हिमाचल आपदा और बेलगाम विकास

हिमाचल प्रदेश 50 साल बाद एक बार फिर महाआपदा का सामना कर रहा है। पर्यावरणविदों का कहना है कि, आपदा के लिए बिजली परियोजनाओं की सुरंगें, कमजोर पहाड़ों को काटकर फोरलेन सड़कों का निर्माण, अवैध खनन, नदियों को डंपिंग जोन बनाना और पर्यटन के नाम पर अवैज्ञानिक और बेतरतीब निर्माण प्रमुख कारण हैं।

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कैसे पहाड़? किसका उत्तराखण्ड?

फिर एक चुनाव प्रक्रिया पूर्ण हुई। नई सरकार बनी। कुछ दिनों तक चुनावी राजनीति पर चर्चा बनी रहेगी और फिर पाँच साल का सन्नाटा,और जब हम जागेंगे तब तक उत्तराखंड एक मैदानी राज्य बन चुका होगा! क्योंकि उत्तराखंड एक पहाड़ी राज्य ही नहीं बचेगा इसलिए पहाड़ बहस का मुद्दा भी नहीं रहेंगे। इस जटिल स्थिति से निजाद पाने के हमारे पास तीन तरीके हैं।

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समाज, समय और संविधान

जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश हैं और अपने फैसलों व विचारों के लिए जाने जाते हैं। अपने पिता जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़ की 101वीं जन्म वार्षिकी के अवसर पर आनलाइन वेबिनार में बोलते हुए उन्होंने समाज व संविधान के संदर्भ में विद्यार्थियों की भूमिका को लेकर कई अहम मुद्दे उठाए।

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दिल्ली और पर्यटन से आगे

सूचना क्रांति और युवाशक्ति के इस दौर में आजीविका के काम करने में कोई खास परेशानी नहीं होनी चाहिए, बशर्ते कि विकास की योजनाएँ मैदान की जगह पहाड़ केंद्रित हों। इस तरह की योजनाएँ सिर्फ एक एनआरएलएम और कुछ बाहरी फंडिंग की जिम्मेदारी मान के पल्ला झाड़ लेने से क्रियान्वित नहीं हो पायेंगी। रोजगार सृजन को एकल लेंस से देखने के बजाय समेकित नजर देने की जरूरत है।

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कोरोना काल में उत्तराखंड के पहाड़ों की स्वास्थ्य व्यवस्था

कोरोना के संदर्भ में देखें तो उत्तराखंड के पहाड़ों की स्तिथि डरावनी लगती है। कहीं कोई तैयारी नहीं दिखती। आंकड़ों की माने तो पहाड़ के समस्त जिलों का मिला जुला औसत राज्य के मूल औसत से कम है, जो अपने आप में कम है। ऊपर से पहाड़ी इलाकों में सुविधाएँ अमूमन जिला मुख्यालयों तक ही सीमित है। लोगों को इस बात का रंज हो या न हो, पर पहाड़ों को जरूर इस बात का दुख रहेगा की उसके दोहन शोषण के लिए हम चार लेन सड़क तो ले आए पर हम यहाँ के लोगों को मूलभूत सुविधाएँ न दे सके।

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हम गैरसैंणी हैं!

वर्तमान में अल्मोड़ा जिले का निवासी होने के कारण इस बात का दुख होना चाहिए की ऐतिहासिक कुमाऊँ की राजधानी ही कुमाऊँ का हिस्सा नहीं बची पर वह दुख भी नहीं होता। सोचता हूँ की क्या बदल जाएगा गैरसैंण का हिस्सा हो जाने से?

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ननगेली ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा!

शोषण और दमन का विरोध करने वालों की सूची बहुत लम्बी है। कैसी- कैसी परिस्थिति में लोग शोषण और दमन के खिलाफ क्या क्या कर गुज़रे ये सुन कर ही दिल दहल जाता है। ननगेली की कहानी अगर आप सुन लें तो शायद मनुष्य होने पर भी शर्म आने लगे।

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उत्तराखंड के सपने और यथार्थ

9 नवंबर 2000 को पृथक राज्य के रूप में उत्तराखंड अस्थित्व में आया। ऐसा लगता है की पिछले दो दशकों में विकास की गति के साथ-साथ सामाजिक चेतना की लौ भी धीमी पड़ गई है। बोये गए सपने जिस तरह बिखरते चले गए हैं उसने न केवल सामाजिक उत्साहहीनता की स्थिति ला खड़ी की है बल्कि लागू किये जा रहे आधुनिक विकास माडल पर भी सवालिया निशान लगा दिये है।

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उत्तराखंड की अवधारणा

एक पृथक राज्य के रूप में उत्तराखंड अब बीस बरस का हो चुका है। ऐसे में उत्तराखंड राज्य की विकास यात्रा का मूल्यांकन करना जरूरी है। पर वह करने से साथ-साथ यह भी जरूरी है की हम इसकी सामाजिक संरचना और उन सामाजिक-ऐतिहासिक कारकों की चर्चा करें जिसने राज्य के रूप में उत्तराखंड की अवधारणा की निर्मिति की।

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