आप ये लेख पढ़ें इससे पहले आपको आगाह करना चाहता हूँ की यह लेख ‘थल की बजारा’ के गीतकार व गायक पर किसी तरह का निजी प्रहार नहीं हैं। यह एक सवाल है हमारी सामंती व्यवस्था और सोच पर जिसे उत्तेजना नहीं अपितु समग्रता से देखने की जरूरत है।
उत्तराखंड में एक बहुत ही प्रचलित गीत है ‘थल की बज़ारा’। यूट्यूब के अनुसार ये गाना 4 करोड़ लोग देख/सुन चुके हैं। लगभग हर शादी में कई कई बार बजता है ये गाना। संगीत की दृष्टि से देखें तो इस गीत की लय व थाप लोगों को थिरकने पर मजबूर सा कर देती है। लड़के, लड़कियाँ, पुरुष, स्त्रियाँ… सभी को प्रिय है ये गाना।
अब आप कहेंगे – तो भाई परेशानी क्या है इस गीत से? इसके लिए हमें दो वाक्यांशों को समझना होगा।
पहला है – टाक्सिक मैसकुलेनिटी अर्थात विषाक्त पुरुषत्व। विषाक्त पुरुषत्व वो सामाजिक व सांस्कृतिक विष है जो पुरुषों को किसी खास तरह से व्यवहार करने पर मजबूर करता है। यह वो मानसिकता है जिसके कारण पुरुष को लगता है कि वर्चस्व व आक्रामकता हर पुरुष का गहना भी है और अधिकार भी है। इसी मानसिकता के चलते पुरुष को लगता है कि हैसियत, कामुकता व हिंसा पुरुषत्व का मानक है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इस मानसिकता की जड़ें उस सामाजिक सोच में है जो हर पुरुष को बताती हैं कि पुरुष होने और होते रहने के क्या मायने है। यही मानसिकता उसे यह भी बताती है की समाज में स्त्री की क्या भूमिका है और पुरुष होने के नाते उसका स्त्री पर क्या ‘अधिकार’ है। जिस सामाजिक व शारीरिक आक्रामकता तथा हिंसा के माध्यम से पुरुष स्त्री पर अपना वर्चस्व कायम रखता है उसे विषाक्त पुरुषत्व कहते हैं।
दूसरा वाक्यांश है – नॉर्मलाईजेशन ऑफ रेप कल्चर अर्थात बलात्कार की संस्कृति का सामान्यीकरण। लड़कियों पर राह चलते टीका टिप्पणी करना, रहन सहन व पहनावे के आधार पर किसी स्त्री का चरित्र चित्रण करना, अविवाहित या तलाकशुदा महिला का चरित्र हनन करना, स्त्री का वस्तुकरण करना… ये सब बलात्कार की संस्कृति के मूल स्तंभ हैं। इन विचारों को कहानियों, किस्सों और गीतों में व्यक्त करना बलात्कार की संस्कृति का विज्ञापन है। ऐसे गीतों की व्यापक स्वीकृति एक तरह से बलात्कार की संस्कृति पर सामाजिक हामी है। ये बलात्कार नहीं है पर उससे किसी मायने में कम भी नहीं है क्योंकि ये बलात्कार को स्वीकार्य बनाती हैं। उसे सामान्य कर देती हैं। ठीक वैसे ही जैसे नेताजी कहते हैं – लड़कों से गलतियाँ हो जाती हैं!
कई लोग इसे बात का बतंगड़ बनाना कह सकते हैं। मैं उनको ये बताना चाहूँगा की ये कोई निजी राय नहीं। विश्व भर के अनेकानेक मनोवैज्ञानिकों ने इस बात को माना हैं। इंटरनेट पर खोजेंगे तो इन विषयों पर अनेक शोधपत्र मिल जायेंगे। पिछले कुछ वर्षों से ये माना जा रहा है कि स्त्रियों के शोषण व हिंसा के पीछे इन दो चीजों की अहम भूमिका है। अधिकांश जानकारों का मत है कि बलात्कार एक क्षणिक कामोत्तेजना नहीं अपितु हिंसक आक्रामकता है। ये ‘पुरुषत्व’ के वर्चस्व को स्थापित करने व कायम रखने का एक माध्यम है। इसमें निहित हिंसा पित्रसत्ता का प्रतीक चिन्ह है।
अब आते हैं ‘थल की बजारा’ पर। गीतकार का कहना है –
“लाल चुन्नी कुर्ती यो तेरी काली
त्वे देखी सीटी ताली
बजूँछी पूरी थल की बाज़ार
कांनै बाली यो बिंदूलि कपालि
देखी भै सीटी ताली
बजूँछी पूरी थल की बाज़ार
बज्या दे खुटूँ की पायल तु छमा-छम
कमै यो हुड़ूकी यो ढोल दमा-दम
ऐ जा ऐ जा ऐ जा ओ मेरी लाली
मनुंला औ दीवाली
कूँछी यो पूरी थल की बाज़ार”
यूँ सीटी बजाने और दिवाली मनाने का आग्रह करने क्या अर्थ है?
