बरबूंद

कुमाऊँनी समाज में बरबूंद बनाए जाने की परंपरा की तलाश में निकलें तो बहुत दिलचस्प कहानी दिखलाई देती है। लाखों सालों में जैसे-जैसे इंसान ने अपनी शक्ल बदली, सभ्यता-संस्कृति को नया रूप दिया वैसे-वैसे उसने अपना सौंदर्यबोध भी विकसित किया। यह सौंदर्यबोध सबसे पहले उसके द्वारा बनाए गए गुफा चित्रों में अभिव्यक्त हुआ। आज से 25 लाख साल (पुरापाषाण काल/ पेलियोलिथिक एज) से लेकर 12 हजार साल पहले तक दुनियाँ के बहुत से हिस्सों में ऐसे अनेक गुफा चित्र मिलते हैं।

कुमाऊँ में अल्मोड़ा के पास लखु उड्यार, फड़कानौली, फलसीमा, कफरकोट, ल्वेथाप (डीनापानी/सल्ला), तथा हथ्वालघोड़ा (गैराड़) आदि और हाल ही में बेरीनाग के नजदीक ऐसे कई गुफा चित्र प्रकाश में आए हैं। दुनिया के हर प्रारम्भिक समाज में इस तरह के चित्रांकन के उदाहरण मिलते हैं। टर्की के अनातोलिया इलाके में चाटोहयूवेक के भित्ति चित्रों से लेकर रोमन, चीनी और सिंधु सभ्यता के चित्रांकन की यह परंपरा देखी जा सकती है।

ये चित्र बताते हैं कि इंसान की रचनात्मक प्रवृतियों में चित्र कला उतनी ही पुरानी है जितना स्वयं मनुष्य। अनेक विद्वानों का मानना है कि चित्र बनाने की कला इंसान द्वारा अपने परिवेश के साथ समरसता और सामंजस्य रखने का महत्वपूर्ण तौर-तरीका है। सभ्यता की शुरुआत से ही इंसान आदम विश्वासों का सहारा लेकर रेखांकन या आलेखन करता रहा। चित्रांकन के विविध रूपों के माध्यम से उसने समय-समय पर अपने उल्लास और सुख़ के अनुभवों को अभिव्यक्त किया। अपने अस्थित्व को बनाए रखने के लिए मनुष्य के प्रकृति के साथ हो रहे निरंतर संघर्ष और जीवन यापन के लिए किए जा रहे कठिन श्रम को उसके चित्रांकन में भी अभिव्यक्त किया। इस तरह प्रारम्भिक चित्रांकन इंसान के गहरे व्यावहारिक अनुभवों से गुजरते हुए नित नए आकार ले रहा था और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में फलते-फूलते अपना अस्तित्व बनाए हुये था।

यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि चित्रांकन के रूप मे विकसित हो रही इस कला के साथ द्वंदात्मक अंतर्विरोध भी जन्म ले रहा था जिसे  इंसान द्वारा कला के माध्यम से वर्चस्व स्थापित करने की स्वाभाविक प्रवृति के रूप में देखा जा सकता था। यह अंतर्विरोध आज भी अपना अस्थित्व बनाए हुये है। खासकर प्रभुत्वशाली सामाजिक वर्गों के सौंदर्यबोध को इन कलाओं के माध्यम से श्रेष्ठताबोध और वर्गीय पहचान को निरंतर स्थापित करने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है।  

कला के दृश्यरूप (visual forms) हर समाज-संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे हैं, विशेषकर ‘चित्र’। रंगों और प्रकाश के संयोजन के साथ साथ सपाट और अमूर्त आकारों के विन्यासों को इंसान ने अलग-अलग तरीकों से सामने रखा। ऐसी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में चाहे वह पहनावा या खानपान हो, संगीत या साहित्य हो या फिर रेखांकन, आलेखन और चित्रांकन, समाज ने अपनी विशिष्ट शैलियों को विकसित किया। कालांतर में इनमे ऐसे अनेक प्रतीक और विश्वास शामिल किए गए जो आहिस्ता-आहिस्ता समुदाय विशेष की पहचान से जुड़ते चले गए। ऐसे चित्रांकन की एक खासियत यह भी थी कि अपनी भौगोलिक सीमा के भीतर रहते हुए क्षेत्र विशेष के सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य, धार्मिक विश्वास और पारंपरिक चलन इनको मूर्त रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे और उन सामाजिक प्रतीकों, बिंबों और विश्वासों को जन्म दे रहे थे जिनसे समाज को स्वाभाविक रूप से निर्देशित किया और अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला जा सके। यह उल्लेखनीय है कि ये चित्रांकन समय के साथ समुदायों के रीतिरिवाजों और विशिष्ठ अनुष्ठानों के साथ गहराई से जुड़ती गई और संवाद स्थापित करने का महत्वपूर्ण साधन बनी।

