देहरादून का नाम तो हम सभी ने सुना है। पहाड़ी रास्तों को पार कर, अगली पहाड़ी श्रंखला शुरू होने से पहले फैला यह घाटीनुमा इलाका राजनैतिक और सामाजिक ही नहीं बल्कि भूगोल व भूगर्भीय विज्ञान के दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। पाकिस्तान से लेकर नेपाल तक ऐसे ही कई ‘दून’ हैं जिनकी उर्वर भूमि सदा से लोगों को आकर्षित आई है। यह लेख इन्हीं दुर्लभ भौगोलिक संरचनाओं के बारे में है।
हल्द्वानी से उत्तर पश्चिम की ओर स्टेट हाईवे नंबर 41 में निकल पड़ें तो धीरे-धीरे उठ रही पहाड़ों की श्रृंखला के किनारे प्रकृति के अद्भुद नज़ारे दिखते चले जाते हैं। दूर-दूर तक हरियाली भरे पहाड़ और इनकी घाटियों में पसरे घने साल-सागौन और शीशम के खूबसूरत जंगल अनोखी छटा बिखेरते हैं। वर्षाऋतु में हरियाली से पटी इन पहाड़ियों में लटके बादलों के टुकड़े इस भूगोल में देखते ही बनते हैं। यहाँ से निकलने वाली नदियाँ अपने साथ मानसून में आसपास के कंकड़-पत्थर व मिट्टी को समेटते हुए ढलानों की ओर बहा लाती हैं। मैदान में पहुँच कर ये समतल और उपजाऊ भू भाग का निर्माण करती हैं। आमतौर पर सूखी सी दिखने वाली ये नदियाँ बरसात के मौसम में उफनती हुई विकराल रूप धारण कर लेती हैं। इन पहाड़ियों ने कहीं कहीं पर अपने बीच छोटी-छोटी घाटियों को भी बनाया है। दरअसल ये धरती की अनोखी संरचनायेँ हैं और इन संरचनाओं की अपनी एक कहानी भी है।
स्टेट हाईवे नंबर 41 में चकलुआ होते हुए 30 किलोमीटर दूर कालाढुंगी पहुँचते हैं। यह एक छोटा सा कस्बा है। किसी दौर में अंग्रेज़ साहबों ने मुरादाबाद से नैनीताल की ओर जाने के लिए इसे एक महत्वपूर्ण पड़ाव और मंडी के रूप में विकिसित किया था। 1857 के स्वाधीनता संघर्ष के दौरान रूहेला विद्रोही कुमाऊँ से ब्रिटिश हुकूमत को बेदखल करने के लिए यहाँ तक आ गए थे । कालाढुंगी से एक रास्ता बाजपुर होते हुये मुरादाबाद को चला जाता है और दूसरा रामनगर को। यही से 3 किलोमीटर आगे रामनगर की ओर जाने वाली सड़क में नयागांव से कुछ पहले बौर नदी के पुल से दाहिनी ओर एक और स्टेट हाईवे नंबर 61 घने साल-सागौन के जंगलों के भीतर से होते हुए पहाड़ी के अंदर की ओर चला जाता है। इस सड़क में मुसाबंगर, बजुनिया हल्दु खुडलिया,देचौरी, स्यात होते, हुये पतलिया, कप्तान गंज, कोटाबाग के ओर चला जाता है। वही से एक सड़क पांडे गाँव की ओर चली जाती है और दूसरी इस घाटी के चारों ओर एक लूप बनाते हुए पवलगढ़ बैलपड़ाव की ओर निकल जाती है। अँग्रेजी रेवेन्यू दस्तावेजों में इस समूचे इलाके का उल्लेख कोटादून के रूप में मिलता है। अपने शासन को सुविधा जनक ढंग से चलाने के लिए के लिए अंग्रेजों ने इसे पहाड़ कोटा और भाबर कोटा नाम की दो पट्टियों में बांटा था। प्राकृतिक सम्पदा और खासकर खनिजों से भरपूर यह इलाका काफी उर्वर है और कई किस्म की फसलों के लिए मशहूर भी है। इसी घाटी में देचौरी के पास रुड़की नामक एक स्थान है। इस जगह पर 1852 में अंग्रेजों ने नॉर्थ आफ इंडिया कुमाऊँ आइरन वर्क्स नाम से लोहा बनाने का एक कारख़ाना लगाया था ताकि यहाँ लोहे का उत्पादन किया जा सके।
