हर समाज वर्तमान में जीता है लेकिन उसकी जड़ें अतीत में होती हैं। परम्पराओं के द्वारा वह अपने अतीत को वर्तमान से जोड़ता है। सदियों से अपने अनुभवों से मनुष्य ने जो सीखा उसने उसे सामूहिक रूप देने की कोशिश की। जो कुछ सामूहिक हित के लिए था उसे उसने बनाए रखा और समय के साथ समॄद्ध करता चला गया। लोक जीवन में विविध पर्व-त्योहारों और उत्सवों में निरंतरता की इस कड़ी को देखा जा सकता है। धार्मिक एवं आनुष्ठानिक विश्वासों से जुड़ी परम्पराओं की ऐसी अभिव्यक्ति है हमारे पर्व व उत्सव जिनमें जीवन के अनेक रंग समाये होते हैं। परम्पराओं का यही विस्तार धीरे धीरे सामूहिक अभिव्यक्ति का मंच निर्मित करता है जहाँ लोकजीवन की समस्त गतिविधियाँ, मान्यताएँ, विश्वास, श्रुतियाँ अपने स्थानीय उल्लास के साथ खुल कर अभिव्यक्त होती हैं। अपनी इस विकास यात्रा में मनुष्य ने अनेक कला रूप विकसित किए। इन सब कला रूपों में मनुष्य के घुमंतूपन, पशुपालन और कृषि सम्बन्धों की नैसर्गिक झलक दिखाई देती है। समय के साथ कला परम्पराओं का यह सरल स्रोत सामूहिक जीवन में लोक गीतों, लोकनाट्यों के माध्यम से सजता, सँवरता हुआ अपनी रूढ परम्पराओं और प्रवॄतियों को पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित करता चला गया।
ग्रामीण जीवन में मनोरंजन की दॄष्टि से लोक नाट्यों का महत्वपूर्ण स्थान है। कुमाऊँ की सोर घाटी में आयोजित होने वाली हिलजातरा ऐसा ही एक लोकनाट्य है। खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत से फसल की बुआई और उसके बाद कटाई से उपजा सुख लोक मनोरंजन के ऐसे तत्व हैं जो इस लोकनाट्य का संसार बुनते हैं। इसका जन्म कब हुआ होगा यह तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना तो अवश्य है कि कठिन श्रम से ऊब गए मन को बहलाने के लिए मनुष्य मनोरंजन के तरीके ढूंढने लगता होगा। उसके पास मनोरंजन के कोई बने बनाए साधन तो नहीं थे, वह तो मिट्टी से अनाज पैदा करने की जीवन चर्या को ही मनोरंजन का माध्यम बनाता चला गया। यही कारण है की वर्षा ऋतु में धान की रोपाई के लिए तैयार किए गए खेतों में काम करते कीचड़ से सने किसानों के क्रियाकलाप इस लोकनाट्य की केन्द्रीय विषय वस्तु बन गई होगी। स्थानीय बोली में ‘हिलदार’ याने तेज या लगातार होने वाली बारिश या ‘हिल’ याने बाढ़ या गंदले पानी या कीचड़ जैसे दॄश्य निर्माण के कारण संभवतः इस उत्सव को ‘हिल’ जातरा नाम दिया गया होगा। हिल शब्द की जड़ें नेपाली भाषा में भी हो सकती हैं जहाँ ‘हिल’ का अर्थ मिट्टी और ‘हिलो’ का अर्थ कीचड़ होता है। हिलजातरा का यह आयोजन आज भी खेतिहर समाज के दैनिंदन संघर्ष का मौलिक व सजीव चित्रण करता है।
पिथौरागढ़ जनपद के सोर, सीरा और असकोट परगनों के अनेक गाँवों में हिलजात्रा के विविध और आकर्षक रूप देखने को मिलते हैं। हिलजात्रा के केंद्र में चातुर्मास में धान की रोपाई के समय दैनिंदन ग्रामीण जीवनचर्या की अभिव्यक्ति होती है, जिसे विभिन्न पात्रों के माध्यम से सामने रखने का प्रयास किया जाता है। अभिनय में रोपाई के लिए तैयार किए जा रहे खेतों के लिए बड़े बैलों की जोड़ी के अलावा हलिया, पौधे रोपने वाली पुतारियाँ, मेढ़ बांधने वाला बौसिया, हुक्का चिलम पीते लोग, ग्वाला, दही की ठेकी लिया गाँव वाला, मछली पकड़ने वाले लोग और चंचल व मक्कार गल्या बल्द, सरीखे प्रमुख पात्र होते हैं। कुछ लोग घोड़ा, बकरी, हिरन आदि पशुओं की भूमिका में भी अभिनय करते हैं। हर पात्र का अपना एक लकड़ी का बना विशिष्ट मुखौटा होता है। पशुओं का अभिनय करने वाले पात्रों के शरीर कमेट (सफेद मिट्टी) पोतकर उसमे काले रंगे से धारियाँ उकेर सुसज्जित किए जाते हैं। कुमौड़ की हिलजातरा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पात्र ‘लखियाभूत’ और उसके गण हैं, तो वहीं कुछ एक क्षेत्रों की हिलजातरा में ‘हिरण-चित्तल’ के रूप में एक नया पात्र सामने आता है।
