मानव सभ्यता का इतिहास जितना भाईचारे का रहा है उतना ही दमन और शोषण का। मानव जाति के निरन्तर आगे बढते रहने, अपने वर्तमान और भविष्य को सुरक्षित करने, अपने समूह की विचारधारा को फैलाने और अपने जीवन को सरल और सुन्दर बनाने की इच्छा को साकार करने का मूल्य किसी ना किसी को तो हमेशा चुकाना ही पड़ा है। मानव इतिहास के हर दौर में किसी न किसी का शोषण जरुर हुआ है। विचारधाराओं के नाम पर भयंकर युद्ध हुए हैं जिनमें शायद अधिकांशतः वो ही लोग मरे जिनके लिए लड़ना एक मज़बूरी थी। विचारधाराओं के प्यादे इतिहास में यूँ ही कट कर विलीन होते गए। आधुनिकीकरण और भूमंडलीकरण ने क्या किया और आज भी वो क्या कर रहें हैं ये तो जग जाहिर है।
इतिहास के हर दौर में, जहाँ-जहाँ शोषण हुआ, वहाँ अन्ततः विरोध भी हुआ है। कभी तुरन्त तो कभी सदियों के दमन के बाद। कभी स्वजनित तो तभी आयातित विचारों के बल पर। अगर खुले मन से देखा जाए तो कई धर्मों का इतिहास भी शोषण की मिट्टी पर पला-बड़ा हैं। कभी-कभी तो लगता है कि मानव सभ्यता का वास्तविक इतिहास असल में विरोध का इतिहास ही है नहीं तो शायद आज भी हममें से अधिकतर लोग किसी पिरामिड के निर्माण में, मेंनचेस्टर की किसी मिल में, किसी राजा की सेना में या किसी सेठ-साहूकार की दासता में सड़ गल रहे होते। गौर करें तो ऐसा भी नहीं है कि हम आज आज़ाद हैं। नौ से पाँच की दासता भी कम भयावह नहीं है!
शोषण और दमन का विरोध करने वालों और इन विद्रोहों के नायक नायिकाओं की सूची बहुत लम्बी है। कैसी- कैसी परिस्थिति में लोग शोषण और दमन के खिलाफ क्या क्या कर गुज़रे ये सुन कर ही दिल दहल जाता है। ननगेली की कहानी अगर आप सुन लें तो शायद मनुष्य होने पर भी शर्म आने लगे। दमनकारी प्रवृति मनुष्य को किस हद तक ले जा सकती है ये कहानी उस हद को भी शायद पार कर जाती है। खासकर इसलिए कि ये कहानी आदम काल की नहीं अपितु उन्नीसवीं सदी की हैं। उस कालखंड की जब दिल्ली पर मुग़लों के मार्फत अंग्रेजी राज लगभग शुरू हो चुका था। आगरा में ग़ालिब जन्म ले चुका था। हम में से अधिकाँश लोग अगर अपने जीवित बुजुर्गों से पूछें तो शायद हमें तब का अपना पत्र व्यवहार वाला पारिवारिक पता भी मिल जाएगा।
घटना सन् 1803 के आस पास की है। आज जहाँ केरल हैं वहाँ त्रावनकोर राज्य हुआ करता था। जब यह राज्य अपनी पराकाष्ठा पर था तब इसकी सीमाएँ मध्य केरल से कन्याकुमारी तक फैली हुईं थीं। त्रावनकोर राजघराना तब तक अपनी गद्दी पर बना रहा जब तक अँगरेज़ भारत छोड़ कर नहीं चले गए। अपनी झूठी शानोशौकत को जीवित रखने और अपने मंदिर में चढ़ावे के लिए त्रावनकोर राजघराने ने लोगों पर कई कर लगा रखे थे। अवर्ण प्रजा पर 100 से भी अधिक तरह के कर लगाए गए थे। नीची जाति के घोषित कर दिए लोगों को सदा नीचे ही रखने का इससे अच्छा उपाय और क्या हो सकता था। उजूल-फुजूल करों के बोझ तले सदा कर्ज में डूबे अवर्ण शायद सिर उठाने तक की सोच नहीं सकते थे, विद्रोह तो दूर की बात रही। पुरुषों के मूँछ उगाने पर कर था तो महिलाओं के जेवरात पहनने पर। पर इनमें से सबसे विकृत और अमानवीय था वक्ष/स्तन ढँकने का कर। अवर्ण महिलाओं को अपने वक्ष ढँकने का अधिकार नहीं था। और अगर कोई अवर्ण महिला अपने वक्ष ढँकने की इच्छा रखती तो उसे इसके लिए कर देना पड़ता। धर्म और जाति के नाम पर चल रहा यह दमन उच्च जाति के आधिपत्य का चिन्ह था – एक ठप्पा जो किसी व्यक्ति विशेष को उसके जन्म के आधार पर निम्न घोषित कर देता था।