हिमालयविद प्रो. के.एस.वल्दिया कहते हैं कि कोटादून एक रोचक भूगर्भीय संरचना है। इसे वैज्ञानिक शब्दावली में दून या द्रोणि कहा जाता है। प्लेस्टोसीन और होलोसीन युग में भू-गर्भीय हलचलों या विवर्तन (tectonic upheaval) के चलते लघु हिमालय और दक्षिण की ओर पसरे गंगा-यमुना के मैदान के बीच के हिस्से में शिवालिक की श्रृंखलाओं से घिरी इन संचरनाओं या घाटियों का निर्माण हुआ था। पश्चिम में स्पेन से होते हुए बाल्टिक कार्पाथियन, जगरोस, हिंदकुश, हिमालय होते हुए दक्षिण पूर्व में इण्डोनेशियाई पटकाई अराकान योमा तक 5200 किमी लंबी दुनियाँ की महान पर्वत श्रृंखला में 2500 किमी लंबी और 300 से 400 किमी चौड़ी हिमालयी श्रृंखला है। अपनी संरचना और बनावट के कारण इस हिमालयी श्रृंखला में चार स्पष्ट भू आकृतियाँ दिखाई देती हैं। सुदूर उत्तर से दक्षिण की ओर चलें तो सबसे पहले तिब्बत के पठार से लगा टेथीस हिमालय, उसके बाद बरफ से ढकी महाहिमालय की श्रृंखलायेँ और फिर लघु हिमालय और अंत में 200 से 800 मीटर ऊंचाई ली हुई शिवालिक श्रेणियाँ हैं।
दरअसल हिमालय के बनने के कुछ समय बाद धरती में एक बार फिर हलचलें या विवर्तन होना शुरू हुआ। इन हलचलों के कारण धरती के गर्भ में प्राकृतिक कारकों और रासायनिक प्रतिक्रिया या अन्य कारणों से निर्मित परत जैसी छोटी-छोटी ठोस चट्टानें जिन्हें अवसादी चट्टान (sedimentary rocks) कहा जाता है (जैसे बलुआ पत्थर,चूना-पत्थर,स्लेट,कांग्लोमरेट,नमक की चट्टानआदि) का लगभग 7000 मीटर मोटा ढेर जमा हो चला था। निरंतर हो रही विवर्तनिक गतिविधियों के कारण इन चट्टानों पर लगातार दबाव भी पड़ रहा था। यह एक रोचक बात थी कि इस प्राकृतिक दबाव और तनाव से चट्टानें टूटी नहीं बल्कि धरती के भीतर एक खास आकार में मुड़ने लगी। इस तरह एंटीक्लाइन (आर्च या मेहराब का आकार) और सिंक्लाइन (‘यू’ अक्षर नुमा आकार) फोल्ड जैसी विभिन्न भू-आकृतियों निर्मित होने लगी। इस तरह एक और पर्वत श्रृंखला ने लघु हिमालय के रूप में आकार लिया और यहाँ से निकलने वाली नदियों ने अपने-अपने जलसंग्रहण क्षेत्रों को निर्मित किया।
हिमालय से निकलने वाली नदियाँ अपने साथ निरंतर तलछट ला रही थीं। इस गाद ने आज से लगभग 18.5 मिलियन साल पहले शिवालिक बेसिन का निर्माण किया था। इस दौर में यहाँ की जलवायु गरम और आद्र थी और यहाँ घने और हरे भरे उष्णकटिबंधीय सदाबहार वर्षा वन विकसित हुए। जल और खाद्य सामग्री की प्रचुरता के कारण यहाँ नदियों में और उनके किनारे, दलदल और जंगलों में जलीय और स्थलीय जीवों की बड़ी आवादी फलीफ़ूली। सूअर, हाथी, मांसाहारी जन्तु और दूसरे द्वीपादीय जीव इस भूगोल में स्वछंद विचरण कर रहे थे।
लगभग 15 लाख (1.5 मिलियन) साल पहले हुई अप्रत्याशित विवर्तनिक हलचल ने एक बार फिर से हिमालयी श्रेणियों को तेजी से ऊपर उठाया। इन हलचलों से विकसित हुये एक भ्रंश के के कारण उत्तर की ओर लघु हिमालय और दक्षिणी भूभाग में गंगा का विशाल मैदान शिवालिक बेसिन का आधार बना। इसी तरह 8.5 लाख साल पहले धरती में एक बार फिर हलचल हुई और शिवालिक बेसिन का भूस्थलाकृतिक स्वरूप एक बार और बदला।
इस भूगर्भीय हलचल के परिणामस्वरूप 25 से 45 कि.मी चौड़ी पट्टी में छोटी-छोटी 500 से 900 मीटर ऊंचाई वाली शिवालिक श्रेणियाँ और गहरे धंसाव वाली संरचनाएँ दक्षिणी पाकिस्तान में सिंध से लेकर उत्तर-पश्चिमी भारत में जम्मू के इलाके से होते हुये हिमाचल, उत्तराखंड और फिर नेपाल में छुड़िया श्रेणियों जिसे भित्री तराई भी कहा जाता है, के साथ-साथ अरुणाचल प्रदेश के दिहिंग और असम त्रिपुरा के तिपम-दुपतिला तक उभर आई।
