कुछ समय पहले की बात है कि मेरी जान पहचान के एक ‘ब्राह्मण’ ने अचानक बड़ी अजीब सी बात कर दी। वो बोले, चाहे कुछ भी हो जाए मैं किसी दलित या आदिवासी को अपने रसोई में घुसने नहीं दे सकता। उनकी यह बात सुन कर एक झटका सा लगा। समझ नहीं आया की लोग इतना कुछ जानते हुए भी इतने अनजान क्यों हैं?
उन्होंने ऐसा क्यूँ कहा समझ नहीं आया। वो एक खाते पीते परिवार से हैं। बहुत अच्छे स्कूलों में पढ़े हैं। सरकार में बड़े अफसर हैं। पाश्चात्य रंग ढंग से जीते हैं। पर फिर भी अपने इतिहास को अपने आज पर हावी होने देते हैं। वो भी एक ऐसा इतिहास जिसे बनाने में उनकी कोई भूमिका नहीं रही। उनकी बात सुन कर मन क्रोधित भी हुआ और अशांत भी। मैंने उनसे कहा मैं भी तो आदिवासी मूल का हूँ तो फिर आप मुझे कैसे अपने घर आने का न्योता दे सकते हैं? मुझे यकायक लगा कि कहीं मैं ही उन्हें आतिथ्य के लिए विवश तो नहीं कर रहा। इसी डर से मैंने उनसे अपने सम्बन्ध कम कर लिए। मजबूर होना या किसी को मजबूर कर देना अच्छी बात नहीं है।
कई दिनों तक उनकी कही बात मुझे परेशान करती रही। सोचता रहा की वो ऐसी सोच कैसे रख सकते हैं? मेरा बहुत मन किया की मैं उनके ब्राह्मण होने को कोसूँ। पर फिर ये भी ध्यान आया की मेरे कई मित्र व सम्बन्धी भी तो ब्राह्मण कुल में जन्मे हैं पर वो तो ऐसी सोच नहीं रखते, या इस हद तक नहीं रखते। वो तो हर वक्त अपनी जाति का बिल्ला लगा कर इस तरह नहीं घूमते। तो फिर फर्क क्या है इनमें और उनमें? अपने अशांत मन को स्थिर करने के लिए मैंने ब्राह्मणवाद के नाम को ये पत्र लिखा जिसे यहाँ साझा कर रहा हूँ।
हे ब्राह्मणवादी ब्राह्मण,
आपका ब्राह्मण होना आपके वश में नहीं था। आप अगर आत्मा, परमात्मा, कर्म, पुनर्जन्म, इत्यादि को मानते हैं तो ये भी जानते होंगे की आप किस योनि, राज्य, काल, जाति और परिवार में जन्म लेंगे ये आप तय नहीं कर सकते थे। आपका ब्राह्मण कुल में जन्म लेना महज एक इत्तेफाक है। ठीक वैसे ही जैसा किसी का ठाकुर, दलित, वैश्य या आदिवासी कुल में जन्म लेना।
क्योंकि ये चुनाव आपने नहीं किया था इसलिए आपका ब्राह्मण होना न तो हर्ष की बात है और ना दुखी होने की। ब्राह्मण कुल में जन्म लेना अपराध नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे दलित कुल में जन्म लेना अपराध नहीं है। ये सब घटनाएँ हैं जो आपके और मेरे वश में नहीं हैं इसलिए इस ‘होने’ का कोई खास तात्पर्य भी नहीं है। आप क्या हैं ये तो अपने जीवनकाल में आप स्वयं ही साबित करते हैं। हम क्या हैं या क्या नहीं ये तो केवल हम ही जानते हैं!
हर जाति का अपना एक इतिहास होता है। हर इतिहास में कुछ अच्छा होता है और कुछ बुरा। कुछ चीजें बीते कल के अनुसार अच्छा रही होंगी पर अब नहीं है। कुछ बीते कल के अनुसार बुरी रही होंगीं पर अब ठीक हैं। कोई चीज किसी काल खण्ड में क्यों अच्छी या बुरी थी ये उस कालखंड की सामाजिक व्यवस्था ने अपनी समझ से तय किया होगा। ये भी हो सकता है कि वो निर्णय शायद किसी कि अकड़ का नतीजा हो। निर्णय जो भी रहा हो और जैसे भी रहा हो, वो ‘उनका’ निर्णय था। वो सही था या गलत ये वो ही जानें, हम तो बस अटकलें लगा सकते हैं – कई तरह की अटकलें! इन अटकलों में निहित विरोधाभास पर वाद विवाद किया जा सकता है पर ये महज बौद्धिक द्वंद हैं, नैतिक या राजनैतिक द्वंद नहीं। ऐसे संवाद हमें अपने इतिहास को जानने और उससे सीखने का मौका देते हैं।
हम अपने इतिहास को तो नहीं बदल सकते पर अपने वर्तमान को जरूर काबू में रखने की कोशिशें कर सकते हैं। जाति, राष्ट्रीयता और धर्म की चादरों से मुँह बाहर निकाल कर हम खुली हवा में लम्बी साँस लेते हुए मुक्त मन से ये देख परख सकते हैं की आज के समय में क्या सही है और क्या गलत। हमें यह भी पता है कि जो भी निर्णय हम लेते हैं वो सदा के लिए सच नहीं रहता। समय के अनुसार निजी व सामाजिक सत्य बदल सकते हैं। इतिहास के कई ‘घृणित’ निर्णय उस काल खण्ड के अनुसार सही ठहराए जाते रहे हैं। हो सकता है कोई और रास्ता ही ना बचा हो। ये भी हो सकता है कि चीजें इतने धीरे भ्रष्ट हुईं कि समाज को अपने भ्रष्ट होने का पता ही नहीं चला। और जब पता चला तो कुछ किया नहीं जा सका या जानबूझ कर किया नहीं गया। मरे हुए लोगों के दिमाग के भीतर जा कर उनकी मंशा को जान पाना अभी तक विज्ञान ने सम्भव नहीं किया है। पर निष्कर्ष निकालें तो यही समझ आता है अधिकांश ऐतिहासिक निर्णय सत्ता कायम करने या सत्ता पर बने रहने के सामाजिक दाँव पेंच थे। राष्ट्र, धर्म, जाति, इत्यादि तो महज औज़ार थे। और आज भी हैं!