‘कमै यो हुड़ूकी यो ढोल दमा-दम’ के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है?
कौन देता है ‘थल के बाजार’ को यूँ सीटी बजाने का हक?
कभी अपने जान पहचान की लड़कियों को पूछिएगा की कैसा लगता है उन्हें जब कोई सीटी बजाता है या उनके पहनावे या नाक नक्श पर राह चलते टिप्पणी करता है। विडंबना यह है कि जब यह कृत्य किसी अन्य के साथ होता है तो हम हँस देते है या ‘लड़कों से गलतियाँ हो जाती हैं’ कह कर बात को टाल देते हैं, पर जब किसी अपने पर गुजरती है तो खून के प्यासे हो जाते हैं। इस बात को तो गीतकार भी इतनी आसानी से नकार नहीं पाएंगे। हमारा भयावह सत्य यह है कि हमारे देश में मुश्किल से कोई ऐसी लड़की मिलेगी जिसे कभी कुछ यूँ सुनना या सहना न पड़ा हो। एक समवेदनाविहीन व्यक्ति भी इस बात की सत्यता से इनकार नहीं कर सकता।
वैज्ञानिकों का मानना है कि एक स्त्री और पुरुष के दिमागी तंत्र में कोई खास अंतर नहीं होता। शारीरिक संरचना और भिन्न हार्मोन्स के कारण दोनों में थोड़ा भेद जरूर होता है पर इतना नहीं कि सोच ही पलट जाए। समाज की सोच, माता पिता की सोच, परिवार की सोच, मित्रों की सोच, इत्यादि हमारी अपनी सोच को निर्मित करते है। इसी सोच के चलते कई बार लड़कियों को भी ऐसी छेड़छाड़ में श्रृगारात्मक अभिव्यक्ति नजर आती है और बॉयफ्रेंड के ‘स्वामित्व’ या पोजेसीवनेस में प्रेम। वहीं छेड़छाड़ जब कोई ऐसा व्यक्ति करता है जो आपको ‘हीरो’ नहीं लगता तो बात पुलिस तक पहुँच जाती है और बॉयफ्रेंड का ‘स्वामित्व’ जब पति का ‘स्वामित्व’ बनता है तो मामला तलाक तक पहुँच जाता है।
ऐसी सोच व मानसिकता से बाहर आने के लिए सामाजिक मुद्दों पर खुली चर्चा, विचारों के आदान प्रदान और वाद-विवाद की अहम भूमिका है। पर जब मठाधीश हमारी सामाजिक सोच ‘ऊपर’ से तय करते हैं तब बहुत कुछ नाजायज भी जायज मांन लिए जाते हैं। उन पर सवाल उठाना ट्रोल आर्मी को न्योता देने के समान हो जाता है।
इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए ‘थल की बजारा’ को किसी दुर्भावना के तहत नहीं चुना गया है। यह गीत महज एक प्रतीक है। यह प्रतीक इसलिए चुना गया कि यह गीत बहुत लोकप्रिय हैं और अभी प्रचलन में है – चार करोड़ बार तो महज यूट्यूब में सुना जा चुका है और सामंत जी के यूट्यूब चैनल के डेढ़ लाख फॉलोवर्स (सब्सक्राईबर्स) हैं। अपने चैनल पर वो खुद लिखते हैं की “हम कटिबद्ध हैं पहाड़ को बेहतर से भी बेहतर संगीत देने को ले कर”। उनके इस गीत के प्रशंसक लिखते हैं की उनके “गीतों ने उत्तराखंड की संस्कृति को बचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।“ माफ कीजिएगा, मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ!