शिवालिक की ये श्रृंखला एक श्रेणी का क्रम न हो कर कई क्रमबद्ध श्रेणियों का रूप थीं। इनके बीच में उभरी गहरे धंसाव वाली संरचनाओं में हिमालयी नदियों द्वारा लाई जा रही तलछट से धंसाव भरते चले गए और 200 से 250 किमी चौड़ी पट्टी में तलछट के ढेरों से विशाल पंखे नुमा आकार जिन्हे एप्रिन कहा गया आकार लेने लगे और गंगा के विशाल मैदान को निर्मित करने लगे।
आज से लगभग 22 से 7 हज़ार साल पहले (प्लेस्टोसीन और होलोसीन युग में) एक बार फिर ताकतवर विवर्तनिक हलचलों के कारण शिवालिक इलाके में जहां नई दरारें विकसित हुईं वहीं पुरानी दरारें सक्रिय हो उठी। जहाँ–जहाँ आर्च या मेहराब जैसे आकार की एण्टीक्लाइन फ़ोल्ड वाली चट्टानें थीं या धरती की सतह ऊपर उठ गई थी, उनके बीच शिवालिक श्रेणियों से घिरे गहरे सिंक्लाइन धसाव बन गए। धरती की बाहरी संरचना में आए इस बदलाव ने शिवालिक बेसिन के जल प्रवाह तंत्र को अवरुद्ध कर डाला था। तेजी से बहने वाली जलधाराओं ने इन धसावों को धीरे धीरे जलाशयों में तब्दील कर दिया या अनेक जगह दलदल बन गए थे। कालांतर में हिमालयी नदियों द्वारा लाई जा रही तलछट से ये धंसाव भरते गए। इसतरह शिवालिक श्रेणियों के बीच-बीच में छोटी-छोटी घाटियाँ यां अस्थित्व में आई। कटोरे या दोने के आकार के कारण इन्हें ‘दून’ या ‘द्रोणी’ नाम दिया गया। लगभग 2500 किमी लंबी शिवालिक श्रृंखला में पश्चिम में सिंध से लेकर नेपाल और पूर्व में अरुणाचल प्रदेश तक इस तरह की दून घाटियों का सिलसिला देखा जा सकता है।
यह उल्लेखनीय है कि पश्चिमोत्तर भारत में झेलम से लेकर पूर्व में नेपाल की राप्ती नदी के बेसिन के बीच ‘दून’ या ‘द्रोणी’ के तीन स्पष्ट क्रम दिखाई देते है। पहला क्रम जम्मू हिमाचल क्षेत्र में झेलम और तावी नदी के बीच रेतीली मिटटी वाली स्थलाकृति जिसकी औसत उंचाई 900 मीटर से कम है, वाले उधमपुर दून से आरम्भ होता है। आज इस कटोरेनुमा घाटी में उधमपुर छावनी बसी है। झेलम से पूर्व की ओर पूंछ और इसकी सहायक नदी कोटली दून का निर्माण करती है। इस दून की औसत उंचाई भी 900 मीटर से कम है। इसीतरह जम्भुर अपनी सहायक नदी के साथ मिलकर नौशेरा दून बनाती है। रावी और उझ नदियों के बीच औसत 500 मीटर से कम उंचाई वाली घाटी भाधू-बिलार्व दून का निर्माण की संरचना करती है। हिमाचल में शिवालिक श्रेणियां व्यास के किनारे दक्षिण की ओर 320N में आकर अचानक विभाजित होकर उत्तर की और मुड़ जाती हैं। यहीं पर द्रोणियों का पहला क्रम कांगड़ा दून के साथ समाप्त होता है।
‘दून’ का दूसरा क्रम व्यास से पूर्व की ओर गंगा तक जाता है। यहाँ सतलुज और उसकी सहायक सोन नदी ‘चिंत्यपुर्णी-उड़ा दून’ की घाटी बनाती है। इसीतरह भारत में बहने वाली घग्गर-हाकड़ा नदी आज एक मौसमी नदी है जो राजस्थान की अनूपगढ तहसील से पाकिस्तान में प्रवेश करती है। पुरातत्वविद कहते हैं कि यह प्राचीन भारत में बहने वाली सरस्वती नदी का ही अवशेष है जिसके किनारे हड़प्पा-हाकड़ा संस्कृति फलीफूली थी। इसका उद्गम हिमाचल व हरियाणा की सीमाओं पर शिवालिक पर्वत है। घग्गर और सिरसा नदी ‘नालागढ़-पिन्जौर दून’ की संरचना करती है।