मिट्टी की दीवारों में रंगों के संयोजन से उकेरे जाने वाले भित्ति चित्रों को ही ले लें। भारतीय उपमहाद्वीप में लोक चित्रांकन के ऐसे कई रुप देखे जा सकते हैं।  आज भी भारत के आदिवासी समाजों में भित्ति चित्रांकन की विविधतापूर्ण और समृद्ध परंपरा है। महाराष्ट्र में वर्ली जनजाति द्वारा बनाए जाने वाले ‘चौक’ हों या मध्यप्रदेश के गोंडों के मांडला, गुजरात के रथवा भीलों के पिथौरा, ओड़ीशा के सौराओं के सौरा चित्रांकन, संथालों के पट्ट, बुन्देली चौक पुरण खासकर मकड़ी चित्रांकन, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में दशहरा के दौरान बनाए जाने वाले सांझी चित्र के साथ-साथ मिथिलाञ्चल के मधुबनी चित्रांकन के रूप में कला का यह समृद्ध विस्तार देखा जा सकता है। यह भी उल्लेखनीय है कि जिस तरह वर्ली और अफ्रीकी जूलु जनजाति के कला रूपों और उनके विषयों में अनेक समानताएँ दिखलाई पड़ती ठीक उसी तरह आस्ट्रेलियाई आदिवासियों और गोंड चित्रांकन के विषयों (subjects) में भी अनेक समानताएँ देखी जा सकती हैं।

कुमाऊँ के ऐपण विशेषकर ‘बरबूंद’ और मिथिलाञ्चल मधुबनी के कोहबर(खोबर) भित्ति चित्रांकन को ही ले लें। इस के प्रयोजन और चित्रांकन प्रक्रिया की समानता की तुलना की जा सकती है। झारखंड और बिहार में विवाह के अवसर पर घर की दीवारों पर बर-वधू से जुड़ी रस्मों में कोहबर बनाए जाने की परंपरा है। इसी तरह कुमाऊँ में लोक चित्रांकन परंपरा का सर्वाधिक रंगबिरंगा रूप बरबूंद या बारे हैं। दरअसल यह भित्ति चित्र शैली है जिसका अंकन घर की दीवारों पर किया जाता है। चित्रण की इस शैली को लिख-थाप या थाप-लिखाई कहा जाता है। विविध रंगों, ज्यामितीय विन्यासों से बने अमूर्त आकारों के संयोजन से उकेरे जाने वाले बरबूंद बिन्दु या बूंदों और रेखाओं को ज्यामितीय गणनाओं पर आधारित कुमाऊनी आलेखन की एक विशिष्ट शैली है। आमतौर पर ऐसे आलेखन जनेऊ,विवाह या विशेष धार्मिक अवसरों यथा सातों-आठों पर तैयार किए जाते हैं। यहां के साह और ब्राह्मण परिवारों में ऐसे विशेष अवसरों पर दीवारों में बरबूंद उकेरे जाने की परंपरा आज भी चली आ रही है।

कतिपय शोधकर्ताओं का मानना है कि 9वीं सदी के आसपास पूर्वी भारत में विकसित हुई चित्रशैली जिसे पाल-सेन चित्रांकन शैली कहा गया, बंगाल, बिहार से होते हुए नेपाल और तिब्बत तक फैल गई थी। अलंकरण के लिए चटक लाल, हरे, नीले, पीले, सफ़ेद और काले रंगों का प्रयोग इस शैली की विशेषता थी। विशंभर नाथ साह ‘सखा’ का मानना है कि बंगाल के अलावा संभवतः तिब्बत के साथ स्थानीय समाज के संपर्कों ने इस आलेखन शैली के कुमाऊँ में प्रसार को लेकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी। यहां दीवारों में बनाए जाने वाले बरबूंदों में ऐसे ही चटक रंगों का प्रयोग किया जाता रहा है।