हम अक्सर कुमाउनी और गढ़वाली में गाए गए गीतों को लोकगीत का दर्जा दे देते हैं। लोकगीत का तमगा ऐसे गीतों और उनमें निहित अर्थ को वैधता प्रदान करते हैं। यह वैधता विषाक्त पुरुषत्व व बलात्कार की संस्कृति के सामान्यीकरण को और बढ़ावा देती है। यहाँ पर इस बात को समझना भी अत्यंत जरूरी है कि महज स्थानीय भाषा में गाना लिखने व गाने, संगीत में हुड़के की थाप जोड़ने, पहाड़ की चोटी या शहर/गाँव में गाने का चित्रांकन करने के कोई गीत लोकगीत नहीं बन जाता। अपने शोध ‘व्यावसायिक कुमाउनी गीतों में सशक्त होती स्त्री की छवि का अध्ययन’ में दिव्या पाठक इन गीतों को व्ययावसायिक गीत कहती हैं। वही शायद इन गीतों की सही परिभाषा भी है। लोक का वज़न उठाए बिना कोई गीत लोकगीत नहीं बन सकता।
बात यहीं रुक जाती तो भी ठीक था। इस गाने के चलते लोगों ने गीतकार का कई मंचों पर अभिनंदन किया, उत्तराखंड के प्रसिद्ध आरजे काव्या (कवीन्द्र सिंह) ने अपने प्रोग्राम में यह तक कहा कि “इस गाने की मासूमियत और खासियत ये है की ये पहाड़ों के बीच में, सड़कों में , मार्केट में शूट हुआ गाना है और इसलिए शायद इसको इतना प्यार मिल रहा है क्योंकि उत्तराखंड की जो असल फ़ील है उसको दिखाता है ये गाना।” ऐसे हर इंटरव्यू ने इस गीत के बोल को वैधता प्रदान की और विषाक्त पुरुषत्व व बलात्कार की संस्कृति के सामान्यीकरण को जाने अनजाने बढ़ावा दिया है।
ऐसा नहीं कि गीतकार ने अच्छे गीत नहीं लिखे। वो एक मंझे हुए गीतकार व संगीतकार प्रतीत होते हैं। उन्होंने जो अच्छा लिखा है उऐसा नहीं की गीतकार ने अच्छे गीत नहीं लिखे। वो एक मंझे हुए गीतकार व संगीतकार प्रतीत होते हैं। उन्होंने जो अच्छा लिखा है उसका अभिनंदन होना चाहिए पर जो गलत प्रतीत होता है उसपर चर्चा भी होनी चाहिए। यह बात उत्तराखंड के अन्य सभी गीतकारों, लेखों, गायकों, निर्माताओं, आदि पर भी लागू होती है। एक अच्छा कलाकार कभी भी इन चर्चाओं से मुँह नहीं फेरेगा। अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाहन एक अच्छे कलाकार की सबसे अहम पहचान है।
इस चर्चा को आगे बढ़ाते हैं एक और लेख से – व्यावसायिक कुमाऊँनी गीत और स्त्री
शादी समारोह में बजने वाले कुमाउनी गीतों को सुनकर दिव्या पाठक को महसूस होता था कि पितृसत्ता की जड़ें कितनी मजबूती से अपनी पकड़ बनाये हुए हैं। उनका मानना है कि ऐसे गीतों की बढ़ती लोकप्रियता हमारे समाज की मानसिकता और स्त्रियों के प्रति उनके रवैये को भी साफ तौर पर पेश करती है। एक बातचीत।
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आप कि बात बात से सहमत हूँ।
लेख को शुरू मे पढा तो लगा ये बहुत ही गलत लिखा है मगर जब त्रानिमा के बारे मे विस्तार से पढा और एक गांव /कस्बे कि सामन्य सी सडक पर किसी लडकी / स्त्री को आत्मसात कर उन पर कसे जाने वाले तंज व सीटीयो कि आवाज कि कल्पना कि तो ये लेख नही अपनी दास्तान बयां करता सडक का वो पत्थर सा लगा जो अकेला सब कुछ देखता सुनता रहता है मगर कर कुछ नही पाता।।°®
बहुत सही बात लिखी है सोचनीय विषय है
मगर एक सवाल और – फुहडता प्रदर्शित करते अनेक गीत और भी है जो 4 लाख के भी पार है
उन गीतों का जिक्र करते हुए इसे पुरा किया जा सकता था?
