शौका और राजस्थानी भाषा का अंतर्संबंध

उत्तराखंड की उत्तरी सीमा पर तिब्बत से लगी छ: मुख्य घाटियाँ हैं जहाँ के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय तिब्बत व्यापार था। इन घाटियों के लोगों की बोली व भाषा के बारे में आम जनता को बहुत कम जानकारी है। भारत तिब्बत व्यापार खत्म होने के पश्चात अब हालात यह हैं की इन घाटियाँ की संस्कृति ही नहीं बोली व भाषा भी लुप्त होने की कगार पर हैं।

सभी घाटियों के निवासी/प्रवासी अपनी संस्कृति को बचाने के विभिन्न प्रयास कर रहे हैं। जोहार घाटी के शौका लोग भी अपनी बोली व भाषा को संरक्षित व पुनर्जीवित की मुहिम में जूटे हैं। उसी सिलसिले में हमने बात की श्री गजेन्द्र सिंह पाँगती जी से जो शौका शब्दकोश बनाने के लिए कार्यरत हैं।

श्री गजेन्द्र सिंह पाँगती का जन्म जोहार के मिलम गाँव में हुआ। उनके पिता भारत-तिब्बत व्यापारी थे। जोहार में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात वे उच्च शिक्षा के लिए अल्मोड़ा चले गए। तत्पश्चात वे भारतीय जीवन बीमा में बतौर प्रशासनिक अधिकारी भर्ती हो गए और उच्च पद से सेवानिवृत होने के पश्चात नेपाल लाइफ इन्श्योरेन्स के प्रथम सी.ई.ओ. बने। अपने को व्यावसायिक कार्यकलापों से पूर्ण रूप से मुक्त कर वे अब हल्द्वानी में निवास करते हैं और अपना समय शोध, लेखन, पठन व सामाजिक कार्यकलापों में लगाते हैं।

(बाएँ) भारत चीन युद्ध से पहले का मिलम जो अब खंडहर हो चुका है (दायें) श्री गजेन्द्र सिंह पाँगती अपने राजस्थान प्रवास के दौरान
भारत तिब्बत व्यापार से जुड़ी छह घाटियों की बोली भाषा की आपसी प्रभाव के बारे में आपकी क्या राय है?

उत्तराखंड की इन छ: घाटियों के लोगों का प्रमुख व्यवसाय तिब्बत से व्यापार होने के कारण उनकी बोलियों में कुछ तिब्बती शब्दों का आ जाना स्वाभाविक है। लेकिन ऐसे मिश्रण में कोई एकरूपता नहीं है। और हो भी नहीं सकती है क्योंकि इन घाटियों में कुमाउँनी, गढ़वाली, नेपाली, आदि भाषीय लोगों का आगमन न तो समान संख्या में हुआ और न ही समान कालखंड में। हाँ, क्षेत्र और आर्थिकी से सम्बंधित कुछ शब्दों में भी समानता है। यद्यपि मूल भाषा के नाम – रंगलू, रंकश और रोंगपा – में समानता झलकती है पर इनमें बहुत भिन्नता है। यह भिन्नता उन घाटियों की भाषाओं में अधिक है जिनके बीच आवागमन की सुविधा के अभाव में सम्पर्क कम था।

दारमा, ब्यांस व चौन्दास की अपनी विशिष्ट बोली व भाषा है। इसको रंगलू कहा जाता है सम्भवत: इसलिए कि यहाँ के निवासी रंग शौका कहे जाते है। लेकिन एक ही भाषा होने पर भी इन तीन घाटियों द्वारा बोली जाने वाली रंगलू के उच्चारण में कुछ भिन्नताएँ हैं।

