अनुमति, सहमति और रेप कल्चर

तरह तरह के कठोर नियम कानूनों के बावजूद यौन हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। यौन हिंसा को मिलती सामाजिक या राजनैतिक सहमति तो यही साबित करती है कि स्थिति बेहतर होने की जगह खराब होती जा रही है। यौन हिंसा क्यों होती है को लेकर अनेक मत हैं। हद तो यह है की न्याय करने बैठे लोग भी अमूमन पीड़िता के पहनावे या जीवनशैली पर दोष मढ़ देते हैं। पुरुष समाज का एक बड़ा हिस्सा आज के युग में भी स्त्री पर अपना स्वामित्व मानता है इसलिए सजा के तौर कर यौन हिंसा को जायज ठहरता है। वे तय करना चाहते हैं की स्त्री क्या पहने, कैसे रहे, कैसा व्यवहार करे। उन्हें लगता है की महिला का ‘संरक्षण’ उनका दैविक दायित्व है।

बलात्कारी अचानक पैदा नहीं होते। वे कहीं बाहर से भी नहीं आते। वे यहीं होते हैं, हमारे बीच। बलात्कारी प्रवृति भी कोई पैदाइशी दोष नहीं है। उसे जन्म और शह देने का काम भी समाज स्वयं ही करता है। दरअसल वह हमारी सामूहिक मानसिकता का ही एक परिणाम है। झंडा डंडा ले कर दोषी को सजा देने के लिए हम आंदोलित तो हो जाते हैं पर समस्या के मूलभूत निवारण की बात पर चुप्पी मार लेते हैं।

रेप कल्चर, यानि बलात्कारी संस्कृति को समझने के लिए नीचे दर्शाये गए त्रिकोण को समझना होगा। यह त्रिकोण बलात्कारी मानसिकता के विकास तो चित्रित करता है। सरलीकरण के लिए मूल चित्र से कुछ चीजें हटा दी गई हैं।

इस त्रिकोण के अनुसार बलात्कारी संस्कृति की शुरुआत त्रिकोण के निचले भाग से होती है। शुरुआत महिलाओं के मज़ाक उड़ाने, बलात्कार से संबंधित चुटकुलों, लिंगवादी व्यवहार, इत्यादि से होती है। त्रिकोण का अगला पायदान है लड़कियों/महिलाओं को देखे कर सीटी बजाना या टीका टिप्पणी करना, उनका पीछा करना, इत्यादि। यह कृत्य हमलावर का हौसला बढ़ाते हैं और मामला इस हद तक पहुँच जाता है कि हमलावर पीड़िता को छूने की कोशिश करते हैं तथा वर्जित शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। फिर शुरू होता है पीड़िता के चरित्र के बारे में अनर्गल बातों का सिलसिला जो एक दिन कामुकतापूर्ण उत्पीड़न बन कर बलात्कार तक पहुँच जाता है। त्रिकोण को दूसरे नजरिए से देखें तो त्रिकोण का सबसे निचला हिस्सा सामान्यीकरण का है। इसमें अमूमन पूरे समाज की भागीदारी होती है। फिर आता है निम्नीकरण जो अखिकार आक्रमण का आधार स्तम्भ बनता है।

विदेश में निर्मित यह त्रिकोण बलात्कार को रेप कल्चर का अन्तिम पायदान मानता है पर भारत में इस त्रिकोण का सबसे ऊपरी हिस्सा पीड़िता के खून से सन जाता है। क्योंकि हमारी न्याय व्यवस्था दुरुस्त नहीं है, हमलावर साक्ष को मिटा कर स्वयं को बचाने के लिए पीड़िता की हत्या कर देता है।

इस त्रिकोण से साफ पता चलता है कि बलात्कार एक क्षणिक निर्णय नहीं अपितु सामान्यीकरण के पथ का अन्तिम चरण है। यह त्रिकोण उसी सामान्यीकरण के विभिन्न चरणों को दर्शाता है। इन हानिरहित लगने वाले कृत्यों से ही बलात्कारी संस्कृति का जन्म होता है। यह कृत्य उस सोच को सींचते और पाल परोस कर बड़ा करते हैं जिनके बदौलत पुरुष यौन हिंसा को अपना हक मान लेता है।