लिस्ट तो बहुत लंबी है। जैसा की लेख में लिखा है, यह गीत महज एक प्रतीक है मुद्दे को समझने के लिए। हर बार ‘हिट दगड़ी कमला’ सुनता हूँ तो गुस्सा आता है। बात एक दो गीतों की, या गीतों की लिस्ट की नहीं है वरन मानसिकता है। अधिकांश लोग यह मानने से इनकार करते हैं। लोग समझेंगे तो गीत खुद बखुद बंद हो जायेगे क्योंकि ये आखिरकार है तो बाजार ही!
शानदार लेख और इस पर लिखी एक एक बात पूरी तरह से प्रमाणित है सामंती सोच पितृसत्तात्मक समाज का, कैसे निर्माण कर रहा है यह गीत उसका, एक भाग है ऐसे गीत समाज में गंदी सोच को नैतिक समर्थन दे रहे हैं इससे भी बढकर यह गीत और ऐसे ही गीत नाम ले लेकर बनने से अधिक गंदगी फैला रहे हैं इन पर प्रतिबंध लगना अनिवार्य है
बहुत ही शानदार लेख, आपने बहुत ही सीधी सरल और सटीक व्याख्या देकर उस बात की तरफ़ लोगों का ध्यान खींचा है जहाँ लोग शब्दों को समझना ही नहीं चाहते या समझ कर मनोरंजन का साधन बना देते हैं। कहते हैं शब्द बहुत कुछ कहते हैं, हम, हमारी पहचान, हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति, हमारी समझ सब कुछ शब्द ही बताते हैं, हम अपने लोक को अपने परिवेश की बातें को कैसे शब्दों में पिरोकर विश्व स्तर तक पहुँचायें ये चुनाव सही हो, ये बहुत ज़रूरी है, सच बात है कि लोक को गहन करना, चिंतन मनन करना सर्वोपरि है।
आपने इस ज़रूरी मुद्दे पर लिखा. शुक्रिया !
बहुत सार्थक. पर गहराई से सुनने समझने की सोच भी तो चाहिए. मेले ठेले शादी बारात में जो बजा लो जैसे बजा लो. यह समग्र रूप से हो रहा तो आंचलिक स्तर पर इसे और भड़काऊ बनाने की पूरी कोशिश होती है. भोजपुरी ट्रेंड ने इसे और हवा दी है. अब कितने ही लाइक बटोर लो अगले ही कुछ पलों में सब विस्मृत हो जाता है. गायक संगीतकार भी चना मूंगफली खा लिफाफा फेंक देने की अवस्था में सड़क की गन्दगी बढ़ाते हैं.
ख़ुशी है कि युवा इस अवमूल्यन से चिंतित हो गहराई से बात अपनी आवाज उठा रहे.
कहो लिखो सुनाओ कहो
अभी सुनने समझने की तासीर बाकी है.
आज के दौर में उत्तराखंड के लोकगीत के नाम पर जो भी गीत रचे जा रहे,गाये जा रहे,ऑडियो/वीडियो बनाये जा रहे अथवा उनका सार्वजनिक मंचों पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम से प्रस्तुतिकरणहो रहा है उनमें अधिकांशतः में व्यावसायिकता की छाप दिखाई देती है.. यहां पर असल लोक कलाकारों की आजीविका से जुड़े प्रश्नों को भी जरूर देखा समझा जाना होगा…ये सभी महत्वपूर्ण प्रश्न एक सार्थक चर्चा के लिए बिंदु प्रदान करते हैं…नवीन पांगती जी ने थल की बजारा को प्रतीक मानकर इस तरह के विविध गीतों पर जो विश्लेषण किया है..उससे स्प्ष्ट होता कि इस तरह केगीत कहीं न कहीं पुरुषत्व व स्रियों पर बीमार मानसिकता को ही दर्शाते हैं।
Aapne sahi baat kahi hai sahmat hu me aapse.
Lekin Is lekh ke baad yah gaana aur jyada popular hoga kyonki jo bhi yah lekh padega wo yahi sochega kya hai isme dekhte hain.
