हरित क्रांति के नाम एक खुला पत्र

जब दीप्ति और मैंने तय किया की हम शहर छोड़ पहाड़ों की ओर चले जायेंगे तब खेती के बारे में जानने समझने के लिए हमनें कई पुस्तकें पढ़ी और कई लोगों से मिले। एक ऐसी ही खोज हमें वर्ष 2012 में स्वर्गीय श्री भास्कर सावे जी के प्राकृतिक फार्म ‘कल्पवृक्ष’ तक ले गई। भास्कर जी का स्वर्गवास 93 वर्ष की उम्र में वर्ष 2015 में हुआ।

भास्कर जी को लोग ‘प्राकृतिक खेती का गाँधी’ भी कहते हैं। 2010 में इंटरनेशनल फेडरैशन ऑफ ऑर्गैनिक ऐग्रिकल्चर मूवमेंटस् (IFOAM) ने भास्कर जी को ‘वन वर्ल्ड अवॉर्ड फॉर लाइफ्टाइम अचीवमेंट’ से सम्मानित भी किया।

भास्कर जी के फार्म में भ्रमण करते हुए मुझे प्राकृतिक तरीके से उगाए गए नारियल के पेड़ दिखे जिनमें कई सौ फल लटक रहे थे। मैंने वहीं से केरल के अपने एक मित्र को फोन किया और पूछा की क्या उसने कभी एक पेड़ में इतनी संख्या में फल देखें हैं। उसका उत्तर नकारात्मक था। हमारी जिज्ञासा का उत्तर देते हुए भास्कर जी बोले की इस तरह का उत्पाद तभी संभव हैं जब एक पेड़ प्राकृतिक ढंग से अपनी समस्त संभावनाओं को उपार्जित करता है, मानव हस्तक्षेप के बिना। पेड़ पौधों के उपज को नियंत्रित करने के लिए जब मनुष्य हस्तक्षेप करता है तो वह उसे पोषित करने की जगह उसका शोषित करता है।

श्री एम एस स्वामीनाथन को लिखा यह ‘खुला पत्र’ खेती को लेकर भास्कर जी के विचारों का अच्छा प्रस्तुतीकरण करता है। श्री स्वामीनाथन को हरित क्रांति का जनक माना जाता है। यह पत्र भास्कर सावे जी द्वारा श्री स्वामीनाथन को लिखे गए पत्रों में से पहला पत्र व मुख्य पत्र है।

पाठकों की सहूलियत के लिए मैं इस पत्र का सारांश लिखना चाहता था पर वह विचार त्याग दिया क्योंकि मुझे लगता है की मुद्दे को ठीक से समझने और उस पर मनन करने के लिए पाठकों को समय निकालना ही होगा। चंद वाक्यों के सार या व्हाट्सएप फॉरवर्ड से ऐसे गंभीर विषय को समझने की कोशिश करने का कोई फायदा नहीं। अगर किसी को भारत के कृषकों और कृषि की चिंता है पर विषय समझने का समय नहीं तो ऐसी चिंता से कोई फायदा नहीं। संदर्भहीन मत का कोई औचित्य नहीं होता।

भास्कर जी के शब्दों में कहें तो – “मैं आशा करता हूँ यह पत्र इस गंभीर विषय पर आत्मविश्लेषण और खुले विचार विमर्श को प्रोत्साहित करेगा ताकि हम उन भारी भूलों को ना दोहराएँ जिनके कारण आज हम अव्यवस्था के दलदल में फँस से गए हैं।“

यह पत्र मूल रूप से अंग्रेजी में था। हिन्दी के पाठकों के लिए मैंने उसका हिन्दी अनुवाद किया है। अंग्रेजी में मूल पत्र पड़ने के लिया यहाँ क्लिक करें। ‘कल्पवृक्ष’ में भ्रमण करते हुए मैंने कुछ चित्र भी लिए थे जिन्हें साझा कर रहा हूँ।

एम एस स्वामीनाथन को भास्कर सावे का खुला पत्र

प्रेषक,

भास्कर सावे, कल्पवृक्ष फार्म,
ग्राम देहरी, वाया उमेरगाम, जिला वालसाद (गुजरात)

