरूम सेंटर बटन मशरूम उगाने की ट्रेनिंग देता था लेकिन जिन कर्मचारियों ने कभी खुद मशरूम उगाया ही न हो वे क्या प्रशिक्षण दे सकते थे, इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। मशरूम उत्पादन को लेकर जो थोड़ा बहुत तकनीकी ज्ञान इस केंद्र से मिल सकता था और व्यावसायिक खेती के लिए लोगों का नजरिया बदलने की कुछ संभावना होती, वह भी इसके साथ खतम हो गई । बाद में उद्यान विभाग ने चौबटिया में और पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय ने भी एक ऐसा केन्द्र खोला जो अब भी कार्यरत है ।

बाजार में अधिकांशतः बटन मशरूम ही दिखता है। क्या मशरूम की अन्य प्रजातियाँ नहीं है?

नहीं, ऐसा नहीं है। दरअसल 1975 में भारत में आपातकाल की घोषणा हो गयी थी और जयप्रकाश आंदोलन की रीढ़ बन चुके युवाओं को साधने के लिए कई कार्यक्रम इजाद किये गये थे। मुख्यतः युवाओं को स्व-रोजगार की ओर ले जाने वाले उद्यमों का विकास। पहाड़ों में इसके लिए मशरूम का चयन हुआ। यह पहली बार था कि एक नये किस्म के रोजगार के लिए सरकार न केवल लोन बल्कि सब्सिडी का भी प्रावधान कर रही थी।

विकसित बाजार होने के कारण इसके लिए बटन मशरूम को चुना गया। क्योंकि इसकी बाजार में यानि दिल्ली में माँग थी। तब दिल्ली में खान मार्केट में बटन मशरूम का भाव 20-25रू. किलो होता था। बाजार की माँग बटन मशरूम की होने के कारण हीराताके, जिसे तब जापानी मशरूम भी कहा जाता था, करीब करीब चर्चा से भी बाहर हो गया हालाँकि इसे उगाने की विधि बहुत ही आसान थी। बटन मशरूम को ताजा ही बेचा जा सकता था पर हीराताके को सुखा कर रखा जा सकता था। इस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया । 

बटन मशरूम को उगाने के लिए इसकी एक इकाई के अंर्तगत 100 बटन मशरूम की ट्रे लगानी होती थी। एक ट्रे तीन फुट लंबी, दो फुट चौड़ी और छः इंच ऊँची होती थी। एक ट्रे में करीब 3 किलो बटन शुरू उगता था। एक साल में तीन फसलें ली जा सकती थीं। नैनीताल में मार्च से लेकर नवम्बर तक बटन मशरूम उगाने के लिए अनुकूल प्राकृतिक परिस्थितियाँ रहती थी। एक फसल करीब 2-3 महीने तक चलती थी।

बटन मशरूम की खेती में आपको किन दिक्कतों का सामना करना पड़ा?

मशरूम की खेती के लिए वैज्ञानिक समझ होना आवश्यक था और आज भी है। बटन मशरूम को उगाने के लिए अनिवार्य रूप से कम्पोट बनानी होती है। इस कम्पोस्ट के लिए मुख्य अवयव गेहूं का भूसा था, जिसकी पहाड़ों में उपलब्धता नहीं के बराबर थी और इसे मैदानी इलाकों से ही लाया जा सकता था। उसके बहुत हल्का होने के कारण ढोने में बहुत महंगा पड़ता था। इतना ही नहीं इसकी कम्पोस्ट भी कई उर्वरक मिला कर करीब एक महीने तक सड़ा कर बनानी पड़ती थी। इस दौरान कम्पोस्ट में कई तरह के संक्रमण का खतरा था जो फसल में बीमारियाँ ला सकता था।