हिलजात्रा का प्रारम्भ ग्राम देवता के यहाँ अनुष्ठान से होता है। कुमौड़ में ‘कुमौड़ कोट’ तो बजेटी में ‘बिरखम चौक’ से यह जातरा आरंभ होती है। नियत तिथि और मुहूर्त पर सबसे पहले ग्राम देवता की विशिष्ट पूजा अर्चना के साथ आयोजन की शुरुआत होती है। कुमौड़ वासियों के कुलदेवता द्योल-समेत, जो आसपास के बाईस गाँवों के आराध्य हैं, की पूजा से यहाँ हिलजातरा का अनुष्ठान आरम्भ होता है।
द्योल-समेत के विषय में मान्यता है कि यह लोक देवता नेपाल से पहले काली कुमाऊँ लाया गया। लेकिन वहाँ पर प्रतिष्ठा न कर इसे पिथौरागढ़ में स्थापित किया गया। द्योल-समेत की पूजा अर्चना के उपरांत विभिन्न मुखौटों की अर्चना की जाती है। तत्पश्चात विभिन्न पात्रों को तैयार करने का सिलसिला आरम्भ होता है। सभी सुसज्जित पात्र कुमौड़ कोट से क्रमवार मुख्य आयोजन स्थल की ओर निकलते हैं। आगे-आगे चल रहे ढ़ोल-दमाऊं की धुन के साथ सबसे पहले परंपरागत लाल-ध्वजा पताकाओं, जिसे निषाण कहा जाता है, के साथ गाँव के बुजुर्गों की अगुवाई में लोगों का आयोजन स्थल पर पहुँचना शुरू होता है। उनके पीछे जानवरों के पात्र और हरी घास लिए अभिनय करती स्त्रियाँ, खेत जोतते हलवाहों के साथ-साथ मिट्टी के डले फोड़ने का अभिनय करती पुतारियों के आने का सिलसिला आरम्भ होता है। इस अभिनय में धान की रोपाई के समय के ग्रामीण जीवन के विविध पक्षों को आकर्षक तरीके से उकेरने का प्रयास किया जाता है। कुछ खास तरह की भाव-भंगिमाएँ बना कर ये पात्र दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास भी करते है ताकि सम्पूर्ण आयोजन में रोचकता बनी रहे। अभिनय के दौरान अनियंत्रित और बार बार लेट जाने वाला ‘ग्ल्या-बल्द’ निरंतर रोमांचित करता है। कुछ पात्र हाथ में दही की ठेकी (दही के लिए प्रचलित पारंपरिक लकड़ी का बर्तन) और कुछ मछली मारने का जाल लिए उपस्थित रहते हैं। ऐसा लगता है कि पूर्वोतर के समाजों की तरह यहाँ भी किसी दौर में धान के खेतों में मछली पैदा करने का चलन रहा होगा।
प्रस्तुति के अंतिम चरण में हिलजातरा के विशेष पात्रों का प्रवेश होता है। कुमौड़ की हिलजातरा में विशेष आकर्षण लखियाभूत का है। ढ़ोल-दमाऊं की तेज आवाज ज्यों-ज्यों आयोजन स्थल की ओर बढ़ती आती है, अभी तक अभिनय कर रहे पात्र धीरे-धीरे किनारे की ओर हटना आरंभ करते हैं। मैदान में अब रस्सियों के सहारे जकड़े हुए शक्तिशाली लखियाभूत का प्रवेश होता है जिसे विशेष वेशभूषा वाले दो पात्रों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। अपार शक्ति सम्पन्न लेकिन अशांत लखियाभूत खेतों में की जा रही रोपाई को तहस-नहस करने का प्रयास करता है, इस बीच कॄषक स्त्रियाँ लखियाभूत पर अक्षत चढ़ाते हुए मान-मनोव्वल कर शांत करने का प्रयास करती है। अंततः अपनी मान-मनौव्वल से प्रसन्न लखियाभूत न केवल शान्त हो जाता है वरन सभी उपस्थित जनों को आशीर्वाद देते हुए अच्छी फसल और उनके समॄद्ध और सुखी जीवन की कामना भी करता है। अन्य गाँवों में लखियाभूत के स्थान पर हिरण चित्तल मुख्य पात्र होता है और अभिनय कर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। इस तरह हिलजातरा का आयोजन सम्पन्न होता है।