थाप-लिखाई के इस रूप में सबसे पहले घर के पूजा कक्ष या मुख्य कक्ष में दीवार को लीप कर आधार तैयार किया जाता है। दीवार के जिस भीतरी हिस्से को चित्रित किया जाना हो मिट्टी या कमेट से उसकी सतह को चिकना होने तक लीपा जाता है। इस तरह सूख कर तैयार की गई सतह में नीले, लाल या पीले रंग में भिगोयी लंबी पतली डोर से एक छोर से दूसरे छोर तक चित्रित की जाने वाली सतह मे छटकाते हुये सीधी रेखायें डालकर आवश्यकतानुसार वर्गों का अंकन किया जाता है। तत्पश्चात एक रुई लगी तीली से रंग मे भिगो कर निर्धारित स्थान मे बिन्दु या बूंद डाली जाती है। दो बिन्दुओं के बीच रेखाओं का संयोजन निर्धारित व्यवस्थानुसार किया जाता है जिससे वर्गों के रूप में खास किस्म के ज्यामितीय आकार उभर सकें। इन आकारों को अलग-अलग रंगों से भर कर आकर्षक रूप दिया जाता है। बिंदु और रेखाओं के संयोजन कारण ही इस चित्रांकन को बर-बूंद या बारे कहा जाता है। दन्या मुहल्ले की मीरा जोशी कहती हैं कि ऐपण या आलेखन की शुरुआत बिन्दु से की जाती है। यह सृष्टि और सृजन का प्रतीक है। दरअसल बरबूंद लिखाई में वर्ग और बिन्दुओं के संयोजन से बनने वाले ज्यामितीय आकार की सबसे छोटी इकाई भद्र कहलाती है। बिन्दुओं और वर्गों की संख्या के आधार पर भद्र को अलग अलग नाम दिए गए हैं। 6 वर्गों और 7 बिन्दुओ के संयोजन से निर्मित भद्र बाल भद्र कहलाता है। इसी तरह 16 वर्गों और 17 बिन्दुओ के संयोजन से निर्मित आकृति भद्र कहलाते है। 22 उससे अधिक वर्गों और बिन्दुओं वाले ज्यामितीय आकार खोडष कहलाते हैं। विवाह या यज्ञोपवीत के अवसर पर इन भद्रों के बीच में ज्युंति पट्टा बनाए जाने का भी चलन है।

वर्गों और बिन्दुओ से निर्धारित आकृति और भद्र की संख्या, रंगों की विविधता के कारण बरबूंदों को अलग अलग नाम दिये गए हैं। जैसे छै फूल बर या स्वास्तिक बर, मछिया बर, संगलिया बर, कटारी बर, गलीची बर ,मुष्टि बर या अल्मोड़िया बर, गुलाब चमेली बर, हर-हर मंडल बर, गौर तिलक बर, सुरजी बर, नींबू बर आदि। दीपावली के उपरांत मनाई जाने वाली हरबोधनी एकादशी को तुलसी विवाह के अवसर पर आज भी 12 बिन्दुओं वाले भद्र बनाए जाने की परंपरा है।

छै फूल बर या स्वास्तिक बर 24 वर्गों और 25 बिन्दुओं से संयोजन से निर्मित किया जाता है। इसी तरह 16 वर्गों,17 बिन्दुओं से निर्मित बर मछली सी आकृति लिया होने के कारण मछिया बर कहलाता है।

एक कड़ी या संगल सी आकृति लिया 22 वर्गों और 23 बिन्दुओं के संयोजन से बनने वाला बर संगलिया बर कहलाता है। इसी तरह 7 वर्गों और 8 बिन्दुओं से कटार की आकृति बनाने वाला बर कटारी बर कहलाता है। गलीचे या कालीन सा दिखने वाला बर गलीची बर कहलाता है। आमतौर पर यह 10 वर्गों और 11 बिन्दुओं या 12 वर्गों 13 बिन्दुओं को संयोजित कर बनाया जाता है। अनाज सुखाने के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले रिंगाल के मोष्टे की बिनाई के नमूने जैसा बर मुष्टि बर कहलाता है। इसको 6 वर्ग और 7 बिन्दुओं द्वारा उकेरा जाता है। इसी तरह 4 वर्ग और 5 बिन्दुओं की सहायता से बनाए जाने वाले बर को अल्मोड़ा के नाम पर अल्मोडिया खोडष बर कहा गया।

बर बूंद के विभिन्न नमूनों में सर्वाधिक जटिल नमूना गौर तिलक बर है। ततैये (झिमोड़) के छत्ते सा दिखने वाला यह बर 35 वर्गों और 36 बिन्दुओं के संयोजन से निर्मित किया जाता है। पार्वती को समर्पित इस बर में 12 फूलों के समूह को झिमोड़ा कहा जाता है। इस तरह कई झिमोड़ मिल कर एक बेहद सुंदर आकृति निर्मित करते हैं। एक अन्य जटिल आकृति हर हर मण्डल बर है। शिव को समर्पित यह बर 19 वर्गों और 20 बिन्दुओं को संयोजित कर बनाया जाता है।