सेवा में,

श्री एम एस स्वामीनाथन,
अध्यक्ष, राष्ट्रीय किसान आयोग,
कृषि मंत्रालय, भारत सरकार

जुलाई 29, 2006

विषय – बढ़ती आत्महत्याएँ और कृषि/कृषकों से संबंधित राष्ट्रीय नीतियाँ

आदरणीय श्री स्वामीनाथन,

मैं 84 वर्ष का जैविक/ प्राकृतिक किसान हूँ। मैं छह दशकों से खेती कर रहा हूँ और विभिन्न प्रकार के कृषि उत्पाद उगा रहा हूँ। विगत दशकों में मैंने खेती के विभिन्न तरीकों को अपनाया। शुरुआती दिनों में मैंने रसानयिक खेती भी की पर मुझे जल्द ही उसे जनित खतरों का आभास हो गया।

मैंने पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ की प्राकृतिक सामंजस्य से की गई जैविक खेती ही भारत के निवासियों को चिरस्थायी रूप से पौष्टिक भोजन प्रदान कर सकती है। हर भारतीय का आत्मसम्मान के साथ स्वस्थ व शांतिपूर्ण जीवनयापन करने का यही एक माध्यम है।

आप, श्री एम एस स्वामीनाथन, भारत में हरित क्रांति के जनक माने जाते हैं। वही हरित क्रांति जिसके कारण भारत में खेती के लिए जहरीले रसायनों का आगमन हुआ। इन जहरीले रसायनों ने पिछले 40 वर्षों में कृषि भूमि एवं कृषकों के जीवन में जहर घोलने का काम किया है। कृषि के लंबे इतिहास में धरती/मिट्टी की इतनी दुर्दशा व किसानों को कर्ज में डुबोने में आपका योगदान सर्वाधिक रहा है। इन्हीं कारणों से हर वर्ष कई किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं और इन आत्महत्याओं की संख्या बढ़ती जा रही है।

इसे नियति ही कहेंगे की आप उस राष्ट्रीय किसान आयोग के अध्यक्ष नियुक्त हुए है जिसे नई कृषि नीतियों  का प्रारूप बनाना है। मेरा निवेदन है की आप इस मौके का लाभ उठाते हुए भूल सुधार करें – हमारे बच्चों के लिए, और उनके लिए जिन्होंने अभी जन्म लेना है।

मुझे जानकारी मिली है की नई नीतियों का प्रारूप तैयार करने के लिए आयोग किसानों के विचार आमंत्रित कर रहा है। क्योंकि यह एक खुला परामर्श है, मैं इस पत्र की प्रतिलिपि प्रधानमंत्री, कृषि मंत्री, अध्यक्ष, राष्ट्रीय सलाहकार परिषद व मीडिया को साझा कर रहा हूँ। मैं आशा करता हूँ यह पत्र इस गंभीर विषय पर आत्मविश्लेषण और खुले विचार विमर्श को प्रोत्साहित करेगा ताकि हम उन भारी भूलों को ना दोहराएँ जिनके कारण आज हम अव्यवस्था के दलदल में फँस से गए हैं।

इस बात को ज़्यादा समय नहीं हुआ जब महान लेखक बंकिम चंद्र ने हमारे देश को ‘सुजलाम सुफलाम’ कहा था। सच में भारत एक समृद्ध देश था – मिट्टी उर्वरक थी, पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था, सूर्य का प्रकाश था, घने जंगल थे, अद्भुत जैव विविधता थी और साथ में था सुसंस्कृत व शांतिप्रिय जनमानस जिसके पास खेती संबंधी अपार ज्ञान व विवेक था।

खेती हमारे रग-रग में है पर मुझे दुख है की मेरी पीढ़ी के भारतीय किसानों ने अपने को ठगा जाने दिया जिसके चलते उन्होंने खेती के अदूरदर्शी व विनाशकारी तरीके अपनाए – वो तरीके जिन्हें आपने और आप जैसे उन लोगों ने आयातित किए जिन्हें खेती का शून्य अनुभव है।

सर्वाधिक जनसंख्या घनत्व होने के बावजूद हमारी इस भूमि ने असंख्य पीढ़ियों को बड़ी सहजता से पाला है। वो भी रसानयिक खादों, कीटनाशकों, आयातित नाटे (ड्वॉर्फ) पौधों, बायो-टेक, इत्यादि के बिना, जिनकी आप वकालत करते हैं। विदेशी आक्रमणों की अनगिनत लहरें यहाँ ये बहुत कुछ लूट कर ले गई पर हमारी धरती की उर्वरकता जस की तस रहकर हमारा पोषण करती रही।

उपनिषदों में लिखा है –

ॐ पूर्णमदः
पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

अर्थात – यह सृष्टि सर्वदा सम्पूर्ण है,
यह सम्पूर्णता ही सृजन की जननी है और हर सृजन पूर्ण है।
पूर्ण से यदि पूर्ण निकाल भी लिया जाए, तो भी पूर्ण ही बचता है,
चिरस्थायी, सम्पूर्ण!