जोहार घाटी के लोग शौका कहे जाते हैं। यहाँ का दर्रा सबसे दुर्गम होने से यहाँ से तिब्बत व्यापार सबसे बाद में प्रारम्भ हुआ। स्वाभाविक है कि इससे पूर्व यहाँ की आबादी बहुत कम रही होगी। तब यह घाटी एक प्रकार से दारमा की उपत्यका थी। यहाँ जो विशिष्ट भाषा बोली जाती थी उसे पहले रंकश और बाद में शौकि खून कहते थे। यह भाषा कालान्तर में पूर्ण रूप से विलुप्त हो गयी या यूँ कहें कि नवागंतुकों के आने के बाद प्रचलित शौका बोली में समाहित हो गयी। ऐसा होने का मुख्य कारण यह था कि जोहार के ये नवागंतुक लोग तिब्बत व्यापार से आकर्षित होकर स्थायी रूप से यहाँ रहने के लिए आये थे और उन्होंने यहाँ के लोगों का कार्य व्यवहार पूर्ण रूप से अपना लिया। उनमें से जो समूह ऐसा नहीं कर पाए जैसे जेठरा, पापड़ा, आदि वे मुख्य धारा से जुड़ नहीं पाए और उसका परिणाम आज तक उनकी आर्थिकी में दिखाई देता है। क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों से जोहार आने वाले लोगों की संख्या स्थानीय लोगों की संख्या से अधिक थी इसलिए उनके अपने साथ लाये गये धार्मिक रीति-रिवाज और भाषा ने स्थानीय भाषा व परम्पराओं को अपने में समाहित कर लिया। लेकिन स्थानीय परिवेश के और जोहार के विशिष्ट आर्थिकी से सम्बन्धित शब्दों को उन्हें चलन में रखना पड़ा क्योंकि उनके समानार्थक शब्द उनकी अपनी भाषा में न तो थे और न ही हो सकते थे। इसी आधार पर शौका बोली और विशिष्ट शौका संस्कृति का विकास हुआ। इस ऐतिहासिक तथ्य से अनभिज्ञता के कारण कई बार लोग शौका संस्कृति और भाषा को समझने में भूल कर बैठते हैं।

मेरा मानना है कि शौका खून (रंकश) दारमा की भाषा से प्रभावित था। शौका बोली और दारमा बोली में समान रूप से पाए जाने वाले कुछ ऐसे शब्द इसकी पुष्टि करते हैं। जैसे-

शौका रंगलू शौका रंगलू
आताअताक्वनिकूक्वनकि
क्वालत्यैसीक्वात्यैसिकौतौरोकातरो
फ्यांग्तौरफ्यंग्तरबागचीबाग्चे
बाल्म  बालमाभगारबखार
सिल्दुसिल्दुसिनिसिनि
स्यांपालास्यपलेख्वसनख्वसिमो
ख्वौकचुख्वौकचुचूखचूक
छ्याल्चछ्यल्योछिच्युच्युवांग
छ्यामटांगछिज्यांगथ्वायाथावे
द्वान्गचदुमदुन्गछादुम्मुदोग्बू

कालान्तर में जोहार में विकसित शौका बोली व भाषा में पूर्व कथित कारणों से कुमाऊँ, पश्चिमी नेपाल व गढ़वाल होते आने वाले राजस्थानीयों का प्रमुख योगदान रहा है। इसमें सबसे अधिक योगदान कुमाऊँनी का रहा है।  कुमाऊँनी से इसमें भिन्नता मुख्य रूप से केवल उच्चारण में है। शौका बोली में व्याकरण की उपेक्षा भी इस भिन्नता का एक कारण है अन्यथा दोनों में अत्यधिक समानता है।

माणा घाटी में बोली जाने वाली भाषा को रोंगपा कहते है। तिब्बती भाषा से प्रभावित शब्दों के प्रयोग के मामले में इसमें और रंगलू में कुछ हद तक समानता है। नीती में बोली जाने वाली भाषा को गढ़वाली कहा जाता है क्योंकि यह काफी हद तक गढ़वाली से प्रभावित है। आज के सन्दर्भ में हम इसे गढ़वाली शौका बोली कह सकते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि रोंगपा बोली बोलने वाले लोग गढ़वाली शौका बोली को भी जानते और बोलते हैं।

गूगल मॅप से लिया आज के मिलम का दृश्य। लगभग सभी घर खंडहर हो चुके हैं।
जोहार के शौका भाषा और बोली के वर्तमान स्थिति क्या है?