कुमाऊँ विश्वविद्यालय का मशरूम केंद्र बंद हो जाने के बाद सारा जिम्मा उद्यान विभाग को सौंप दिया गया। तब तक कम्पोस्ट उत्पादन, जो कि बहुत ही श्रम साध्य काम हुआ करता था, को बनाने की टनल विधि आ चुकी थी। ये विधि पूरी तरह यांत्रिक थी और इसमें कम्पोस्ट उच्च श्रेणी की व संक्रमण रहित बन सकती थी । इसे एक इंडो-डच परियोजना के अंर्तगत लगाया गया था पर कार्य करने की निष्ठा न होने के कारण यह कार्यक्रम भी तमाम सरकारी योजनाओं की तरह असफलता की भेट चढ़ गया।

एक अन्य समस्या भी थी – बटन मशरूम का बीज यानी स्पॉन का यहाँ नहीं बनना। इसके लिए सोलन जाना पड़ता था। स्पॉन दूध की बोतलों में आता था जिसे दूर से लाना भी बहुत परेशानी भरा व खर्चीला होता था। दुर्भाग्यवश सरकार ने इस कार्यक्रम को ऐसे प्रचारित किया था जैसे कि इससे रातों रात अमीर बना जा सकता है।

आकर्षित होकर कुछ युवा इसे गंभीरता से स्थायी रोजगार समझ कर आये तो कुछ सब्सिडी-लोन गटकने के लिए। कई होशियार लोग जानते थे कि इस तरह की योजनाओं में अंततः लोन माफ हो जाते हैं। इसलिए भरपूर लोन भी बँटे। इससे पहाड़ों में बटन मशरूम उगाने के सपनों का करीब-करीब पटाक्षेप हो गया। इस परिघटना ने सरकार द्वारा स्थापित यह मिथक तोड़ा कि मशरूम पहाड़ों में सफलतापूर्वक हो सकता है।

लेकिन देखिये तराई भाबर में मशरूम उत्पादन जोर पकड़ता गया। वहाँ ये उत्पादन आज भी खूब हो रहा है। उत्पादकों को भूसा सरलता से मिल ही जाता है। साथ ही काश्तकार पंतनगर विश्वविद्यालय से स्पॉन प्राप्त कर लेते हैं। आज उतराखंड के मैदानी इलाकों और पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश में बटन मशरूम का बड़े पैमाने पर उत्पादन हो रहा है। सच तो यह है कि कम पूंजी पर बटन मशरूम मैदानों में ही हो सकता है पहाड़ों में नहीं।

आखिर ये जो नेरेटिव गढ़ा गया कि पहाड़ मशरूम उत्पादन के लिए आदर्श स्थल हैं, इसको आप कैसे देखते हैं?

पर्वतीय पारिस्थितिकी की सही समझ न होना इसके लिए बड़ी हद तक जिम्मेदार है। आप देखिये न, मैदानी गर्म इलाके जो कि मशरूम उत्पादन के लिए अनुपयुक्त घोषित कर दिये गये थे वही मशरूम उत्पादन के लिए अंततः कामयाब निकले। सरकार की इस मान्यता के भरोसे कई युवाओं ने अपना कैरियर, पैसा और समय बर्बाद किया और अंततः निराश हो कर दूसरे रास्ते तलाशने को मजबूर हुए।

इसका बड़ा कारण यह है कि मशरूम उत्पादन के लिए केवल प्राकृतिक तापमान का ही संदर्भ लिया गया। जबकि कई दूसरे कारण जो कि किसी भी व्यवसाय के पनपने के लिए जरूरी होते हैं उनका संग्यान लिया ही नहीं गया। बटन मशरूम उत्पादन में सबसे मुख्य कच्चा माल गेहूं का भूसा था । भूसे व मशरूम उत्पादन का अनुपात करीब 5 गुने का है। अर्थात् भूसा की आवश्यकता बहुत अधिक होती है। अगर कोई साल में 6000 किलो मशरूम उत्पादन करना चाहे तो उसे करीब 300 क्विटंल यानी करीब 10 ट्रक केवल भूसा ही चाहिये।

दूसरा सबसे बड़ा कारक तापमान था। बेशक बटन मशरूम के उत्पादन के लिए 18 से 22 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान चाहिये पर यही तापमान तो उसमें लगने वाले तमाम परजीवियों (माइक्रोब) के लिए भी आदर्श तापमान था।

