जब कोई नया अखबार या मैगजीन शुरू करते हैं, कोई वेबसाईट बनाते हैं, कोई कंपनी या उद्योग शुरू करते हैं, कोई दुकान डालते है… तो सबसे पहले जरूरत पड़ती है एक नाम की। सो हमने भी खोज शुरू करी। तरह तरह के नाम ढूँढे। उन पर चर्चा की। ये अनुमान लगाने की कोशिश की कि जब हम उस नाम को सबके सामने लायेंगे तो उसपर क्या प्रतिक्रिया होगी।
हम एक ऐसा नाम चाहते थे जो थोड़ा हट कर हो इसलिए सबसे पहले यह तय हुआ की हमारे नाम में उत्तराखंड, पहाड़, देवभूमि, पर्वत, हिमालय, जैसे शब्द नहीं होंगे। इतना आसान नहीं था ऐसा नाम ढूंढना जो हमारे विचारों का ठीक से प्रतिनिधित्व भी करे और हट कर भी हो। हमारे लिए ये भी जरूरी था की नाम हिन्दी में हो, आसानी से बोला या लिखा जा सके तथा सुनने में कर्णप्रिय हो।
खोजते खोजते हम भारत की सरहद पार कर गए और जा पहुँचे तिब्बत जहाँ उत्तराखंड के उत्तरी क्षेत्र के लोग बरसों से व्यापार पर जाते थे। यह व्यापार तिब्बत की अनेक मंडियों में होता था और उन मंडियों में एक मुख्य मंडी थी – ज्ञानिमा मंडी। ज्ञानिम नाम सबको भा गया। नाम में ज्ञान भी था और व्यापार भी। शब्द तिब्बती है पर लगता है हिन्दी जैसा। और दर्शाता है एक ऐसी जगह को जहाँ संस्कृतियों का मिलन होता है। जहाँ अनजान लोग मिल कर एक सूत्र में बंध जाते है – मित्र के रूप में। भारत ओर तिब्बत के व्यापारी एक दूसरे को पार्टनर या भागीदार नहीं अपितु मित्र कहते थे।
बस अब ये जानना रह गया था की तिब्बती भाषा में ज्ञानिमा का क्या अर्थ है। जितना पता लगा उसके अनुसार ‘ज्ञा’ का अर्थ है ‘देश’ और ‘नीमा’ शब्द का एक अर्थ है ‘सूर्य। वैसे तिब्बती लोग भारत को ‘ज्ञागर’ भी कहते हैं। तिब्बती मित्रों ने बताया की ज्ञानिमा नाम शायद एक ऐसी जगह को दर्शाता है जहाँ सूर्य की किरणें सबसे पहले पड़ती हैं। या एक ऐसी जगह जो भारत के सबसे करीब है। या शायद भारत का सूर्य – जहाँ सबसे पहले भारतीय व्यापारी पहुँचते हैं – कुमाऊँ के रास्ते। पूरा निष्कर्ष तो अब भी निकालना बाकी है पर ये तो समझ में आ गया की ‘ज्ञानिमा’ शब्द हमारे उद्देश्यों को अच्छे तरीके से दर्शाता है। ज्ञानिमा नाम चुनने के लिए हमारे लिए इतना ज्ञान काफी था।
अब चलते हैं हमारे प्रतीक चिन्ह, अर्थात ‘लोगो’ (logo) की ओर।
हमारे प्रतीक चिन्ह का रंग और आकार कुमाऊँ की प्रसिद्ध ऐपण कला से लिया गया है। किसी भी शुभ कार्य के लिए ऐपण का इस्तेमाल किया जाता है। दिवाली के अवसर पर ऐपण से घर द्वार सजाए जाते है। ऐपण कलाकृति का बाहरी छोर या सीमाएँ अक्सर छोटी बड़ी लकीरों की पंक्तियों से सजायीं जाती हैं। पाँच लकीरों के इस समूह को वसुंधरा भी कहते हैं और लकीरों को होरे। होरे बराबर नहीं होते। ना ही वो केंद्र होते हैं। पर उनके होने से ही केंद्र बनता है। हमारे लिए ये होरे समाज के उस मेहनतकश तबके को दर्शाते है जिनके कंधों पर टिक कर यह समाज चलता है। ये लोग उत्तराखंड के किसान हैं, कारीगर हैं, लोक कलाकार हैं, ग्रामीण अञ्चल के निवासी हैं… ये वो युवा हैं जो अपने सपने और मेहनत के बल पर उत्तराखंड का भविष्य बदलना चाहते हैं… ये वो बुजुर्ग हैं जो प्रस्थान से पहले अपने ज्ञान बाँटना चाहते है… ये वो शिक्षक हैं, सरकारी मुलाजिम हैं, जन प्रतिनिधि हैं जो अपनी ताकत आजमाना नहीं चाहते अपितु औरों को सक्षम करना चाहते हैं। ये वो सब लोग हैं जो साथ मिल बैठ कर एक सुंदर दुनिया बनाना चाहते हैं। हमारे प्रतीक चिन्ह के होरे ये सब लोग हैं।
हिमालय के बारे में जब भी चर्चा होती है तो वह चर्चा मुख्यतः यहाँ के भूगोल पर केंद्रित होती है। लोगों को जब हिमालय याद आते हैं तो अक्सर उनके मानस पटल में बर्फ से ढकी चोटियाँ होती हैं या सुंदर घाटियाँ। इन चर्चाओं में यहाँ के निवासी अक्सर भुला दिए जाते हैं और छोड़ दिए जाते अपने संघर्षों के साथ। हमारे प्रतीक चिन्ह की पाँच छोटी बड़ी लकीरें भी उत्तराखंड के भूगोल को दर्शाती हैं पर यह भूगोल मुख्यतः होरे बनाते हैं। वो होरे जो ‘ज्ञानिमा’ के लिए वसुंधरा हैं!
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