चला गया 2021!

आप सभी तो नव वर्ष की ढेर सारी शुभकामनाएँ।

इस बार नए वर्ष के आने से ज्यादा खुशी शायद पुराने वर्ष के जाने की है। बहुत कुछ सिखा गया वर्ष 2021। और बहुत बड़ी कीमत भी वसूल गया उसकी। आशा है की वर्ष 2022 नई संभावनाओं को ले कर आएगा। कि हम सब एक बार फिर उसी उन्मुक्तता से जी सकेंगे जैसे जीते आए हैं। यह याद रखते हुए की 2021 की सीखों पर हमें अमल करना है ताकि फिर कभी विपदा आए हम इतने बेसहारा महसूस ना करें।

ज्ञानिमा के लिए यह साल महत्वपूर्ण रहा। लेखन के अलावा हमने कोविड सपोर्ट ग्रुप में भागीदारी की और बहुत कुछ सीखा। इस वर्ष ज्ञानिमा को एक ट्रस्ट के रूप में भी रजिस्टर कर दिया गया ताकि हम अपनी भागीदारी का दायरा बढ़ा सकें। उस मायने में 2022 हमारे लिए एक महत्वपूर्ण वर्ष है। हमें आशा है की आपका सहयोग व साथ बना रहेगा।

प्रस्तुत है 2021 के वे 10 लेख जो पाठकों को सबसे अधिक भाए।

(1) अनुभव से सीखना – खुद करके सीखने की प्रक्रिया में सफलता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण असफलता होती है जो सीखने वाले को समझ की गहराइयों में ले जाती है। हमारी परम्परागत शिक्षा व्यवस्था असफलता को अच्छी नज़र से नहीं देखती और दंडनीय समझती है। यह बात यूं तो हर विषय पर लागू होती हैं लेकिन प्रस्तुत लेख खासकर विज्ञान शिक्षा के सन्दर्भ में है।

(2) कौन देता है थल के बाजार को यूँ सीटी बजाने का हक? – आप ये लेख पढ़ें इससे पहले आपको आगाह करना चाहता हूँ की यह लेख ‘थल की बजारा’ के गीतकार व गायक पर किसी तरह का निजी प्रहार नहीं हैं। यह एक सवाल है हमारी सामंती व्यवस्था और सोच पर जिसे उत्तेजना नहीं अपितु समग्रता से देखने की जरूरत है।

(3) व्यावसायिक कुमाऊँनी गीत और स्त्री – शादी समारोह में बजने वाले कुमाउनी गीतों को सुनकर दिव्या पाठक को महसूस होता था कि पितृसत्ता की जड़ें कितनी मजबूती से अपनी पकड़ बनाये हुए हैं। उनका मानना है कि ऐसे गीतों की बढ़ती लोकप्रियता हमारे समाज की मानसिकता और स्त्रियों के प्रति उनके रवैये को भी साफ तौर पर पेश करती है।  एक बातचीत। 

(4) ‘भुला दी गई महामारियों’ से हमने कुछ नहीं सीखा – आज एक बार फिर कोरोना के रूप आई महामारी की भयावहता ने सिद्ध कर दिया है कि हम अंधविश्वास और पोंगापंथी के चलते इस विभीषिका के सामने लाचार होते चले जा रहे हैं। अपने अतीत से हमने कुछ सबक नहीं सीखा। शायद यह हमारी सामूहिक चेतना और वैज्ञानिक समझ का प्रतिफल ही रहा कि महामारियाँ भुला दी गईं और हम इनकी गंभीरता को नहीं समझ सके।

(5) गोरीपार का धर्मेन्द्र – कुछ दिन पहले एक युवा कलाकार से मुलाकात हुई – धर्मेन्द्र जेष्ठा। फिर यूट्यूब पर धर्मेन्द्र का काम देखा। अपने कैमरे के माध्यम से मुझे वह उन जगहों पर ले गया जिसके बारे हम अक्सर सोचते रह जाते हैं – वहाँ, उस पहाड़ी के पीछे का दृश्य कैसा होगा ?

(6) शौका और राजस्थानी भाषा का अंतर्संबंध – उत्तराखंड की उत्तरी सीमा से लगी घाटियों के लोगों की संस्कृति के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है। भारत तिब्बत व्यापार खत्म होने के पश्चात इन घाटियाँ की संस्कृति ही नहीं बोली/भाषा भी लुप्त होने की कगार पर हैं। सभी घाटियों के निवासी अपनी संस्कृति को बचाने के विभिन्न प्रयास कर रहे हैं। जोहार घाटी की शौका बोली को संरक्षित करने के सिलसिले में श्री गजेन्द्र सिंह पाँगती से एक बातचीत।

(7) कुली बेगार आंदोलन के सौ वर्ष आज से ठीक सौ साल पहले, दस हजार से ज्यादा काश्तकार-किसान बागेश्वर के उत्तरायणी कौतीक में इकठ्ठा होकर ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों का विरोध कर रहे थे। देखते ही देखते सभा में उपस्थित ग्राम प्रधानों समेत कई मालगुजारों ने बेगार से जुड़े कुली रजिस्टर सरयू नदी में बहा डाले। यह घटना अंग्रेज सरकार द्वारा अपने नागरिकों के खिलाफ अपनाई जा रही शोषक और अन्यायपूर्ण नीतियों के विरुद्ध उत्तराखंड के किसानों के व्यापक प्रतिरोध की पहली संगठित अभिव्यक्ति थी।

(8) कोविड सपोर्ट ग्रुप – सहयोग का अनूठा प्रयोग – यूँ तो सहयोग में अद्भुत ताकत है, पर भारत के अन्य राज्यों के विपरीत उत्तराखंड में गैर सरकारी संगठनों के बीच सहयोग के मामले थोड़ा कम ही सुनने में आते हैं। ऐसे में कोविड सपोर्ट ग्रुप का प्रयोग एक नई संभावना की ओर इशारा करता है।

(9) एक शहर का बनना और बिखरना – नैनीताल शहर से मेरा वर्षों का नहीं बल्कि सदियों का नाता रहा है। मेरे पुरखे और मैं इस शहर को बनते और बिखरते देखते आये हैं। कभी कभी तो लगता है की मेरा नैनीताल इतना बिखर गया है कि यह अपना सा नहीं लगता।

(10) ब्राह्मणवाद के नाम एक पत्र कुछ समय पहले की बात है कि मेरी जान पहचान के एक ‘ब्राह्मण’ ने अचानक बड़ी अजीब सी बात कर दी। वो बोले, चाहे कुछ भी हो जाए मैं किसी दलित या आदिवासी को अपने रसोई में घुसने नहीं दे सकता। उनकी यह बात सुन कर एक झटका सा लगा। समझ नहीं आया की लोग इतना कुछ जानते हुए भी इतने अनजान क्यों हैं?

संपादकीय
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