हमारे जंगलों में बेर, जामुन, आम, अंजीर, महुआ, इमली, इत्यादि इतनी प्रचुर मात्र में उगते हैं की फलों के भार से टहनियाँ जमीन छूने लगती हैं। हर वृक्ष, वर्ष दर वर्ष, एक टन से अधिक की वार्षिक उपज देता है। बावजूद इसके हमारी पृथ्वी सम्पूर्ण रहती है। हमारी भूमि का ह्रास नहीं होता।

इन पेड़ों को पानी, खाद (एन.पी.के.) कहाँ से मिलता है? ये चट्टानों में भी कैसे फल फूल जाते हैं? ये अपनी जगहों पर अडिग रहते हैं और प्रकृति इनकी जरूरतों को पूरा करती है। पर आप जैसे ‘वैज्ञानिक’ व विशेषज्ञ अपनी आँखों में पट्टी बाँध कर इस सत्य को अनदेखा कर देते हैं। आप लोग किस आधार पर यह नुस्खा जारी करते हैं की एक पेड़ या पौधे की कब, क्या और कितनी जरूरतें हैं?

कहा जाता है की जब ज्ञान की कमी होती है तो अज्ञानता ‘विज्ञान’ का स्वांग रचती है! आपने भी ऐसे ही विज्ञान को अपनाया और उसके माध्यम से हमारे किसानों को दिशाभ्रमित कर उन्हें दुर्गति के कुएँ में धकेल दिया। वैसे अज्ञानी होना शर्म की बात नहीं है। अपनी अज्ञानता के बारे जागरूक होना ज्ञान प्राप्त करने की दिशा में पहला कदम है। अपनी अज्ञानता को नकारना अहंकार है जिसके जरिए हम खुद को भ्रमित करते हैं।

कृषि की मिथक शिक्षा

हमारे देश में 150 से अधिक कृषि विश्वविध्यालय हैं। इनमें से कईयों के पास हजारों एकड़ कृषि भूमि है। इनके पास समस्त मूलभूत सुविधाएँ हैं, मशीनें हैं, लोग हैं, पैसा है… पर इसके बावजूद, भारी भरकम अनुदान के बाद भी, ये संस्थाएँ मुनाफा कमाना तो दूर अपने छात्र-छात्राओं व कर्मचारियों के लिए भोजन तक नहीं उगा पातीं। पर हर वर्ष ये संस्थाएँ कई सौ ‘शिक्षित’ पर रोजगार के अयोग्य छात्र-छात्राओं को तैयार करतीं हैं जिनको केवल इस बात के लिए प्रशिक्षित किया गया है की कैसे किसानों को भ्रमित किया जाए और पारिस्थितिकी का ह्रास हो।

कृषि में एम.एस.सी. (MSc) करते हुए छात्र/छात्रायें छह वर्ष लगाते हैं और इन वर्षों में उनका एक ही संकीर्ण व अल्पकालिक ध्येय होता है – उत्पादकता। इस ‘उत्पादकता’ के लिए किसानों को अनेकानेक चीजें खरीदने के लिए प्रेरित किया जाता है। पर इस बात पर एक क्षण के लिए भी विचार नहीं किया जाता की किसानों को वो कौन से कदम नहीं उठाने चाहिए जिनसे उसकी जमीनों को तथा अन्य जीवजंतुओं को नुकसान होता है। समय आ चुका है की हमारे लोग व हमारी सरकारें इस बात को समझें की इन संस्थाओं द्वारा प्रोत्साहित खेती के औद्योगिक तरीके मूलतः आपराधिक व आत्मघातक हैं।

गाँधीजी ने कहा था कि – जहाँ शोषण होगा वहाँ पोषण नहीं हो सकता। विनोबा भावे जी का कहना था कि – जहाँ विज्ञान और संवेदना का सामंजस्य होता है वहाँ धरती स्वर्ग बन जाती है, और जहाँ इनका सामंजस्य नहीं होता वहाँ एक ऐसी ज्वाला जन्म लेती है जिसकी लपटें हम सभी को निगल सकती हैं।

प्रकृति की ‘उत्पादकता’ को बढ़ाने की चेष्टा वह मूलभूत चूक है जो आप जैसे ‘कृषि वैज्ञानिकों’ के अज्ञानता को  चिन्हित करता है। अगर मनुष्य छेड़छाड़ न करे तो प्रकृति उदारता की पराकाष्ठा है। धान का एक दाना कुछ ही महीनों में धान के हजार दाने उपजाता है। ऐसे में ‘उत्पादकता’ बढ़ाने की ये जिद कैसी?