हिमाचल के सिरमौर जिले में एक अन्य दून दिखाई देता है। उत्तमवाला बाराबन नामक स्थान से निकलने वाली मारकंडा नदी जिसे प्राचीन काल में ‘अरुणा’ कहा गया भी घग्गर की एक उपनदी थी। सिन्धु हड़प्पा सभ्यता के दौर में इस नदी का पवित्र स्थान था। मारकंडा और गिरी नदी अपने बीच में ‘काला अम्ब – कैयारदा दून’ का निर्माण करती हैं। दून घाटियों में अभी सर्वाधिक लम्बी और विकसित द्रोणी आसन और सुसवा नदियों के बीच उभरी घाटी या दून आज ‘देहरा दून‘ के नाम से जानी-जाती है। इसका पश्चिमी हिस्सा पछुआ दून के नाम से भी जाना जाता है।
गंगा से पूर्व की ओर बढ्ने पर बीच-बीच में तराई-भाबर जैसी भू आकृतियों का यह सिलसिला कुछ टूटता है और इस तरह दून घाटियों का तीसरा और कम सघन क्रम शुरू होता है। कैनगाढ़ और कालीगाढ़ के संगम में कोथरी नदी से लगी लगभग 400 मीटर उंचाई लिया भूभाग कोथरी दून कहलाता है। यहाँ से पूर्व की ओर बढ़ते हुए स्नेह और खोह नदी द्वारा बनाया गया भू भाग जो लगभग 393 मीटर उंचाई लिया हुआ है, कोटली दून के नाम से जाना जाता है। यहाँ एक से डेढ़ किमी लम्बे और इतने ही चौड़े भूभाग में जिसे कोटली चौड़ भी कहते हैं स्थाई बसासतें हैं।
शिवालिक के किनारे किनारे कुमाऊँ की ओर बढ़ते हुये रामनगर में रामगंगा और कोसी नदी द्वारा कार्बेट नेशनल पार्क में ढिकाला और कुंडलियाचौड़ के बीच बन आए 12 किमी लंबे और 5 किमी चौड़े समतल भूभाग को पातली दून कहा जाता है। यह शीशम के घने जंगलों से पटी हुई घाटी है।
इसी तरह रामनगर और नैनीताल के बीच दाबका और बौर नदी दक्षिण पूर्व से उत्तर पश्चिम तक फैली 12 किमी लंबी और 5 किमी चौड़ी संरचना का निर्माण करती है। यह घाटी कोटादून के नाम से मशहूर है।
कोटादून के बाद द्रोणियों के बनाने का सिलसिला थम सा जाता है और धीरे-धीरे एक बार फिर काली/महाकाली या शारदा के उस पार नेपाल में शिवालिक श्रृंखलाओं के बीच उभरता है। नेपाल में शिवालिक श्रेणियाँ जिन्हे छुरिया श्रेणियाँ भी कहा जाता है 10 से 50 किमी चौड़ी और 200 से 1300 मीटर ऊंची पट्टी बनाती है। इनके बीच-बीच में 5 से 10 किमी चौड़ी और 200 से 300 मीटर ऊंची दून घाटियों पसरी पड़ी हैं। ये भारत की दून घाटियों की तुलना में अपेक्षाकृत ज्यादा बड़ी हैं। नेपाल में दून घाटियों का सिलसिला पश्चिमी और पूर्वी राप्ती नदी तक चला जाता है। यहाँ की कुछ महत्वपूर्ण बड़ी दून घाटियां त्रिजुगा, चितवन, नवालपुर, द्योखुरी, डांग और सुर्खेत आदि हैं। विरल आवादी वाली छुरिया श्रेणियों के वनिस्पत यहाँ की दून घाटियाँ सघन आवादी वाले सुविकसित इलाके हैं।
राजनैतिक सीमाओं से परे कितना अनोखा है ना इन दून घाटियों का संसार जिसे प्रकृति ने शिवालिक की गोद में विकसित किया है।
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अमूमन दून के नाम पर हम देहरादून से आगे नहीं बढ़ पाते।
दून घाटी की विस्तृत जानकारी से भरा लेख ।
एक इतिहास के जानकर होने के बाद भी लेख में bhugarve भूगोल की जानकारियों से भरा है सामान्य लोगों के समझ में आने के लिये लिखा गया उत्तम लेख है लेखक बधाई के पात्र है
बहुत रोचक, ज्ञानवर्धक और शोधपरक आलेख है। हिमालय के बारे में जानने की इच्छा रखने वालों के लिए बहुत उपयोगी।
A very authentic and well researched article on geology and earth science of Dehradun by a historian sets example for other non specialists to write on topics of common interest