2 वर्ग और 3 बिन्दुओं से सूरजमुखी के फूल की पंखुड़ियों की तरह बनाया जाने वाला बर सुरजी बर कहलाता है।कई बार इसमें एक अन्य आकार गुलाब चमेली बर भी उकेरा जाता है। बिशंभरनाथ साह सखा का मानना है कि सूर्य की आभा और किरणों से प्रेरित होकर 20 वर्गों और 21 बिन्दुओं से संयोजित एक अन्य बर भी सुरजी बर कहलाता है।

दीवार पर उकेरे गए चटकीले रंगों वाले ये खूबसूरत भद्र दूर से देखने पर कालीन सा आभास देते हैं। कुछ दशकों पहले ये रंग स्थानीय फूलों, पौधों और खनिजों से तैयार किए जाते थे। आज बाजार में उपलब्ध कृत्रिम रंगों का इस्तेमाल होने लगा है। बर-बूंद के सम्पूर्ण आलेखन को आकर्षक बनाए जाने के लिए ऊपरी किनारे को हिमाचल और शेष बाहरी छोरों को चारों ओर से विभिन्न खूबसूरत बेलें बना कर सजाया जाता है।

यह उल्लेखनीय है कि आज भी साह समुदाय में बर-बूंद अंकन की परंपरा विद्यमान है। चौधरीखोला निवासी श्री चौधरी बताते हैं कि ‘उनके घर में बर-बूंद लगभग 150 वर्ष पुराने हैं और आज भी अपनी चमक बनाए हुए हैं।अपने पूर्वजों की विरासत के रूप में वो इसे संरक्षित और सुरक्षित रखना चाहते हैं’। श्रीमती चौधरी बताती हैं कि शादी ब्याह के अवसर पर बर-बूंद बनाया जाना हमारे समुदाय में अनिवार्य है। सारे वैवाहिक अनुष्ठान उसी स्थान पर सम्पन्न किए जाते हैं। अनेक बार ऐसे विशेष अवसरों पर पुराने बर-बूंद के धुंधले पड़ चुके हिस्सों को पुनः रंग भर कर नया रूप दे दिया जाता था।

बर-बूंदों का अंकन सामान्यतः इस कला में दक्ष महिलाओं द्वारा किया जाता था। यदाकदा आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं के लिए बर बूंद का आलेखन छुटपुट आय का साधन भी बना जाया करता था। डुबकिया मुहल्ला निवासी 85 वर्षीया श्रीमती साह अपने विवाह आयोजन को याद करते हुये  बताती हैं की उनकी ससुराल में बर-बूंदों का अंकन उनके विवाह के उपलक्ष्य में किया गया था। परिवार में किसी के पास बर बूंद बनाने का बेहतर हुनर न होने के कारण ये बर-बूंद घर में नित्य प्रति पूजा के लिए आने वाले ब्राह्मण नित्यानन्द और उनकी पत्नी द्वारा तैयार किए गए थे।

दरअसल कलाओं के विविध रूप सामाजिक वातावरण से मानव मस्तिष्क पर पड़ने वाले प्रभावों की ही उपज होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि स्थानीय सामाजिक संरचना में ब्राह्मणीकरण की प्रक्रिया ने धीरे-धीरे इन कलारूपों को कर्मकांडो से जोड़ना आरंभ किया होगा। इस तरह विभिन्न अनुष्ठानों के लिए अलग-अलग चित्रांकन किए जाने लगे हों,जो कालांतर में समुदाय विशेष की विशिष्टता का प्रतीक बनाते चले गए। यहीं से विभिन्न कलारूपों में वर्चस्व कायम करने और सामुदायिक पहचान से जोड़ने की प्रक्रिया भी आरंभ हुई होगी। यह एक रोचक तथ्य है कि बरबूंद आज घर की सज्जा के लिए निर्मित नहीं किए जाते है। आलेखन की इस श्रमसाध्य परंपरा ने आज अपने को रूपांतरित कर लिया है। पिछले कुछ दशकों से शुभकार्यों के अवसर पर मिट्टी की दीवार के स्थान पर कपड़े या मोटे कागज पर निर्मित बरबूंद दीवार पर टांके जाने लगे हैं लेकिन लोकजीवन में इनकी आनुष्ठानिक प्रासंगिकता और महत्व कम होती जा रही है।

गिरिजा पांडे
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