सभी तरह के फलदायक पेड़ अपने जीवनकाल में हजारों किलो का आहार उत्पादित करते हैं बशर्ते की किसान अल्पकालिक मुनाफे के लोभ में आकर पेड़ों को जहर से ना सींचे या उनकी प्राकृतिक विकास से छेड़छाड़ ना करे। हर बच्चे का अपनी माँ के दूध पर अधिकार है पर अगर हम धरती माँ से जबरन दूध खींचने का प्रयास करते हुए खून और माँस भी निचोड़ लेंगे तो हम उस माँ से अवलम्बित पोषण की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं?

हमारी समस्त मुसीबतों की जड़ है ‘वाणिज्य और उद्योग’ के गुलामी की मानसिकता जिसके तहत हम अन्य सभी पक्षों को नकार देते हैं। हम यह भूल जाते हैं की ‘उद्योग’ किसी ‘नए’ को जन्म नहीं देता। वह तो महज प्रकृति से प्राप्त कच्चे माल को एक नया स्वरूप देता है। सूर्य के ओज से मौलिक सृजन व जीवन प्रदान करने की क्षमता केवल प्रकृति में ही है।

प्रकृति के छह स्वपुन:स्थापी घटक

पृथ्वी पर प्रकृति के छह मुख्य घटक हैं जो सूर्य की रोशनी के साथ पारस्परिक क्रिया में रहते हैं। इनमें से पहले तीन हैं – वायु, जल तथा भूमि/मिट्टी। इन तीन घटकों के साथ अनुबंधित हैं जीवन की तीन सृष्टियाँ – वनस्पति सृष्टि (पेड़ पौधों की दुनिया), जीव सृष्टि (कीट पतंगों व सूक्ष्म जंतुओं की दुनिया) व प्राणी सृष्टि (पशु पक्षियों की दुनिया)। यह छह घटक पारस्परिक संतुलन और आपसी सामंजस्य से प्रकृति के विभिन्न सुरों को सुसंगत तो रखते ही हैं, साथ ही साथ नए सुरों का सृजन भी करते हैं।

इन घटकों के संतुलन और सामंजस्य को अस्त-व्यस्त करने का मनुष्य के पास कोई अधिकार नहीं है। परंतु आधुनिक टेक्नॉलजी की, विवेक और करुणा की जगह, वाणिज्य से नजदीकी ने कई स्तरों पर प्रलय के बीज बोने का कार्य किया है। हमने जमीन, जल और वायु को प्रदूषित ही नहीं किया अपितु लूटा भी है। हमनें अपने जंगलों का नाश किया है और वहाँ रहने वाले प्राणियों को मारा है। आधुनिक किसानों ने बहुत निष्ठुरता से अपनी जमीनों को जहर से सींचा है।

इन सब कृत्यों के कारण जीव सृष्टि का नाश हुआ है। हमने उन सूक्ष्म प्राणियों की सामूहिक हत्या की है जिनके अथक प्रयास से मिट्टी की संरध्रता बनी रहती है। यही सूक्ष्म प्राणी जैविक अवशेषों को पुनःचक्रित कर उन्हें खाद का रूप प्रदान करते हैं। कृषि में प्रयोग किए जाने वाले घातक रसायन जल को भी दूषित करते हैं जिनसे प्राणी सृष्टि (मनुष्य भी जिसका भाग है) प्रतिकूल रूप से प्रभावित होती है।

असंवहनीयता की जड़ें

संवहनीयता (संधारणीयता) एक आधुनिक सोच है जिसकी ‘हरित क्रांति’ के दौर में अधिक चर्चा नहीं होती थी। क्या आप इस बात से इनकार कर सकते हैं की 40 शताब्दियों (कुछ मतों के अनुसार 100 शताब्दी) से अधिक समय से हमारे पूर्वज प्राकृतिक जैविक खेती करते थे और ऐसा करते हुए उन्होंने भूमि की उर्वरकता कम नहीं होने दी पर हमने चार पाँच दशकों में ही भूमि को उजाड़ दिया है? क्या यह एक भयावह सच्चाई नहीं है की नकदी फसलों की रसायन व सिंचाई प्रधान एकल कृषि ने भारत के विभिन्न भागों में पारिस्थितिकी का सर्वनाश किया है? और वह भी केवल एक पुश्त के कार्यकाल में!