जोहार से विस्थापन के बाद शौका संस्कृति और भाषा जिस तरह विलुप्ति के कगार पर पहुँच गयी है उससे युवा व वृद्ध सभी शौका चिंतित है। सभी जानते हैं की शौका भाषा और संस्कृति के संरक्षण और सम्वर्धन की आवश्यकता हैं पर अभी तक इस विषय में कुछ जागरूकता पैदा होने के अतिरिक्त कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पायी है। इसका मुख्य कारण है की यह कार्य भाषा को पुनर्जीवित करने के समान हो चुका है। पर एक लुप्त होती भाषा को पुनः प्रयोग में लाने असम्भव नहीं है। आवश्यकता है तो केवल इस बात की कि प्रयास सुनियोजित हो और उसमें निरंतरता हो। प्रयास सार्थक हो इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि संस्कृति के वे मूल तत्व और कारक कौन है जिनके छूटने से संस्कृति विलुप्त हो जाती है।

संस्कृति के मूल तत्व है भाषा, धर्म, परम्पराएँ, आस्थाएँ, रीतियाँ, कुरीतियाँ, विश्वास, अंधविश्वास, आर्थिक क्रियाकलाप, पहनावा, खानपान, इत्यादि। ऐतिहासिक कारणों से शौका भाषा जहाँ कुमाऊँनी की सहोदर रही है वहीं शौकाओं का धर्म वैदिक धर्म का सरलीकृत रूप रहा है। तिब्बत व्यापार बंद हो जाने के कारण शौकाओं का परम्परागत आर्थिक क्रियाकलाप पुनर्जीवित करना असम्भव है। जोहार की ठंडी आबोहवा में उपयोगी पहनावे का अनुपयोगी हो जाना भी स्वाभाविक है। परम्पराएँ, आस्थाएँ, रीतियाँ, कुरीतियाँ, विश्वास व अंधविश्वास, खान-पान, आदि समय के साथ बदलती रहतीं हैं। संस्कृति के सम्वर्धन के लिए इसके मूल तत्वों को संरक्षित करने के साथ ही कुरीतियों व अंध विश्वासों को दूर करते रहना भी आवश्यक है।

संस्कृति और भाषा के रिश्ते को आप कैसे देखते हैं?

किसी भी संस्कृति में भाषा व धर्म सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। इन दोनों में भाषा का स्थान गुरुतर है। धर्म बदलने के बाद भी संस्कृति के संरक्षित रहने के कई उदाहरण मिल जायेंगे लेकिन भाषा छूटने के बाद संस्कृति के बचे रहने का शायद ही कोई उदाहरण मिल पाए। बंगाली मुसलमानों ने धर्म परिवर्तन के बाद भी अपनी भाषा नहीं बदली जिसके कारण शायद उनमें बंगाली संस्कृति अब भी जीवित है। यही बात कुछ हद तक पंजाबी मुसलमानों के लिए भी कही जा सकती है। शायद इसलिए कहा गया है – “भाषा छूटी तो संस्कृति छूटी!”

पलायन के साथ ही शौका अपनी भाषा पीछे छोड़ आये है। अब उनकी संस्कृति भी भूतकाल की बात होने के कगार पर है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। इसलिए यदि शौका संस्कृति को संरक्षित करना है तो हमें सबसे पहले भाषा व बोली को पुनर्जीवित करना व प्रचलित में लाना होगा। हमें उन कारकों का विश्लेषण करना होगा जिनकी वजह से शौका भाषा में लिखित साहित्य की रचना नहीं की जा सकी और बोली प्रचलन से बाहर हो गयी। कुमाऊँनी का सहोदर होने के कारण शौका भाषा को हिंदी की उपभाषा कहा जा सकता है। मैं अपनी रचनाओं में इसका कई बार उल्लेख कर चुका हूँ कि यह भाषा कैसे बंगाली और नेपाली से मिलती जुलती है। कुमाऊँनी से इसमें जो भिन्नता है उसके मूल में शौका भाषा के वे शब्द हैं जो मूल रूप से शौका खुन या यूं कहें कि रंकस से तथा नेपाली व बंगाली भाषाओं से आये हैं।