ईलेवन्थ प्रिन्सपल का मूल चित्र

इस त्रिकोण को बनाने वाली सामाजिक संस्था ईलेवन्थ प्रिन्सपल (https://www.11thprincipleconsent.org/)–  अर्थात 11वाँ नियम – के नाम पर गौर करें तो एक महत्वपूर्ण बात निकल कर आती है। जब भी हम किन्हीं मूलभूत सिद्धांतों की बातें करते हैं तो अक्सर उनकी संख्या 10 होती है। अगर पाँच होती तो हम छठे सिद्धांत की बात करते और अगर तीन होती तो चौथे सिद्धांत की बात करते। 11वाँ अर्थात आम रूप मे माने लिए नियमों से आगे।

11वाँ नियम अनुमति या सहमति के बारे में है। खासकर स्पर्श की। स्पर्श एक आवश्यक मानवीय जरूरत है। स्पर्श की अनुभूति हमारे अंदर महत्वपूर्ण परिवर्तन ला सकती है। पर स्पर्श की मूलभूत जरूरत है अनुमति। अनुमति के 11वें नियम के अनुसार यह जरूरी है की अनुमति स्पष्ट रूप से दी जाए। और अनुमति देते समय अनुमति देने वाला अपने पूरे होशोहवास में हो।

यहाँ यह जानना जरूरी है कि यह अनुमति केवल यौन संबंधित नहीं है। हर तरह के स्पर्श में सहमति आवश्यक है। क्योंकि कल कोई आपसे गले मिला का अर्थ यह नहीं है की वह आज भी गले मिले। अनुमति बार बार और हर बार ली जानी जरूरी है। पूर्ण अनुमति जैसा कुछ नहीं होता। अनुमति हमेशा ही एक समय विशेष के लिए होती है।

अनुमति का दूसरा पहलू यह है कि किसी एक चीज के लिए अनुमति मिलने का अर्थ यह नहीं है कि आप उसे  कुछ अन्य कर सकने की अनुमति भी मान लें। अनुमति हमेशा खास चीज के लिए समयबद्ध सहमति है। इसे किसी भी अन्य रूप में नहीं लिया जा सकता है। मसलन कोई आपको गले मिलने की अनुमति दे रहा है का अर्थ यह नहीं की आप उसका हाथ भी पकड़ सकते हैं। अनुमति दिए जाने का अर्थ यह भी नहीं है कि दिए जाने के बाद अनुमति वापस न ली जा सके। अनुमति दिए जाने के तुरंत बाद भी वापस ली जा सकती है और आपको उसे भी अनुमति जैसा ही सम्मान देना होगा।

अनुमति का मसला केवल स्पर्श तक सीमित नहीं है। हर चीज के लिए अनुमति आवश्यक है। मसलन आपने किसी को भोजन पर बुलाया है तो मेहमान को यह जानने का हक है की आप उसे क्या खिला रहे हैं। अगर आप चित्र खींच रहे हैं तो जरूरी है की आप उन सबसे अनुमति लें जो आपके केमरे में कैद होने वाले हैं। सोशल मीडिया पर किसी को टैग करना, किसी का चित्र साझा करना, इत्यादि भी अनुमति के दायरे में आता है। कोई व्यक्ति सोशल मीडिया पर अपने चित्र साझा करता/करती है का अर्थ यह नहीं है कि आपको भी उसकी अनुमति है। सामूहिक कार्यक्रमों के छायाचित्र इत्यादि की बात थोड़ी अलग हो जाती है क्योंकि यह माना जाता है की कार्यक्रम पर रिपोर्ट साझा करने के लिए चित्रों की जरूरत होती है। पर उसी कार्यक्रम में अगर कोई भागीदार कुछ निजी कर रहा/रही हो तो चित्र लेने और उसे साझा करने के लिए अनुमति आवश्यक है। यह सब सुनने में आसान लगता है पर करने में थोड़ा कठिन हो जाता है। खासकर सोशल मीडिया के युग में। इन गलतियों को सुधारने का प्रथम चरण यह है कि अगर कोई अपने चित्र साझा किए जाने पर नाखुशी जाहिर करे तो हमें वह चित्र तुरंत हटा देना चाहिए, बिना बुरा माने। 