जैविक विविधता का अभियंत्रित ह्रास, जैविक तत्वों का अभाव और भूमि की दुर्दशा

हमारा देश अपनी विस्तृत जैव विविधता के लिए जाना जाता है – एक ऐसी जैव विविधता जो सैकड़ों सालों से स्थानीय परिस्थिति व जरूरतों के अनुरूप ढल गई है। लंबी प्रजाति के हमारे स्थानीय अनाज प्रचुर मात्रा में जैव भार (बायोमास) निर्मित करते हैं, ज़मीन को सूर्य के ताप से बचाते हैं और मानसून में मिट्टी का कटाव/बहाव रोकते हैं। पर अधिक उत्पाद के धोखे में आपने उन्नत बीज के नाम पर किसानों के बीच विदेशी बौनी प्रजातियाँ का प्रचार प्रसार किया। इसके चलते खरपतवार को पनपने और फलने फूलने का मौका मिला। वो अनाज के साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए उन्हीं के विकास में बाधक बन गए। अब खरपतवार को काबू में रखने के लिए किसानों को श्रम और पैसा दोनों व्यय करना पड़ता है। कई किसान इसके लिए हानिकारक रसायनों का प्रयोग भी करते हैं।

विदेशी बौनी प्रजातियों के कारण पूआल की उपलब्धता एक तिहाई रह गई है। पंजाब और हरियाणा में यह भी जला दी जाती है क्योंकि रसायनों के कारण इसका पशु आहार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। अतः  जानवरों की जगह अब खेतों में ट्रैक्टर चलने लगे हैं। इन सबके कारण जैव भार घट गया है जिससे भूमि की उर्वरकता कम हो गई है। उर्वरकता बनाए रखने के लिए अब बाहरी व अप्राकृतिक खाद /रसायनों इत्यादि की जरूरत पड़ती है जिसके कारण भूमि का लगातार भूक्षरण तथा ह्रास हो रहा है।

अभियांत्रित /अभियंत्रित /सुनियोजित महामारी

रसानयिक खाद के बलबूते पर उगाई गई विदेशी प्रजातियाँ पर परजीवियों, कीट पतंगों व बीमारी का खतरा अधिक रहता है जिसके कारण जहरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है। पर समय से साथ कीट पतंगों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है और वो इस जहरीले वातावरण में भी उन्मुक्तता से प्रजनन करने लगते हैं। पहले कीट पतंगों की जनसंख्या को मकड़ियाँ, मैंढ़क, इत्यादि प्राकृतिक रूप से काबू में रखते थे पर जहरीले रसायनों के प्रयोग के कारण मकड़ियाँ, मैंढ़क, इत्यादि की संख्या में भारी कमी आ गई है। यही कमी खेती के अन्य सहायक जंतुओं, जैसे कैंचुओं और मधुमक्खियों, में भी देखी गई है।

कृषि उद्योग एवं विज्ञान विशेषज्ञ लगातार अधिक तीव्र रसायनों के प्रयोग पर जोर देते रहते हैं। मात्रा और कीमत में लगातार बढ़ोतरी हो रही है पर परजीवियों, कीट पतंगों व बीमारी की समस्या हल होने की जगह बढ़ गई है। हम पारिस्थितिकीय, पर्यावरणीय, वित्तीय व मानवीय बोझ के तले दबे जा रहे हैं!

जल अभाव तथा मृत खारी मिट्टी का ‘विकास’

अप्राकृतिक खाद व नकदी फसलों की खेती के कारण सिंचाई की जरूरतें बहुत बढ़ गई है। पाँच नदियों के सिंचित पंजाब की भूमि ने कभी जल अभाव नहीं देखा था पर 1952 में वहाँ भाखड़ा बाँध का निर्माण हुआ। इसके बाद देश भर में हजारों छोटे व बड़े बांधों का निर्माण करते हुए हम सरदार सरोवर तक पहुँचे। अब सरकार की मंशा है की ₹560,000 करोड़ खर्च नदियों को मोड़ा और जोड़ा जाए। यह एक तुगलकी पागलपन है जो आने वाले पीढ़ियों के भविष्य को नजरंदाज करता है।