असल मसला तो यह है कि अगर हम यह सब जानते और मानते हैं तो महज इतिहास के दम्भ पर कैसे अपने वर्तमान की पहचान निर्धारित कर उस पर अभिमान कर सकते हैं? इतिहास पर आधारित हमारा अभिमान भूतकालिक नहीं अपितु साक्षात भूत है। वो प्रेत जो हमारे अन्दर घुस कर हमें विवश करता है कि हम किसी जाति, समाज या धर्म को उसके तथाकथित इतिहास के बल पर वाज़िब या ख़ारिज कर दें। यह प्रेत हम पर अक्सर तभी हावी होता है जब हमारे पास अपना सामाजिक प्रभुत्व स्थापित करने या जताने के लिए कुछ नहीं होता। ये शायद एक खालीपन या दिवालिएपन की निशानी भी हैं।
शाश्वत सत्य तो यही है कि आपका ब्राह्मण होना आपका निजी मसला है। आपको अपने ब्राह्मण होने पर गर्व करना है या नहीं ये भी आपका निजी मसला है। पर अगर आप अपने इतिहास को अपने आज पर थोपने का प्रयास करते हैं तो यह मसला निजी नहीं रह जाता। ऐसे में आपको अपने इतिहास का पूरा बोझ उठाना होगा – कर्म भी, शर्म भी!
बात सीधी और साफ़ है। ब्राह्मण होना गलत नहीं है, ब्राह्मणवाद गलत है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर एक ब्राह्मण की तरह रहना या ना रहना आपका निजी विश्वास, निजी निर्णय हैं। पर अगर आप ब्राह्मणवाद के घोड़े पर सवार हो कर बाज़ार की ओर निकलेंगे तो जाहिर हैं आपका ब्राह्मण होना निजी नहीं रह जाएगा। लोग आपको देखेंगे और आपसे सवाल करेंगे। आपको उन नज़रों व सवालों का सामना करना पड़ेगा। अपने इतिहास का बोझ ढोते हुए आपको लोगों के सवालों का उत्तर देना होगा। आपके उत्तर न देने, या ‘सही’ उत्तर न देने के कारण मचे कोहराम की जिम्मेदारी भी आपकी ही होगी।
अंत में बस इतना ही कहना चाहूँगा की आपको अपने इतिहास के घोड़े पर चढ़ना चाहिए या नहीं ये निर्णय आपका है। अगर चढ़ गए हैं तो चढ़े रहना है या उतर जाना है ये निर्णय भी आपका है। मैंने तो बस अपनी बात रखनी थी सो रख दी। आगे आपकी मर्जी!
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महोदय नमस्कार,
आपका यह पत्र हमारी कई पुरातन कुरीतियों, कुप्रथाओं और कुसंगतियों में से एक वर्ण व्यवस्था की विकृति को इंगित करता हैं प्रारम्भत: वर्ण-जाति व्यवस्था का स्वरूप सामाजिक,आर्थिक और व्यवहारिक ही था. शनै:-शनै: जिसका स्वरूप धार्मिक जटिलताओं में उलझते चला गया |
आज के इस तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य में इन धार्मिक भेदभावों की नाजुक. डोर कुछ लोग जबरदस्ती पकड़े हुए हैं जब वास्तविकता के धरातल में मुकाबला होता हैं तो यह धर्मांधता की डोर टूटने में क्षण भर भी देर नही लगती. एक वाक्या हैं जब मंदिर के पंडितजी सड़क दुर्घटना में बुरी तरह से घायल हो जाते हैं शरीर से बहुत अधिक रक्त बहने से जान जाने की नौबत आ जाती हैं पंडितजी का ब्लड ग्रूप बी नेगेटिव होने से इस रेयर ब्लड ग्रूप का कोई व्यक्ति नही मिलता. अंत में एक दलित युवक का ब्लड ग्रूप मैच होता हैं पंडितजी व उसके परिवार वाले जान बचाने के लिए ऊच-नीच, जाति की सब नाजुक डोर तोड़ कर दलित युवक का रक्त से पडितजी की जान बचाते हैं |
इन सब विसंगतियों को तोड़ने के लिए अब हमारे समाज को टैक्नीकली नई वैज्ञानिक सोच को आगे लाना होगा. विगत कुछ बर्षों में सामाजिक चेतना , जागरूकता व समझ काफी बढ रही है और विकृति की बेडी़यॉ टूटती जा रही हैं कुछ अपवाद, अवशेषी प्रकरणों से यह नवचेतना का सामाजिक बदलाव अब रूकने वाला नही हैं अब और कुछ ही समय में ऐसे लोग इस समाज में उपहास और उपेक्षा का शिकार बनेगें |