हिलजातरा को लेकर अनेक लोककथाएँ प्रचलित हैं। एक अवधारणा है की इस उत्सव की शुरुआत सोर में पिथौराशाही के शासन काल में हुई। मध्ययुगीन पश्चिमी नेपाल में प्रचलित विभिन्न जात यात्रायें यथा – इन्द्रजातरा, गायजातरा, घोड़ाजातरा, बालजुजातरा आदि इसकी प्रेरणा का आधार रही हैं। लोक मान्यता के अनुसार कुमौड़ के पैक (वीर) जो पहले ही सोर में आतंक का पर्याय बन चुके बाघ को मार कर अपनी वीरता का लोहा मनवा चुके थे, नेपाल के पाटन सोराड़ की यात्रा पर थे। उस समय वहाँ किसी अनुष्ठान में भैंसे की बलि दी जानी थी। बड़े और घुमावदार सींग, जो गर्दन को सुरक्षित रखे थे, उसकी बलि लेने में आड़े आ रहे थे। कई प्रयासों के बाद भी इस काम में सफलता नहीं मिल पा रही थी। उद्विग्न स्थानीय राजा ने चुनौती देते हुए घोषणा की जो व्यक्ति भैंसे की बलि लेने में सफल होगा उसे मुँह-माँगा पुरस्कार दिया जाएगा। वहाँ पर उपस्थित महर भाइयों ने इस चुनौती को स्वीकार किया और योजना बनानी आरम्भ की। एक भाई ने भैंसे के सामने हरी घास चुगने को डाली और ज्यों ही भैसे ने उसे खाने हेतु गर्दन झुकाई, दूसरे ने तेजी से बड्याठ (धारदार हथियार) मार गर्दन धड़ से अलग कर दी। बलि अनुष्ठान के सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाने से प्रफुल्लित राजा ने वचनानुसार महर भाइयों से उनकी इच्छा जाननी चाही ताकि उन्हें पुरस्कृत किया जा सके। सोराड़ में आयोजित इन्द्रजातरा के मुखौटा नाट्य अभिनय से अभिभूत महर भाइयों ने इस उत्सव और इसके मुखौटों को अपने यहाँ ले जाने की इच्छा व्यक्त की। इस तरह यह नाट्य उत्सव सोर घाटी में लाया गया और हिलजातरा के नाम से प्रचलित हुआ। यह उल्लेखनीय है कि मध्ययुगीन खेतिहर में समाजों द्वारा ऐसे उत्सवों को अन्यत्र ले जाना प्रचलन में था। आज भी कुमाऊँ की तरह नेपाल के नेटवारी समाज में जात यात्राओं का आयोजन उसी उत्साह के किया जाता है।
देखा जाए तो गमरा और हिलजातरा का सम्पूर्ण आयोजन अनुष्ठान इस बात का संकेत करता है कि पर्वतीय समाजों में देववाद की संकल्पना वैदिक या पौराणिक देवकुल से हट कर है। यहाँ का दैनिंदन जीवन अनोखी लोकशक्तियों का बोध कराता है जिनके अपने-अपने स्वरूप, प्रभाव क्षेत्र और पूजा-पद्धतियाँ हैं। किसी क्षेत्र में वह कॄषि सुरक्षा और समॄद्धि से जुड़ा होता है तो कहीं पशुओं की सुरक्षा से। व्यक्तिगत और पारिवारिक गतिविधियों के संचालन में तक इनकी अहम भूमिका होती है। वह आम आदमी की तरह भावुक और थोड़ी से अनुनय-विनय में प्रसन्न हो जाता है। लखिया भूत (जिसे आज शिव के साथ जोड़कर देखा जाने लगा है) इसी तरह की लोक संकल्पना है। लोकजीवन में इनके समक्ष वैदिक या पौराणिक देवों कि शक्तियाँ तक गौण हो समझी जाती हैं। यह बड़ा रोचक है कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया ने आज लखिया को रूपांतरित कर लखेश्वर महादेव का रूप दे दिया है।
हिलजातरा लोकनाट्य का समग्र स्वरूप यह बताता है कि एक कठिन और संघर्ष से भरी जीवनशैली से गुजर रहे समाज ने जहाँ प्रकॄति के रहस्यों से अचंभित हो उसकी अदॄश्य शक्तियों की पूजना अर्चना शुरू की वहीं उससे तादात्म्य बिठाते हुए अपनी करुणा, विषाद, रोमांच और उल्लास जनित अभिव्यक्ति के लिए उत्सवों का सॄजन किया। इन उत्सवों में खेतिहर समाजों के श्रम और व्यवहार से विकसित जीवन के सामाजिक-आर्थिक पहलुओं की गहरी छाप देखी जा सकती है। देखा जाय तो हमारा समाज आज भी मूलतः खेतिहर समाज है और हमारे ये उत्सव कृषि निर्भर अर्थव्यवस्था की देन हैं।
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इतने रोचक और जीवंत लोकनाट्य की गत्यात्मकता और सामाजिक सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों की बारीकियों को बिना चित्रों के सामने रख पाना संभव नहीं है। युवा छायाकार,चित्रकार और पेशे से प्रशिक्षक विनोद उप्रेती ‘वैगाबोंड’ के चुनिन्दा छायाचित्रों के माध्यम से इस उत्सव को समग्रता में उकेरने का प्रयास किया गया है ताकि खेतिहर समाजों के सांस्कृतिक नॄतत्व को समझा जा सके।
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