शौका भाषा में बंगाली प्रभाव की बात कुछ आश्चर्यजनक लगती है। लगता है यह प्रभाव या तो नेपाल से होते हुए आया है या हो सकता है कि मध्यकाल में बंगाल से विलुप्त हुए समुदायों में से कुछ नेपाल होते हुए जोहार आए हों। शौका बोली में बंगाली का प्रभाव इस बात से समझा जा सकता है कि यदि इन भाषाओं को धीरे-धीरे बोला जाय और बंगाली में ‘ओ’ की जगह ‘अ’ का उच्चारण किया जाय या शौका बोली में ‘अ’ की जगह ‘ओ’ का उच्चारण किया जाय तो शौका व बंगाली को एक दूसरे की भाषा समझने में ज्यादा कठिनाई नहीं होगी।

किसी भी भाषा को जीवित रखने में मुहावरों और लोकोक्तियों का क्या महत्व है?

किसी भी भाषा व संस्कृति को जीवंत रखने के लिए उसके मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रचलन में रहना अति आवश्यक है क्योंकि इनमें उस संस्कृति की आत्मा बसती है। इनमें सम्बन्धित समाज का इतिहास, उसका अनुभव, उसका विस्वास, मान्यताएँ, वर्जनाएँ, आदि का संकलन होता है। इसी प्रकार भाषा के जीवंत रहने के लिए आवश्यक है उसका सरल व मधुर (कर्णप्रिय) होना और उसका व्याकरण की शुद्धता की परिधि में बोला और लिखा जाना।  इसी अभीष्ट के लिए शौका लोग जब अपनी बोली में लिखते थे तो कुमाऊँनी शब्द और वाक्य रचना का सहारा लेते थे। इसके लिए बाबू राम सिंह के लेखों को पढ़ा जा सकता है। मेरे पिताजी भी मुझे हमेशा इसी तरह की शौका भाषा में पत्र लिखा करते थे। अपनी बोली के प्रचलन और अपनी भाषा में स्वतंत्र व उच्च कोटि के लेखन के लिए मूल भाषा का विश्लेषण, व्याकरण का मानकीकरण, मुहावरों व लोकोक्तियों का संकलन, शब्दों का सरलीकरण आदि  के लिए परिचर्चाओं, गोष्ठियों, शोधों, आदि को आगे के लिए छोड़ते हुए मैं अभी केवल इस पर चर्चा करना चाहूँगा कि राजस्थानी भाषा और हमारी भाषा में किस तरह साम्यता है और राजस्थानी भाषा कैसे हमारे अभीष्ट में सहायक हो सकती है। जिन साम्यताओं का मैं उल्लेख कर रहा हूँ उनको पढ़ने और उन पर मनन करने के लिए यह बात हमेशा याद रखना होगा कि भाषा के सरल और मधुर (कर्णप्रिय) होने के लिए संयुक्ताक्षरों के प्रयोग में नियंत्रण के साथ-साथ शब्दों के छोटे स्वरूपों का प्रयोग करना वांछनीय है। जैसे सुरेन्द्र दाज्यू और लक्ष्मण बूबू के स्थान पर सुरिदा व लछ्बू लिखना जितना सरल है उतनी ही बोलने और सुनने में मिठा भी है।

शौका समाज का एक बड़ा तबका अपने को ऐतिहासिक रूप राजस्थानी मूल का मानता है। क्या शौका भाषा का कोई राजस्थानी संबंध भी है?

