कैसे पहाड़? किसका उत्तराखण्ड?

फिर एक चुनाव प्रक्रिया पूर्ण हुई। नई सरकार बनी। कुछ दिनों तक चुनावी राजनीति पर चर्चा बनी रहेगी और फिर पाँच साल का सन्नाटा,और जब हम जागेंगे तब तक उत्तराखंड एक मैदानी राज्य बन चुका होगा!

2022 के इस चुनाव में दोनों मुख्य दलों के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार मैदानी क्षेत्रों से ही चुनाव लड़े। उनका यह चुनाव केवल व्यक्तिगत नहीं है। वो भली भाँति जानते हैं कि उत्तराखंड की अगली सरकार शायद मैदानी इलाकों की सरकार होगी। ऐसे में उत्तराखंड के मैदानी इलाकों में पलायन कर चुके पहाड़ी होने का राजनैतिक मूल्य, पहाड़ में रहने वाले से कहीं अधिक होगा। उन चुनावों में पहाड़ों के मुद्दों की क्या असल कीमत होगी यह तो समय ही बताएगा।

यूं तो भारत में चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े ही नहीं जाते पर शुक्र है कि अब भी चुनावी राजनीति में यदा कदा स्थानीय आकांक्षाओं की बातें हो जाती हैं। उत्तराखंड की राजनीति में पहाड़ीयत की बात शायद थोड़ी अधिक होती है, चाहे नाम मात्र के लिए ही सही। चुनाव आते ही कुछ लोग उत्तराखंड क्रांति दल, लोक वाहिनी, इत्यादि को याद कर शिबओशिब कर लेते है पर बातें वहीं थम जाती है क्योंकि इन बातों को आगे ले जाने का कोई खास औचित्य नहीं बचा। पहाड़, नदियाँ, पलायन, पर्यावरण जैसे शब्द भी सुनने को मिलते रहते हैं। टीवी और इंटरनेट पर इन विषयों पर बहसें भी होती हैं पर इन बहसों का कोई अंत नहीं होता क्योंकि ये बहसें कभी वोटों में तब्दील नहीं होती। ये कविता, कहानियों, गोष्ठियों, इत्यादि का केंद्र तो बन सकती हैं पर चुनावी राजनीति का नहीं।

बात यहीं थम जाती तो ठीक था पर मसला इससे अधिक जटिल है। उत्तराखंड राज्य की माँग का एक मुख्य मुद्दा यह था की उत्तर प्रदेश के मैदानी भागों के मुकाबले पहाड़ी इलाकों की समस्याएँ और जरूरतें अलग हैं। लोगों को महसूस हुआ की पहाड़ों को पहाड़ के रूप में देखने और सँजोने के लिए नजरिया भी पहाड़ी होना चाहिए। लोग जागे। लोगों ने संघर्ष किया और एक नए पहाड़ी राज्य ने जन्म लिया। क्योंकि सभी यह मानते हैं की पहाड़ नकारा होते हैं इसलिए कुछ मैदानी इलाके भी इस नए राज्य को भेंट कर दिए गए। सुना जब हिमाचल प्रदेश स्थापित हुआ तब उन्हें भी ऐसा ही प्रस्ताव दिया गया था पर वहाँ के नेताओं ने प्रस्ताव को ठुकरा दिया। ऐसे स्पष्ट उदाहरण के बावजूद हमारे नेताओं ने इस प्रस्ताव को नहीं ठुकराया। जनता को भी शायद लगा की कुछ मुफ़्त में मिल रहा है तो लेने में क्या हर्ज है। सबने मिल कर इस बात को नजरंदाज कर दिया की मैदान शायद होते ही पहाड़ों का शोषण करने के लिए हैं।

जब उत्तराखंड राज्य बना तो राज्य को 70 विधान सभाएँ मिलीं। इनमें से 30 विधान सभाएँ मैदानी जिलों की थीं तो 40 पहाड़ी जिलों की। 2012 के चुनावों से पहले हुए परिसीमन (डीलिमीटेशन) में मैदानी जिलों को 6 नई विधान सभाएँ मिल गईं जिसके कारण पहाड़ी जिलों में केवल 34 विधान सभाएँ बची। मैदानी जिलों की 36 विधान सभाओं में से 32 पूर्ण रूप से मैदानी इलाके हैं जबकि 4 विधान सभाओं में कुछ पहाड़ी इलाके भी आते हैं। क्योंकि परिसीमन जनसंख्या के आधार पर होता है और पहाड़ों की जनसंख्या लगातार घट रही है, अगले परिसीमन में मैदानी जिलों की मैदानी विधान सभाओं की संख्या शायद पहाड़ी क्षेत्र वाले विधान सभाओं से अधिक हो जाएगी। जाहिर सी बात है कि मुख्यमंत्री मैदानी भागों से होगा और अधिकाँश मंत्री भी। पहाड़ एक बार फिर पहाड़ रह जायेंगे, जिन्हें निहारा जाता है, जिनका आहवाहन किया जाता है पर जहाँ रहा नहीं जाता।

2025 से पहले होने वाले परिसीमन के जरिए शायद उत्तराखंड एक पहाड़ी राज्य ही नहीं बचेगा इसलिए पहाड़ बहस का मुद्दा भी नहीं रहेंगे। गिर्दा नीचे देखते हुए पूछेंगे – बताओ, क्यों लड़ी थी वो लड़ाई हमने? हम कहेंगे – क्या पता? और जो ‘क्या पता’ नहीं कह पायेंगे वे शायद फिर से निकल पड़ेंगे ‘उत्तराखंड’ की तलाश में पर तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी। वैसे समय पर जग कर कुछ करने लायक भी तो नहीं छोड़ा खुद को हमने।

क्योंकि भीड़ में रहने वाले नागरिकों का राजनैतिक स्वर कम भीड़ वाली जगहों के नागरिकों के स्वर से अधिक होगा इसलिए अधिकाँश संसाधन उनके हक में कर दिए जायेंगे। पहाड़प्रेम और भाईचारे के चलते वे अपना हक तो देने से रहे। इस तरह का समीकरण कैसे कार्य करता है इसका ज्वलंत उदाहरण उत्तर भारत के वो प्रमुख राज्य हैं जो अधिकाँश मायनों में पिछड़ने व संकुचित होने के बावजूद, केवल जनसंख्या के बल पर, भारत के भाग्य विधाता बने बैठे हैं।

इस जटिल स्थिति से निजाद पाने के हमारे पास तीन तरीके हैं। पहला, कि हम उत्तराखंड के मैदानी इलाके उत्तर प्रदेश को भेंट कर दें ताकि उत्तराखंड एक समग्र पहाड़ी राज्य की तरह सोचते हुए आगे बड़े। दूसरा, कि परिसीमन जनसंख्या की जगह क्षेत्रफल के आधार पर हो। और तीसरा, कि हम अपनी राजनीति बदलें। पहले दो सुझावों का क्रियानवन शायद मुमकिन नहीं हैं इसलिए मुद्दों की राजनीति को ताकत देना ही शायद हमारा एक मात्र हथियार बचा है।

नवीन पाँगती
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