चार करोड़ लोगों ने तो अरिजनल वीडियो देखा है। इतने ही लोगों ने डांस वीडियो इत्यादि के माध्यम से इस गाने को देखा होगा। उसके 0.1% लोग भी अगर इस लेख को पढ़ कर इस बारे में ईमानदारी से चर्चा करने लगें तो बहुत कुछ बदलने लगेगा। दुर्भाग्यवश आज के दौर में लेखों और विश्लेषणों की इतनी कीमत नहीं है की वो पॉप गीतों का भाग्य तय करें।
महोदय, आज के इस घोर संक्रमण काल में जब हमारे सामाजिक जीवन, संस्कृति और नैतिक मूल्यों पर भी प्रदूषण का कुप्रभाव बढता ही जा रहा हैं. आपने इस विषय में जो गहन चिंता प्रकट की हैं वह निसंदेह विचारणीय हैं हम केवल यह कह करे अपनी सामाजिक जिम्मेदारीयों की इतिश्री नही कर सकते हैं कि उक्त गीत एक व्यावसायिक गीत हैं व्यावसायिकता का मतलब यह नही की हमारे सामाजिक उत्तरदायित्व , नैतिकता और नारी अस्मिता सब ताक पर रख दी जाय.
इस तरह की साहित्य , गीत-संगीत,कला ,चलचित्र व अन्य ललित कलाओं का अपघटन ,पतन हमारे समाज को गर्त में ही धकेलन का ही काम करेगें .
एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हम सबको ऐसी विकृतियों का विरोध करना चाहिए. |
लोक के नाम पर सब कुछ बाजारू बिक रहा है ,तथाकथित लोक गीतों का उत्तराखंड की संस्कृति से अधिक लेना देना नहीं,युवा पीढी में प्रह्लाद मेहता,गोपाल चम्याल के बाद अधोगति दिखाई देती है,महज तुकबंदी या जोड़तोड़ के कॉम्बिनेशन को लोक संस्कृति कैसे कहा जा सकता है?
एक गाना आया था बीच मे नेरोलेक पेंट जसी तेरि मुखड़ि….काजल्क टिक्क लगे ले. उसके वीडियो वर्जन में बाकायदा कलाकारों के हाथ में नेरोलेक पेंट के डब्बे तक थे….खैर
आपुण साधुवाद छू, भौत सही बात लेखी छू, हमार देव भूमिक थात में यस टाइपकि रचना बिलकुल भलि नि भै, यस टाइपक गीतूल गलत संदेश जां…
💙
बहुत सटीक संदेश है इस लेख में l और ये विषैली पुरुषत्व वाली मानसिकता सिर्फ उन so called लोक गीतों तक सीमित नहीं है l Rap music के नाम पर जो गंदगी बॉलीवुड और Hollywood में बिकती है, उसके सबसे बड़े ग्राहक आज का युवा है l ताज्जुब की बात यह है कि कितनी आसानी से slang को स्टाइल का पर्यायवाची मान लिया गया है l
Reality of the society, society permitted
the song ,listeners are unable to examine the
culture.They belong pop culture.
Bhai logo kyu bal ki khaal utar rahe ho
Aise to kapil sharma show pe to case hi kar dena chahiye….
Had hoti h kami nikalne ki bhi….
जी, जरूर होना चाहिए। सवाल उठने चाहिए। नहीं तो कुछ नहीं बदलेगा।
जी वो तो लोगो की सोच पर निर्भर करता है कि वो गाने को किस तरीके सोच रहे है और फील करते है । अब आप ही को देख लीजिए , आप ने गाने का मतलब तो बताया लेकिन अपने अपनी सोच रखी है । ओर जो 40 मिलियन लोग गाना सुन चूके है उन लोगो ने बस इस गाने को एक positve Thinking सुना है , ओर आपने इसको अपनी गंदी सोच से इसका मतलब ये निकला है । जी मुझे तो लगता है इस लेख मैं बहुत लोगो का हाथ है जो जानबुझ के किसी व्यक्ति की छवि खराब करने के लिए ऐसे काम कर रहे है ।
जिन मनोवैज्ञानिक मुद्दों का लेख में जिक्र है वो आज के बहुत जरूरी मुद्दे हैं और पूरा विश्व इनसे जूझ रहा है। कड़े कानूनों के बावजूद यौन हिंसा कम होने का नाम नहीं ले रही है। ये लेख मैंने लिखा है और आपको आश्वस्त करना चाहता हूँ की इसमें किसी का कोई हाथ नहीं है। ये एक विश्लेषण है, और साथ ही क्रोध, उस समाजिक व्यवस्था पर जहाँ एक लड़की/महिला निश्चिंतता के साथ अपना जीवन निर्वाह नहीं कर सकती। इन मुद्दों को यूँ खारिज़ करना भी पित्रासत्तात्मक सोच का एक हिस्सा है। बहस के लिए तार्किक होना जरूरी है इसलिए अगर मुद्दों पर बहस हो तो शायद उससे हम सबको फायदा होगा, अन्यथा नहीं।