अनुमति का एक पहलू ताकत या सत्ता भी है। देखा गया है कि हम अक्सर उनसे अनुमति नहीं माँगते जिन्हें हम सामाजिक या आर्थिक तौर पर अपने से कमजोर मानते हैं। ऐसी स्थिति में अनुमति को हम अपना हक मान लेते हैं। यह सोच हमारे जीवन के हर पहलू को प्रभावित करती है। इस सिलसिले में एक अनुभव है जो मैं कभी भूल नहीं पाता।

करीब बीस साल पहले की बात है। जिस व्यक्ति की मैं बात कर रहा हूँ वह एक सम्पन्न व्यवसायी थे जो स्वयं को सामाजिक कार्यकर्ता भी मानते थे। उनका कार्य हस्तकला के क्षेत्र में था। उनके ऑफिस में एक लड़की काम करती थी, उनके निजी सहायक के तौर पर। वह बहुत मेहनती थी और अपना कार्य दक्षता से करती थी। मुझे काम के सिलसिले में उनके ऑफिस जाना होता था और उक्त व्यवसायी काफी व्यस्त रहते थे इसलिए मीटिंग का इंतज़ार करते हुए अक्सर उस लड़की से मेरी बातचीत होती थी। कुछ ही समय में मेरी उससे अच्छी जान पहचान हो गई। एक दिन वह ऑफिस में नहीं थी और मैंने यूँ ही पूछ लिया कि वह कहाँ है। व्यवसायी ने बताया की कुछ पारिवारिक कारणों से वह ऑफिस नहीं आ पाई। फिर बोले, “बहुत भली और सभ्य लड़की है। मेरे यहाँ पाँच साल से काम कर रही है। पता है, मैंने आज तक उसे कभी नहीं छुआ।”

उनके वह शब्द मैं कभी भूल नहीं पाया। क्या कहना चाहते थे वे? क्या किसी को नौकरी देने मात्र से आपका उसपर हक बन जाता है? क्या आप संभ्रांत और ताकतवर हैं तो कुछ भी कर सकते हैं? मसला उनके कुछ करने या ना करने से ज्यादा उनकी सोच का है। कहीं ना कहीं वे यौन उत्पीड़न को अपना अधिकार और उत्पीड़न न करने को अपनी योग्यता मान रहे थे। मेरा मानना है की इस तरह की सोच का यौन हिंसा में अहम योगदान है।

यौन हिंसा के वारदातों को समझने का प्रयास करें तो कई बार मसला अनुमति का ही होता है। हम मान लेते हैं की अनुमति है। पर जब बात आगे निकल जाए तो मना करने पर भी जान बूझ कर अनुमति के मसले तो ताक पर रख देते हैं। मसला कितना नाजुक है यह इस बात से साफ जाहिर होता है की कई विद्वान लोग भी वैवाहिक बलात्कार को बलात्कार नहीं मानते। हाँ, ऐसे बलात्कार को साबित करना मुश्किल है पर इसका अर्थ यह भी नहीं की चर्चा शुरू ही ना हो। शारीरिक संबंध किसी भी वैवाहिक रिश्ते का एक अहम हिस्सा है पर इसका अर्थ यह नहीं उसके लिए अनुमति ना ली जाए। बिना अनुमति, जबरन, अपने पत्नी या पति से शारीरिक संबंध स्थापित करना भी बलात्कार के दायरे में आता है।

ईलेवन्थ प्रिन्सपल संस्था का उद्देश्य है की लोग सहमति के बारे में सोचे और चर्चा करें। सहमति पर चर्चा स्थानीय एवं विश्व समुदाय के स्तर पर हो। अगर हमें मूल भूत रूप से यौन हिंसा को रोकना है तो हमें बलात्कारी संस्कृति के त्रिकोण को समझना होगा और समाज में अनुमति की अहमियत को स्थापित करना होगा।

नवीन पाँगती
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