विश्व में दक्षिणी अमरीका के बाद भारत में सबसे अधिक वर्षा होती है। हमारा वार्षिक औसत लगभग 4 फीट है। जहाँ भी घनी वनस्पति ने जमीन को ढँक रखा है वहाँ की झर्झरी मिट्टी बारिश के पानी को सोख कर उसे जमीन की विभिन्न परतों में सहेज देती है। इस पानी का एक अच्छा खास अंश छन कर गहराई तक जाता है और भूजल पुनर्भरण (ग्राउन्ड वाटर रिचार्ज) करता है।

इस तरह जीवित मिट्टी और जलीय चट्टानें मिल कर जल भंडारण के लिए एक विशाल जलाशय निर्मित करती हैं, वह भी मुफ़्त में। प्रकृति की यह अनमोल तोहफा जंगलों में और भी कारगर रहता है। आधी सदी पहले तक भारत के अधिकांश भागों में पानी की कमी नहीं रहती थी। पर जंगलों के कट जाने से जमीन की जल संरक्षण क्षमता बहुत घट गई है। भारत के अनेक हिस्सों में नाले व कुएँ सूख गए हैं या सूखने लगे हैं।

एक ओर जहाँ भूजल पुनर्भरण में भारी कमी आई है वहीं दूसरी ओर पानी की माँग बहुत बढ़ गई है। 1950 के मुकाबले भारतवर्ष में आज जमीन से 20 गुना अधिक पानी खींचा जा रहा है। कुछ गिने चुने लोग पानी का अत्यधिक बर्बादी कर रहे हैं जब की ग्रामीणजन आज भी कुएँ या हैन्डपम्प से पानी खींच रहे हैं। उनकी खेती वर्षा पर निर्भर है। वो प्रति व्यक्ति आज भी उतना ही पानी उपयोग कर रहे हैं जितना कुछ पीढ़ी पहले किया करते थे।

भारत में पानी की कुल आपूर्ति का 80% भाग खेती में व्यय हो जाता है जिसका सबसे बड़ा हिस्सा नकदी फसल की रसानायिक खेती में इस्तेमाल होता है। उदाहरणार्थ, भारत में सबसे अधिक बड़े और मध्यम बाँध महाराष्ट्र राज्य में हैं। वहाँ केवल 3-4% कृषि भूमि में गन्ने की खेती होती है पर वह जल आपूर्ति का 70% भाग पी जाती है।

एक एकड़ भूमि में रसानयिक तरीके से गन्ना उगाने के लिए जितना पानी इस्तेमाल होता है उतने पानी से 25 एकड़ जमीन में ज्वार, बाजरा, या मक्का आसानी से उगाया जा सकता है। ऊपर से चीनी मिलों में भी बहुत पानी व्यय होता है। गन्ना उगाने से चीनी बनाने तक के सफर में हर किलो चीनी पर 2 से 3 टन पानी खर्च होता है। इतने पानी में पारम्परिक जैविक तरीकों से 150-200 किलो ज्वार या बाजरा (या अन्य स्थानीय मोटे अनाज) उगाये जा सकते हैं।

धान को भी वर्षा पर निर्भर रह कर उगाया जा सकता है पर एक से अधिक उपज लेने के लोभ में हम उसे कृत्रिम सिंचाई से उगाते हैं जिसमें अत्यधिक पानी व्यय होता है। गन्ने की तरह घान भी हमारी जमीन को खारा बनाकर लगातार नष्ट कर रहा है।

सिंचाई प्रधान खेती का सबसे बड़ा दुष्परिणाम है नमक की पपड़ी के बनते रहने के कारण जमीन का खारापन। इस खारेपन की वजह से सैकड़ों हेक्टेयर कृषि भूमि नष्ट हो चुकी है। गन्ने व बासमती चावल जैसे सिंचाई प्रधान फसलों की खेती इस मुसीबत का सबसे बड़ा कारण हैं। इन फसलों के कारण हमने मिश्रित खेती व फसल चक्र जैसे वो पारम्परिक तरीके त्याग दिए हैं जिन्हें सिंचाई की जरूरत पड़ती ही नहीं थी और अगर जरूरत हुई भी तो न्यूनतम सिंचाई से काम चल जाता था।

भारत में सिंचाई के लिए उपयोग हो रहे पानी का 60% भाग गैरजरूरी है। सबसे पहले हमें इस अत्यधिक सिंचाई और उससे हो रहे नुकसान को रोकना होगा। इससे हमारी भूमि तो बचेगी ही, बचाए गए पानी का भी जरुरतमन्द क्षेत्रों में सही उपयोग किया जा सकेगा।