इसे ऐसे समझना चाहिये कि मशरूम के कम्पोस्ट में कई प्रकार के अन्य फफूँद और बैक्टीरिया के लिए आदर्श स्तिथियाँ होती हैं। फिर जब कम्पोस्ट में बटन मशरूम का माईसीलियम फैल जाता है तो वह माईसीलियम भी कई माइक्रोब्स का भोजन है। इसलिए उस माईसीलियम के परजीवी भी सक्रिय हो जाते हैं और उस इलाके में फलते फूलते हैं। ये परजीवी आने वाली फसलों के लिए माहौल खराब करने का इंतजाम कर देते हैं। यानि जितना समय होता जाता है उतना ही फसलों में संक्रमण का खतरा बढ़ता जाता है। कवक विज्ञानी इस परिघटना को ‘साइट कंटामिनेशन’ कहते हैं, यानि कार्यस्थल का प्रदूषित हो जाना ।

मैदानी इलाकों में हम तापमान की चरम सीमाएँ पाते हैं। जैसे गर्मियों में तापमान 45 डिग्री सेंटीग्रेड तक चला जाता है। जिसमें अधिकांश ऐसे माइक्रोब मर जाते हैं, जो 25-26 डिग्री सेंटीग्रेड से कम तापमान में पनपते हैं। इस तरह कार्यस्थल प्राकृतिक रूप से डिसइन्फैक्ट या संक्रमणरहित हो जाते हैं और अगली फसलों के लिए संक्रमण का खतरा कम हो जाता है। मैदानों में बटन मशरूम का उत्पादन मध्य अक्तूबर से मध्य मार्च तक रहता है क्योंकि इस दौरान तापमान करीब 18 से 20-22 डिग्री तक रहता है। संक्रमणकारी जीव गर्मियों में नष्ट हो चुके होते हैं।

क्या इसका तात्पर्य यह है कि पहाड़ों में मशरूम उत्पादन नहीं हो सकता है ?

नहीं, ऐसा नहीं है। ये बात केवल बटन मशरूम के लिए कही गई है। बहुत सारी ऐसी प्रजातियाँ है जिनके लिए पहाड़ों की जलवायु सर्वथा उपयुक्त है। अब ऑयस्टर मशरूम को ही ले लीजिये। ये आजकल बहुत लोकप्रिय हो रहा है। ये संक्रमण के लिए ज्यादा संवेदनशील भी नहीं है। पहाड़ों में उगाने के लिए यह आदर्श मशरूम है । कार्यस्थल को संक्रमण रहित करने के साधन हों तो बटन मशरूम भी पहाड़ों में सफलता पूर्वक किया जा सकता है। संक्रमणरहित करने का अर्थ एक प्रकार से पूर्ण यांत्रिकीकरण करना है जो निश्चित रूप से बहुत मंहगा होता है। हालांकि यूरोप और हिमाचल के बड़े उत्पादक इसी तरीके से काम करते हैं। हमें समझना चाहिये कि मशरूम की खेती परंपरागत खेती से पूरी तरह भिन्न है। इसमें तकनीक की प्रधानता है इसलिए उत्पादकों को ठीक से तकनीक को समझना और अपनाना आवश्यक है। तकनीकी जानकारी के अभाव से पहाड़ों में रोजगार की एक बहुत बड़ी संभावना फल-फूल नहीं पाई। अगर हम अपनी भूलों को सुधार कर आगे बढ़े को संभावनाएँ अब भी कायम हैं।


श्री विनोद पांडे जी से हमने मशरूम की खेती करने में क्या करें और क्या नहीं विषय पर भी चर्चा करी जो हमारे लेख पहाड़ों में मशरूम की खेती – क्या करें और क्या नहीं! के रूप में प्रकाशित है।

गिरिजा पांडे
Latest posts by गिरिजा पांडे (see all)
यह लेख शेयर करें -

One Comment on “उत्तराखंड के पहाड़ों में मशरूम – इतिहास और भविष्य”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *