हर तरफ धुआँ ही धुआँ है। जंलते जंगलों का धुआँ। सरकारी तंत्र की नाकामी का धुआँ। नौकरशाही और नेताशाही की उपेक्षा का धुआँ। जनता की उदासीनता का धुआँ। ऐसे में अदालती आदेश उन बादलों से लगते हैं जो अपनी बारिश से वनाग्नि बुझाने की क्षमता तो रखते ही हैं, धुएँ की पर्त को हटा कर हमें दूरदृष्टि भी प्रदान कर सकते हैं। ये अलग बात है की अवमानना की हवा अक्सर इन बादलों को नाकाम कर देती है। ना जाने क्यों बादल भी इस बात का ज्यादा बुरा नहीं मानते!
पर उम्मीद पर दुनिया कायम है। उम्मीद कितनी और क्यों रखी जाए ये तो उम्मीद करने वाले पर निर्भर करता है। हम तो महज संदेशवाहक है। जो कहा गया उसी का बयान कर रहे हैं, अनुवाद के साथ। आशा है की सुधीजन अपने निष्कर्ष स्वयं निकालेंगे और जरूरी मुद्दों के बीज बोयेंगे ताकि उन बीजों से एक ऐसा जंगल बने जो बादलों को मजबूर कर दे कि वो हवाओं के झांसे में न आएँ।
उच्च न्यायालय का आदेश
‘उत्तराखंड में भीषण वनाग्नि से वन, वन संपदा व वन्य जीव जंतुओं की रक्षा’ के लिए जनहित में दायर रिट याचिका (Writ Petition (PIL) No. 68 of 2018) में सुनवाई करते हुए अदालत ने उत्तराखंड के वन विभाग को अपना पक्ष रखने को कहा। विभाग का पक्ष रखते हुए उत्तराखंड के प्रिन्सपल चीफ कान्सर्वेटर श्री राजीव भरतरी ने 6 अप्रैल, 2021 को अदालत के सामने निम्न बातें रखीं –
- हर वर्ष मार्च से लेकर जून के महीने तक राज्य में वनाग्नि का खतरा रहता है। उधम सिंह नगर और नैनीताल जिले से लेकर चंपावत जिले तक अब तक वनाग्नि की 52 घटनाएँ हो चुकी हैं। अक्टूबर 2020 से मार्च 2021 तक इस इलाके में वनाग्नि की 852 घटनाएँ हुईं जिसमें 1012 हेक्टेयर भूमि प्रभावित हुई।
- वनाग्नि रोकने के लिए विभाग त्रिमुखी रणनीति अपनाता है – वनाग्नि रोकने के लिए फायर क्लियरिंग लाइन इत्यादि बनाना, वनाग्नि होने पर उसके बारे में सूचना इकट्ठा करना और वनाग्नि होने पर उसका नियंत्रण। इस के लिए विभाग के पास फायर रेक व फायर बीटर हैं। वनाग्नि रोकने के लिए विभाग ‘काउन्टर फायर’ तकनीक का भी इस्तेमाल करता है।
- वन विभाग में अनेकानेक पद खाली पड़े हैं। यद्यपि फॉरेस्ट गार्ड के 3650 पद स्वीकृत हैं, नियुक्तियाँ केवल 2098 ही हुई हैं। विभाग में कर्मचारियों के 65% पद भरे जाने बाकी हैं। असिस्टेंट कन्सर्वेटर वर्ग में 82% पद खाली हैं। रेंजर के 308 पद स्वीकृत हैं पर नियुक्तियाँ केवल 237 हुईं हैं।
- चीड़ के जंगलों में वनाग्नि का खतरा ज्यादा है क्योंकि चीड़ के नीचे कुछ नहीं उगता। ऊपर से चीड़ के पेड़ वर्ष में तीन बार पीरुल छोड़ते है जो पेड़ों के नीचे ही जमा हो जाते हैं। मानवीय गलती या अत्यधिक गर्मी की वजह से वो आग पकड़ वनाग्नि को जन्म देते हैं।
- जब वनाग्नि काबू में नहीं आती तब राज्य सरकार राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (एन.डी.आर.एफ.) व राज्य आपदा मोचन बल (एस.डी.आर.एफ.) की सहायता लेती है।
- अगर अल्मोड़ा जिले की बात करें तो यहाँ 7 क्रू स्टेशन हैं और हर क्रू स्टेशन में 4 से 6 कर्मचारी नियुक्त हैं। जिले में 190 फायर वाचर हैं। 600 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर नजर रखने के लिए दो फायर वाच टावरों का निर्माण भी किया गया हैं।
- वर्ष 2016 में विभाग ने संकट प्रबंधन योजना (क्राइसिस मैनेजमेंट प्लान) बनाई पर सारी कोशिशों के बावजूद, धन व कर्मचारियों के अभाव में, योजना पूर्ण रूप से क्रियान्वित नहीं की जा सकी।
- यद्यपि उधम सिंह नगर, नैनीताल व चंपावत जिले की वनाग्नियाँ काबू में नहीं की जा सकी हैं, विभाग आशावान है कि दो सप्ताह में इन वनाग्नियों को काबू में कर लिया जाएगा। क्योंकि अधिकांश वनाग्नियों की शुरुआत मानवीय कारणों से होती है इसलिए कुमाऊँ और गढ़वाल में नई वनाग्नियों कि संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता।
यह बात मानते हुए की राज्य का 67% हिस्सा वन है जिसके बहुत बड़े हिस्से में चीड़ के पेड़ हैं जिनके कारण हर वर्ष मार्च से जून के महीनों में आग लगती है, अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि जरूरत महज संकट प्रबंधन योजना की नहीं बल्कि उसके क्रियान्वयन की है। इस वार्षिक संकट के निदान हेतु जरूरी है की सरकार बहुमुखी योजनाएँ बनाए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चीफ जस्टिस श्री राघवेंद्र सिंह चौहान एवं जस्टिस श्री आलोक कुमार वर्मा की माननीय अदालत ने 7 अप्रैल, 2021, को निम्न निर्देश दिए –
- सरकार को सुनिश्चित करना होगा की वन विभाग के पास इतनी निधि हो की रिक्तियाँ भरी जा सके। विभाग को खासकर यह सुनिश्चित करना होगा की फॉरेस्ट गार्ड पद की 65% रिक्तियाँ कम हों और छह महीने के भीतर अन्य सभी रिक्तियाँ भरी जा सकें। असिस्टेंट कन्सर्वेटर वर्ग की 82% रिक्तियाँ भी जल्द से जल्द भरी जाएँ। इसी तरह रेंजर पद की रिक्तियाँ भी जल्द से जल्द भरी जाएँ, हो सके तो छह माह के भीतर। कर्मचारियों और बुनियादी ढांचे के अभाव में कार्य निर्वाहन करना वन विभाग के लिए अगर असंभव नहीं तो अत्यधिक कठिन जरूर है।
- राज्य सरकार को इस बात पर विचार करना चाहिए की राज्य आपदा मोचन बल (एस.डी.आर.एफ.) को वह सभी जरूरी यंत्र व औजार मुहैया कराये जाएँ को वनाग्नि के रोकथाम के लिए जरूरी हैं। राज्य सरकार को इस बात पर भी विचार करना चाहिए की क्या राज्य आपदा मोचन बल को हेलिकाप्टर व अन्य हवाई यंत्र दिए जाएँ ताकि वो वनाग्नि पर प्रभावी रूप से काबू पा सकें। यह तो सभी जानते हैं की अगर वनाग्नि बेकाबू हो जाए तो उसे जमीन की जगह हवाई तरीकों के काबू में लाना ज्यादा आसान है।
- राज्य सरकार को कृत्रिम वर्ष की संभावनाओं पर भी विचार करना चाहिए। ऐसा करते हुए इस बात का ध्यान रखना जरूरी होगा की अत्यधिक वर्षा से भूस्खलन हो सकता है, जिसका खतरा राज्य में हरदम बना रहता है।
- क्योंकि राजीव दत्ता केस में ट्राइब्यूनल ने सरकार को जरूरी निर्देश जारी किए हैं, सरकार को निर्देशित किया जाता है की तो ट्राइब्यूनल के निर्देशों का शीघ्र क्रियान्वयन करे, हो सके तो छह माह के भीतर।
- प्रिन्सपल चीफ कान्सर्वेटर श्री राजीव भरतरी को निर्देशित किया जाता है की वो अदालत के इन निर्देशों के क्रियान्वयन की रिपोर्ट 7 मई, 2021 या उससे पहले अदालत को प्रेषित करें।
उपरोक्त अदालती आदेश /निर्देश मूलतः अंग्रेजी में हैं इसलिए उसका हिन्दी अनुवाद किया गया है पर यह अनुवाद आक्षरिक नहीं है इसलिए इनका सरकारी दस्तावेज़ों में उद्धरण नहीं किया जा सकता। उच्च न्यायालय के मूल आदेश के लिए यहाँ क्लिक करें।
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल के निर्देश
माननीय उच्च न्यायालय के आदेश में ट्राइब्यूनल के जिन निर्देशों का जिक्र है वह निर्देश नैशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण) ने 3 अगस्त, 2017 (M.A. No. 397 of 2017) को जारी किए थे। जस्टिस श्री स्वतंत्र कुमार, जस्टिस रघुवेन्द्र एस राठौर व श्री बिक्रम सिंह साजवान की बेंच ने सरकार को जो निर्देश दिए थे उसके मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं –
- भारत सरकार का पर्यावरण व वन मंत्रालय राज्य सरकारों के साथ मिल कर वनाग्नि के रोकथाम व नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय नीतियाँ व मार्गदर्शिका बनाएँ। प्रारम्भिक नीतियाँ तीन महीने के भीतर जारी कर दी जाएँ।
- वनाग्नियों के रोकथाम व नियंत्रण के लिए के लिए राज्यों के मुख्य सचिव संबंधित विभागों के साथ मिल कर वनाग्नि /संकट प्रबंधन योजना बनाएँ तथा यह निश्चित करें की इस कार्य के लिए संबंधित विभागों के पास जरूरी निधि व कर्मचारीगण हों।
- वित्तीय वर्ष की शरुआत में ही, राज्य व जिला स्तर पर, वन विभाग को जरूरी वित्तीय राशि, कर्मचारी, यातायात के साधन व अग्निशमन यंत्र मुहैया करा दिए जाएँ ताकि वनाग्नि प्रबंधन योजना कारगर व पूर्ण रूप से लागू की जा सके।
- प्रबंधन योजना के तहत वन विभाग समस्त वन क्षेत्र की वनाग्नि संवेदनशीलता का मानचित्र तैयार करे, संवेदनशील क्षेत्रों को चिन्हित करें तथा उन जगहों की पहचान करें जहाँ से वनाग्नियों पर नजर रखने और समयबद्ध चेतावनी जारी करने के लिए कर्मचारी व यंत्र तैनात किए जा सके।
- वनाग्नि की रोकथाम व नियंत्रण में ग्रामीण जनों की भागीदारी के लिए जरूरी है की इस कार्य के लिए जरूरी प्रशिक्षण व प्रोत्साहन के साथ स्थानीय लोग नियुक्त किए जाएँ।
- वनाग्नि प्रबंधन योजना बनाने के लिए ग्राम स्तर के पंचायती राज संगठनों व वन पंचायतों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। विगत वर्ष के अनुभवों के आधार पर यह योजना हर वर्ष संशोधित की जाए।
- नैशनल रीमोट सेन्सिंग एजेंसी (NRSA) एवं फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के सहयोग से सॅटॅलाइट आधारित वनाग्नि चेतावनी सिस्टम को सक्षम किया जाए। जानकारी मुहैया कराने के लिए सोशल मीडिया, प्रिन्ट एवं एलेट्रॉनिक मीडिया का प्रयोग किया जाए तथा वनाग्नियों की जानकारी प्राप्त होते ही संबंधित अधिकारियों को सचेत कर दिया जाए।
- कम से कम चीफ कान्सर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट पद का अधिकारी राजकीय मुख्यालय में वनाग्नि प्रबंधन व नियंत्रण के लिए नियुक्त किया जाए जो वनाग्नि की घटनाएँ होने पर सभी संबंधित सरकारी एजेंसियों के साथ संयोजन करे। ऐसा सेल वनाग्नि संभावित अवधि से कम से कम दो महीने पहले से अपना कार्य प्रारंभ करे ताकि वे समय पर संचालन योजनाएँ बना सके, संसाधन जूटा सकें, तथा मॉक ड्रिल कर सकें।
- विभिन्न राज्यों के वनाग्नि /संकट प्रबंधन योजनाएँ स्वीकृत करने से पहले पर्यावरण व वन मंत्रालय देश विदेश के अनुभवों के आधार पर राज्यों को वनाग्नि व संकट प्रबंधन संबंधित बेहतरीन कार्यप्रणालियों के बारे में अवगत कराये।
- सामरिक जगहों पर ऑटोमैटिक निगरानी का नेटवर्क या वाच टावर स्थापित किए जाएँ ताकि वनाग्नि रोकने के लिए यथाशीघ्र सूचना मिल सके।
- वनाग्नि जनित आपदा में जोखिम घटाने के लिए अग्रिम पंक्ति के कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया जाए।
- वनाग्नि संभावित अवधि से कम से कम दो महीने पहले राज्य, जिला व रेंज स्तर पर वनाग्नि नियंत्रण के लिए संसाधनयुक्त समर्पित टीमें तैयार की जाए ताकि वे समय पर योजनाएँ बना सकें, मॉक ड्रिल कर सकें, स्थानीय लोगों के साथ सामंजस्य बैठा सकें और कर्मचारियों तथा यंत्रों को यथास्थान तैनात किया जा सके।
अतः निष्कर्ष
ट्राइब्यूनल का आदेश अगस्त 2017 का है और जनहित याचिका पर आदेश अप्रैल 2021 का। 4 साल बाद भी माननीय उच्च न्यायालय को यह निर्देश देना पड़ रहा है की 2017 के निर्देशों का पालन हो, “हो सके तो छह महीने के भीतर”। यह खुली अवमानना नहीं तो और क्या है?
वन विभाग आसानी से कह देता है संसाधन नहीं है। क्या मौजूद संसाधनों से साथ जो हो सकता है वो किया गया? उसका हिसाब कौन देगा? अगर संसाधन नहीं है तो क्या माननीय न्यायालय में इसका उत्तर वित्त सचिव या वित्त मंत्री को नहीं देना चाहिए? अगर संसाधन सच में नहीं है तो क्या सरकार को, माननीय न्यायालय से अनुमति प्राप्त कर, योजनाबद्ध तरीके से निर्देश लागू करने की रणनीति नहीं बनानी चाहिए?
केवल वनाग्नि ही नहीं, इन सवालों से भी उत्तराखंड के पहाड़ धधक रहे हैं। हर साल यूँ ही आग लगती है, धुआँ उठता है – ढेर सारा धुआँ जिसके बीच उँगलियाँ तो दिखती हैं पर दोषी नहीं दिखाई देते। फिर एक दिन प्रकृति परेशान हो कर वर्षा कर देती है। नंदा सुनंदा की चोटियाँ साफ दिखाई देने लगती हैं। सारा तंत्र शांत हो जाता है। और उत्तराखंड सो जाता है अगले वनाग्नि महोत्सव के इंतज़ार में!
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नवीन पांगती जी ने उत्तराखण्ड के दावानल के संबंध में कोर्ट की कारवान का जिस तरह ब्यौरा दिया है, वह एक बेहतरीन तरीका है, अन्यथा पाठक हैडलाईनों तक सीमित रह कर विषय को ठीक से समझ नहीं पाता है. लेकिन जो कोर्ट के प्रश्न हैं, वन विभाग के उत्तर हैं और कोर्ट का फैसला है उनसे कई सवाल निकलते हैं, इन पर चर्चा होनी चाहिये. इससे कई छिपे हुए तथ्य सामने आयेंगे.