कल्पवृक्ष में सिंचाईं और भूजल पुनर्भरण  

सक्षम जैविक खेती को सिंचाई की खास जरूरत नहीं होती। और अगर जरूरत पड़ भी गई तो वो आधुनिक खेती की जरूरतों के मुकाबले बहुत कम होती है। फसल की उपज सबसे अच्छी तब होती है जब जमीन में नमी रहती है। धान एकमात्र फसल है जो पानी के भराव में भी पनप जाता है इसीलिए उसकी खेती मानसून के समय निम्नस्थ भूमि में की जाती है। पानी के भराव से जमीन के वायु छिद्र भर जाते हैं और पौधों की जड़ों को वायु नहीं मिल पाती जिसके कारण अधिकांश फसलें ठीक से पनप नहीं पाती हैं। लम्बे समय तक भराव के कारण जड़ें सड़ जाती हैं।

हमारे फार्म में न्यूनतम सिंचाईं होती है जो आधुनिक फार्मों की सिंचाई का अंश मात्र है। पेड़ों के बागान में पौधों से ढकी मिट्टी अपने झिरझिरेपन के कारण स्पन्ज की तरह बरसात में पानी सोख कर भूजल का स्तर बढ़ाती है। सूखे के दिनों में हम जितना पानी अपने कुएँ से निकालते हैं उससे कहीं अधिक पानी से हम अपने  जलभर (एक्विफ़र) का पुनर्भरण करते हैं।

इस तरह हमारा फार्म क्षेत्र के पारिस्थितिक तंत्र (ईको सिस्टम) से पानी खींचने की जगह उसे सींचता हैं। इससे ये बात तो साफ होती है की पानी की कमी दूर करने और खाद्य सुरक्षा के लिए हमें प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए जैविक तरीकों से स्थानीय फसलों और पेड़ पौधों की मिश्रित खेती करनी होगी।

30% वृक्षावरण की जरूरत

हमें अगले एक दो दशक में अपनी 30% भूमि को मिश्रित वनों से ढगने की जरूरत है। भूमि के जल स्तर को उसके नैसर्गिक रूप में बहाल करने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है। अगर हम इस दिशा में गंभीरता से अग्रसर होते हैं तो एक दशक में ही अद्भुत परिणाम दिखने लगेंगे, वह भी बहुत कम लागत पर। हम यह बात समझने का प्रयास ही नहीं करते इस तरह के प्राकृतिक जल भंडारण की क्षमता भारत के समस्त सिंचाई परियोजनाओं (पूर्ण, अपूर्ण एवं नियोजित) से कई गुना अधिक है। विकेंद्रित भूमिगत जल भंडारण का यह तरीका इसलिए भी प्रभावशाली है क्योंकि इसमें पानी वाष्पीकरण से बचा रहता है। इन मिश्रित वनों से हमें विभिन्न प्रकार के वन उत्पाद भी मिलेंगे जिससे अनेकानेक लोग लाभान्वित होंगे।

बंजर भूमि को भी एक दशक से कम समय में एक जंगल के रूप में पुन:स्थापित किया जा सकता है। लघु, मध्यम व दीर्घ आयु के फसलों और वृक्षों के मिश्रित रोपण से हम यह निश्चित कर सकते हैं की संक्रमण काल में भी किसान को भूमि से पर्याप्त मात्र में भोजन प्राप्त हो सके। पर्याप्त मात्र में जैवभार की उपलब्धता और सम्पूर्ण भू-आवरण भूमि की उर्वरकता के पुनरुद्धार की प्रक्रिया को गति प्रदान करेगा।

उत्पादन, दरिद्रता और जनसंख्या

अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद हमारी खेती निरंतर रूप से ठीक हो रही थी। भारत के ग्रामीण इलाकों में, जहाँ 75% भारतीय रहते थे, विविध पौष्टिक आहारों की कमी नहीं थी। ऐसे में ‘हरित क्रांति’ को आगे बढ़ाने का एकमात्र संकीर्ण लक्ष्य कुछ खास अनाजों का उत्पाद बढ़ाना था जो कम नाशवान होने के कारण सरकार के शहरीकरण व औद्योगीकरण के सपने को साकार करने में मददगार होते।