दुर्भाग्य से अब तक शौका बोली के राजस्थानी संबंध की ओर मेरा ध्यान नहीं गया। दुर्भाग्य इसलिए क्योंकि जोहार के मूल पुरुष धाम सिंह रावत के राजस्थानी होने पर भी मैं इस संबंध पर गौर नहीं कर सका। इसका एक कारण सम्भवत: यह भी रहा है कि जब मैं २ वर्ष के लिए जयपुर में था तो मेरा कार्य क्षेत्र मध्य और पूर्व राजस्थान था जहाँ हिंदी खड़ीबोली का प्रभाव अधिक है जबकि पश्चिम व दक्षिण राजस्थान में शुद्ध राजस्थानी बोली व भाषा का प्रभाव है। यही कारण है कि लेखक व साहित्यकार विजयदान देथा ने जब अपनी रचनाएँ राजस्थानी में लिखने का निर्णय लिया तो उन्होंने जो पहला कार्य किया वह था जयपुर से जोधपुर जाना और अपने मूल गाँव में रहना ताकि वे मूल राजस्थानी भाषा की आत्मा में रच-बस सकें। उन्होंने राजस्थानी में अनेकानेक कहानियाँ, उपन्यास, लेख, समालोचनाएँ, संस्मरण, आदि लिखे। मुझे पूर्व में उनकी एक-दो रचनाएँ पढने का सौभाग्य मिला था। उनके कथानकों की रोचकता और रचना की सरलता व सुन्दरता व भाषा की मिठास से मैं अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाया। इसलिए उनकी और रचनाएँ पढ़ने की तमन्ना मेरे दिल में थी। कोरोना ने मेरी यह तमन्ना भी पूरी कर दी। इस महामारी से बचने के लिए मैं अपने पुत्र नवीन के आवास (अल्मोड़ा के समीप एक गाँव में) आ गया। नवीन के भी बिजयदान देथा का प्रशंसक होने के कारण उसके पुस्तकालय में उनकी कई रचनाएँ उपलब्ध थीं। उनमें से तीन-चार रचनाएँ पढ़ने पर मुझे इस बात का आभास हुआ कि शौका भाषा व बोली राजस्थानी से अत्यधिक प्रभावित है। कई राजस्थानी शब्द, शब्दों का स्पेलिंग व उच्चारण, वाक्यों की संरचना, आदि हिंदी से भिन्न लेकिन हूबहू शौका बोली जैसी है। मुझे पक्का विश्वास है कि जब भी हम शौका बोली को संरक्षित करने का सुनियोजित प्रयास करेंगे और शौका भाषा में लेखन के लिए उसके व्याकरण, उच्चारण, स्पेलिंग आदि का मानकीकरण करेंगे तब मूल राजस्थानी भाषा से हमें बहुत मदद मिलेगी।

सामाजिक रूप से राजस्थानी व शौका समाज की कुछ समानताएँ हैं जो उत्तराखंड के अन्य भागों में नहीं देखने को मिलती। इनमें से मुख्य हैं –

  1. पर्दा प्रथा
  2. महिलाओं का घाघरा पहनना
  3. महिलाओं द्वारा बिनाई वादन
  4. हुक्के का प्रचलन
  5. सत्तू का सेवन आदि 

राजस्थानी व शौका भाषा में समान रुप से बोले व लिखे जाने वाले कई शब्द हैं जैसे –

राजस्थानीशौकाराजस्थानीशौका
दीठदीठअदेरअबेर
मनचीतीमनचितै, मनचैनबखतबखत, बखद
ठौरठोरबुगचीबुकची
गारगारा, गौरोजत्तीजदी
उनमानउनिजसजस तसजसे तसे

ऐसे ही कई शब्द ऐसे भी जो दोनों भाषाओं में समान रुप से प्रयोग किया जाए है जैसे लच्छन, भरम, दरसन, दरद, चौमास, ढील, नौकर-चाकर, रीता, गुद्दी, तामझाम, मगजमारी, इत्यादि।

कुछ रेगिस्तान से इलाके में बसा मिलम एक दौर में उत्तराखंड की सबसे बड़ी बसावटों में से एक था
शौका बोली को संरक्षित व पुनर्जीवित करने की इस मुहिम में हम राजस्थानी भाषा से क्या सीख सकते हैं?