इसी राज्य के चेरथला नामक स्थान में एक महिला रहती थी जिसका नाम था ननगेली। ननगेली एज्हावा जाति की थी। उसकी जाति के लोग छोटे किसान और खेतिहर मजदूर थे। कुछ एज्हावा लोग टोडी (नारियल का अर्क) निकालने का काम और कुछ उसका व्यापार भी करते थे। अवर्ण ननगेली अपने वक्ष ढँकना चाहती थी, आम सवर्ण महिलाओं की तरह। कोई और रास्ता न देख एक दिन उसने निर्णय लिया की वो अपने वक्षों को सवर्ण महिलायों की तरह ढँकेगी और कर भी नहीं देगी। वैसे कर देती भी तो कैसे… एक दमनकारी व्यवस्था में ‘छोटा’ होना किसी श्राप से कम नहीं है। गरीबी बिना माँगे मिलती है। शोषण बिना चाहे भोगना पड़ता है। राज्य का सबसे शक्तिशाली आदमी यूँ ही सबसे शक्तिशाली नहीं बनता। वो ननगेली जैसे सैकड़ों गरीब और विवश जनों की पीठ पर सवार होकर ही तो अपने सुनहरे सिंहासन तक पहुँचता है। ऐसे में किसी का कुछ बोलना तो दूर उसे किसी का आँख उठाना भी मंजूर नहीं होता। फिर ननगेली तो एक गरीब थी, अवर्ण थी और ऊपर से महिला। उसे ठिकाने लगाने के लिए देशद्रोह के मुकदमे की जरूरत नहीं थी। उस जैसों के लिए तो प्रवथियार (ग्राम अधिकारी) भी राजा था।
ननगेली के वक्ष ढँकने और कर न देने के कारण प्रवथियार उसके घर आ पहुँचा। जैसा की सरकार के अधिकारी आज भी करते हैं, उसने अपने डंडे का डर दिखाया होगा, राजा का डर दिखाया होगा और फिर ये जताया होगा कि कैसे वो ननगेली और उसके परिवार को राजाज्ञा के उल्लंघन करने के कारण कठोर सजा दे सकता है, शायद मौत भी। ननगेली के समझ नहीं आया की क्या किया जाए। उसका पति भी घर पर नहीं था। कौन जाने की वो असहनीय क्रोध में थी या गहन विषाद में। वो घर के अन्दर गई और थोड़ी ही देर में बाहर आ प्रवथियार के सामने खड़ी हो गई। उसके हाथों में केले का पत्तल था जिसपर उसके कटे वक्ष रखे हुए थे। खून में लथपथ ननगेली ने वो उपहार प्रवथियार को थमा दिया और सदा के लिए मुक्त हो गई। अब न तो ढँकने के लिए वक्ष थे और न कर देने की मजबूरी। लहूलुहान ननगेली निढाल हो कर गिर पड़ी। खून पानी की तरह बह रहा था मानो वो भी अपनी आजादी की बाट जोह रहा हो। खून के तालाब में पड़ी ननगेली की साँसें उखड़ रही थी। देखते ही देखते उसके प्राणों ने भी उसका साथ छोड़ दिया।
जब ननगेली का पति घर लौट कर आया तो यह भयावह दृश्य देख कर वो भाव विह्वल हो उठा। पर एक शोषित गरीब अवर्ण अपने सिवा किसे दोष दे सकता है। उसकी पत्नी की अंतिम यात्रा की तैयारियाँ पूरी हुई। लकडियों के ढेर पर ननगेली के मृत शरीर को रख कर अग्नि को समर्पित कर दिया गया। आकाश को छूती लपटें भी ननगेली की विवशता पर कराह सा रही थी। ननगेली के पति से और नहीं रहा गया। उसने भी उन कराहती लपटों को अपने आलिंगन में ले लिया और ननगेली से साथ खुद भी उस चिता में समर्पित हो गया। सती प्रथा का कीर्तिगान गाने वाले देश में एक पति का अपनी पत्नी की चिता पर यूँ जान दे देना अपने आप में एक मिसाल है। एक मिसाल जिस पर हम न तो गर्व कर सकते हैं और ना ही शर्मसार हो सकते हैं। ननगेली ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा!
माना जाता है इस दर्दनाक घटना और उससे उत्पन्न होने वाले विद्रोह की सम्भावना को देखते हुए त्रावनकोर के तत्कालीन महाराज मुलम थिरुनाल ने अगले ही दिन मुलक्करम (वक्ष ढँकने का कर) को समाप्त कर दिया। मैंने कहीं यह भी पढ़ा है की इस प्रथा के सम्पूर्ण रूप से समाप्त होने में नौ दस साल लगे अर्थात यह बर्बर प्रथा कुछ जगहों में सन् 1911-12 तक प्रचलन में रही।
ननगेली की यह कथा बड़े आराम से भुला दी गई है। अलापुज्हा जिले में चेरथला के पास स्थित ननगेली के गाँव का नाम उस घटना के बाद मुलाचीपरम्बू पड़ गया था। मुलाचीपरम्बू अर्थात वक्षधारी महिलाओं का देश। पर समय से साथ ये नाम भुला दिया गया है और इस जगह को सुना अब मनोरमा कवाला कहते हैं। कहने में निराशावादी जरुर लगता है पर देखा जाए तो अन्ततः त्रावनकोर का राजा ही विजयी हुआ।
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