खेती के जिन परजीवी तरीकों को आपने बढ़ावा दिया उसका फायदा केवल उधयोगपतियों, व्यापारियों और सत्ताधीशों को हुआ। किसानों का कृषि व्यय बढ़ता गया और फायदा घटता गया। आपके तरीकों के कारण हो करे कृषि भूमि के ह्रास ने उन्हें कर्ज और मृत मिट्टी के सिवा कुछ नहीँ दिया। विरले ही थे जिनके हाथ कुछ थोड़ा बहुत लगा। बहुतेरे किसानों ने किसानी त्याग दी। लगातार बढ़ रहे खर्च के कारण कई अन्य किसान भी खेती छोड़ना चाहते हैं। यह हालात इसलिए और भी दुःखदायक क्योंकि उदार प्रकृति ने तो हमें वह सब कुछ दिया है जिससे हम अपने लिए, जहरीले भोजन की जगह, पौष्टिक आहार उगा सकता हैं – वो भी न्यूनतम खर्च पर।

कृषि के नैसर्गिक रूप का पुनःनिर्माण ही भारत में गरीबी, बेरोजगारी और बड़ती जनसंख्या की समस्या का समाधान है। भारत के अधिकांश नागरिक तभी आत्मनिर्भर हो सकते हैं जब वे न्यूनतम निवेश के साथ कृषि करें। इसके लिए जरूरी है कि कृषि के लिए न्यूनतम वित्तीय लागत लगे, कम से कम खरीद हो, ज्यादा औजारों, मशीनों और श्रम की जरूरत न पड़े, तथा बाहरी तकनीकों पर निर्भरता बहुत कम हो। ऐसा करने से निवेश कम होगा और उत्पादकता बढ़ेगी जिसके चलते गरीबी कम होगी और जनसंख्या वृद्धि पर भी लगाम लगेगी।

इस तरह की आत्मनिर्भर कृषि – जिसमें बाहरी निवेश शून्य या न्यूनतम हो – खेती का हमारा पारंपरिक तरीका है, जिसे हम सदियों से करते आए थे। युद्ध और औपनिवेशिकता का काल छोड़ दें तो इतिहास में अधिकांशतः समय हमारे किसान आत्मनिर्भर रहे हैं। उन्होंने प्रचुर मात्रा में, अपनी जरूरतों से अधिक, तरह तरह की फसलें उगाईं है। केवल इसलिए की मिश्रित उपजों की यह विविधता शहरी बाजारों तक पहुँचानी कठिन थी, देश के किसानों को एकल कृषि की ओर धकेल दिया गया ताकि वो रसानयिक तरीकों से गेहूँ, धान, या गन्ने जैसी कुछ ही तरह के नकदी फसलें उगाएँ। इसके लिए उन्हें अपने न्यूनतम निवेश वाले पारम्परिक बहुशस्यल (पॉली कल्चर) तौर तरीके त्यागने पड़े।

अतः निष्कर्ष

मुझे आशा है की आप में इतनी सत्यनिष्ठा है की आप व्यापक बदलाव के लिए मिश्रित जैविक खेती, वृक्षारोपण और वनों के पुनरुद्धार का समर्थन करेंगे। भारत को इस बदलाव की सख्त जरूरत है। मैं आपके सवालों व शंकाओं का जवाब देने के लिए उत्सुक हूँ पर चाहूँगा की वो लिखित में हों। अग्रिम सूचना से साथ हमारे फार्म का मुआयना करने के लिए आपका स्वागत है। पिछले कई सालों से हम अपने फार्म ‘कल्पवृक्ष’ में सभी इच्छुक व्यक्तियों का स्वागत करते हैं जो जैविक/प्राकृतिक खेती के बारे में जानने तो उत्सुक हैं। इसके लिए शनिवार 2 से 4 बजे शाम का समय निर्धारित है।

अन्त में मैं यह भी बताना चाहूँगा की इस पत्र को अंग्रेजी में भरत मनसाता ने लिखा है। पत्र का आधार गुजराती भाषा के की गई हमारी चर्चा है।

आप मेरे विचारों के सहमत हों या नहीं, मुझे आपके उत्तर का इंतज़ार रहेगा।

भवदीय
भास्कर हीराजी सावे

प्राकृतिक खेती के बारे में भास्करजी के विचारों को विस्तारपूर्वक जानने के लिए आप भरत मनसाता द्वारा लिखित पुस्तक ‘द विज़न ऑफ नैचुरल फ़ार्मिंग’ पढ़ सकते हैं। यह पुस्तक अर्थकेयर बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है।

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