राजस्थानी भाषा में संयुक्ताक्षरों का प्रयोग बहुत कम है जिस कारण इसमें मिठास व सरलता है। शौका बोली में संयुक्ताक्षरों का अत्यधिक प्रयोग होता है। इससे यह लिखने में कठिन तथा बोलने में कर्णकटु लगता है। राजस्थानी भाषा की मिठास का एक और कारण है उसे उसी रूप में लिखना जिस रूप में उसे बोला जाता है जैसे श और ष का कम से कम प्रयोग और उसके स्थान पर स का प्रयोग। हमें भी यही करना होगा क्योंकि हमारी बोली में भी स का ही अधिक प्रयोग होता है। यही नहीं ड़ के स्थान पर जिस तरह हम र बोलते हैं उसी तरह उसे लिखना भी होगा। ऐसा न किया जाना भी शौका बोली-भाषा के चलन से बाहर होने का एक प्रमुख कारण है। यही वह कारण है जिसकी वजह से हमारे पूर्वज अपनी भाषा में लिखने के लिए अल्मोड़े की कुमाउनी जैसी शैली का प्रयोग करते थे। शौका भाषा की विशिष्टता को बनाए रखने के लिए हमें उन विशिष्ट शब्दों को भी संकलित और प्रचलित करना होगा जो जोहार के विशिष्ट परिवेश और आर्थिक गतिविधियों से उपजे थे और इसलिए विशिष्ट शौका संस्कृति के अपरिहार्य अंग हैं। लिखित भाषा के विकास के लिए कुमाऊँनी के समान व्याकरण को और राजस्थानी के समान सरल शब्दों को अपनाना होगा। इससे लेखन और रचना साहित्य दोनों में सरलता के साथ ही मिठास भी आएगा।                                            

ऐसे अनेकानेक शब्द हैं जो राजस्थानी और शौका बोली में समान रूप से प्रयुक्त होते रहे हैं। आवश्यकता है तो केवल उनको चलन में रखे रहना। कुछ उदाहरण –

राजस्थानीशौकाहिंदी
दरसनदरसनदर्शन
बरसबरसवर्ष
दीठदीठदृष्टि
उछाहउछालउत्साह
दरसानादेखौनदर्शाना
दिसावरदिसावरदेश
मानुसमनख:मनुष्य
बिरमांडबरमांडब्रह्माण्ड

साथ ही साथ अनेक राजस्थानी शब्द ऐसे भी हैं जिनका उच्चारण व जिनकी रचना शौका बोली में प्रयुक्त होने वाले शब्दों से समानता के कारण उसमें अपनाए जाने योग्य है जैसे अदीठ (अदृश्य), पैठना (प्रभावित करना), अजाने (बिना समझे), उजास (उजाला), अचीता (न देखा, न समझा), नितनेम (नित्य का नियम), परख (परीक्षा), नामवरी (प्रशिद्धि), अंतस (अंतर्मन), परस (स्पर्श), अदेर (शीघ्र), चंदरमा (चन्द्रमा), बिरछ (वृक्ष), आदि।    

विलुप्त हो रहे शौका संस्कृति और भाषा को संरक्षित और समवर्धित करने के लिए इस समाज के प्रबुद्ध लोग आज जो प्रयास कर रहे हैं वह उनको उन अनेक संस्कृतियों और भाषाओं की ओर ले जाएगा जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। वे यह भी प्रयास कर रहे हैं कि शौका बोली को बोलने और सुनने में मीठा बनाया जाए ताकि वह एक बार फिर से आम प्रचलन में आ जाए। यह भी प्रयास किया जा रहा है कि भाषा लेखन को सरल बनाया जाए। यह प्रयास उन्हें स्वत: ही राजस्थानी की ओर ले जाएगा। जॉर्ज ग्रियर्सन भी कुमाउँनी को राजस्थानी से प्रभावित मानते हैं। डॉ. शेर सिंह बिष्ट भले ही इस प्रभाव को सतही मानते हों लेकिन मेरा मानना है कि शौका बोली के सन्दर्भ में यह प्रभाव सतही नहीं है। राजस्थानी संस्कृति और भाषा का गहन अध्ययन शौकाओं को न केवल उनकी अपनी संस्कृति और भाषा में उनके प्रभाव से परिचित कराएगा बल्कि शौका भाषा को सरल तथा कर्णप्रिय बनाने और उसको रचना साहित्य तथा वैज्ञानिक विषयों पर लेखन के लिए सक्षम बनाने के उनके प्रयास में सहायक होगा।

***

एक ऐसे दौर में जब प्रचलित भाषाओं का ह्रास हो रहा है, एक स्थानीय व लगभग विलुप्त हो रही भाषा को पुनर्जीवित करने का प्रयास सराहनीय है। शौका बोली व भाषा को संरक्षित व पुनर्जीवित की मुहिम में जूटे सभी लोगों का आभार प्रकट करते हुए हम आशा करते हैं की इस जटिल मुहिम में उन्हें सफलता मिले।

नवीन पाँगती
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