गोरीपार का धर्मेन्द्र

कुछ दिन पहले एक युवा कलाकार से मुलाकात हुई – धर्मेन्द्र जेष्ठा। फिर यूट्यूब पर धर्मेन्द्र का काम देखा। अपने कैमरे के माध्यम से मुझे वह उन जगहों पर ले गया जिसके बारे हम अक्सर सोचते रह जाते हैं – वहाँ, उस पहाड़ी के पीछे का दृश्य कैसा होगा ?

उत्तराखंड के ऊपरी इलाकों में काफी लोग कीड़ाजड़ी ढूँढने का काम करते हैं। कीड़ाजड़ी एक तरह का फंगस है जो ऊपरी हिमालय में मिलता है और दवाई में प्रयोग किया जाता है। पिछले कुछ सालों में कीड़ाजड़ी स्थानीय आर्थिकी का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है। आस पास के अन्य गाँवों की ही तरह धर्मेन्द्र के गाँव के लोग भी कीड़ाजड़ी ढूँढने का कठिन कार्य करते हैं। इन्हीं लोगों के साथ अत्यंत कठिन रास्तों में चल कर धर्मेन्द्र ने हमें ऐसी जगहों और व्यवसाय से रूबरू कराया है जिसके न केवल होने, बल्कि दुश्वारियों से भी हम अनभिज्ञ थे।

फिल्मों की ताजगी देख कर मन किया कि उस शख्स के बारे में भी जाना जाए जिसके कैमरे के जरिए हम एक नई दुनिया देख पाए हैं। 23 वर्षीय धर्मेन्द्र व्लॉग बनाने के साथ-साथ अल्मोड़ा में फाइन आर्ट्स की शिक्षा भी ग्रहण कर रहे हैं। आइये उन्हीं से जानते है उनके बारे में।

धर्मेन्द्र, आप किस गाँव के रहने वाले हैं?  अपने जन्म व परिवार के बारे में कुछ बताएँ?

मैं मुनस्यारी के एक सुदूर गाँव गोरीपार (बादनी) में रहता हूँ और मेरा जन्म 1998 में इसी गाँव के उस घर में हुआ जिसमें अब भी हमारा परिवार रहता है। हमारे परिवार में मेरे अलावा अम्मा(दादी), पापा, माँ, और एक छोटा भाई हैं।

आपकी स्कूली शिक्षा कहाँ हुई? क्या छुटपन से ही आप युवाओं और बुजुर्गों के साथ इन वादियों में जाते थे?

मेरी स्कूली शिक्षा मेरे गाँव के ही सरकारी स्कूल से हुई है जो मेरे घर से 4-5 किलोमीटर की दूरी पर है। अभी तक अपनी जिन्दगी के जिन हिस्सों को मैं सबसे ज्यादा जिया हूँ वो है मेरा छुटपन, जो बेहद ही खूबसूरत रहा है।

बचपन से ही हम इन पहाड़ों में बहुत घूमते रहे हैं। मुझे आज भी याद है मैं अपने घर से ऊपर की पहाड़ियों में सबसे पहली बार अपने बुबू के साथ ग्वाला आया था। वे हमेशा झोले में एक डेक्ची, चाय पत्ती, चीनी साथ ले कर चलते थे। हमें जहाँ भी समय मिलता हम चाय बना लेते थे। वे चाय के बेहद ही शौकीन थे। अपने अंतिम समय तक उनका इन पहाड़ो के हर एक फूल, पत्थर, पेड़ो, इत्यादि से गहरा रिश्ता रहा।

जब थोड़े बड़े हुए तो हम अकेले ही, दिन का खाना साथ लेकर, ग्वाला जाते थे। बगल के गाँव के एक बुबू अपनी बकरियों के साथ ग्वाला आते थे और चौमास के दिनों में किसी उड्यार के नीचे बैठ बाँसुरी बजाते थे। वो सुर अब भी स्पष्ट सुनाई देते देते हैं हालाँकि उनका चेहरा अब मेरी यादों में धुंधलाने सा लगा है।

आपको यह विचार कब आया कि आपको फाइन आर्ट्स में शिक्षा लेनी चाहिए? किन चीजों ने आपको लीक से हट कर कुछ अन्य करने की प्रेरणा दी?

मैंने 12वीं के बाद बी.ए. करने ले लिये पिथौरागढ़ के कॉलेज में एडमिशन लिया। मैं साथ ही साथ आर्मी की भर्ती की तैयारी भी कर रहा था। कॉलेज में रहते हुए मेरा रुझान छात्र राजनीति की ओर हो गया। मैंने चुनाव भी लड़ा पर हार गया।

एक साल से मैं लगातार शारीरिक मेहनत कर भर्ती की तैयारी कर रहा था। भर्ती से ठीक 4 दिन पहले मेरे मन में सवाल उठा – क्या मैं यही करना चाहता हूँ? क्या मैं ऐसे ही जीना चाहता हूँ? तब मेरे अंदर से आवाज़ आयी– यह तू नहीं, तेरा परिवेश निर्धारित कर रहा है। भर्ती के लिए बनबसा जाना था। मैंने मन की सुनी और गया ही नहीं।

तब तक मुझे फाइन आर्ट्स के बारे में रत्ती भर कुछ मालूम नहीं था। होता भी कैसे? मेरे समाज में आर्मी के अलावा किसी अन्य व्यवसाय की चर्चा ही नहीं होती थी। तब मैं खोजने लगा मुझे असल में क्या करना है। एक दिन कमरे में बैठ मैं ड्रॉइंग बना रहा था कि तभी एक दोस्त आया और मेरा काम देख कर बोल-तुम BFA क्यों नहीं कर लेते? मैंने उससे पहले ये शब्द सुने भी नहीं थे। फिर उसने इस विषय के बारे में मुझे बताया। मैं बचपन से ही बड़ी लगन के साथ चित्रकारी करता आ रहा था। मैंने निर्णय लिया कि मुझे इसी दिशा में आगे बड़ना चाहिए। अगले ही कुछ दिनों में मैंने घर वालों को जैसे-तैसे समझाया और फाइन आर्ट्स पढ़ने के लिए अल्मोड़ा आ गया।

ग्रामीण अञ्चल में रहते हुए क्रिएटिव फील्ड में जाने का सपना देखना कितना सरल या कठिन है?

फिलहाल तो यह बहुत ही कठिन है क्योंकि कोई क्रिएटिव फील्ड में जाना भी चाहे तो आर्थिक परिस्तिथियाँ आड़े आ जाती हैं। इस कारण सपने देखने वाला बच्चा मानसिक रूप से इतना कमजोर पड़ जाता है कि वो एक कदम भी आगे नहीं जाना चाहता। गाँवों में सपने दिखाने और उसे पूरा करने के लिए एक राह दिखाने वाले की बहुत जरूरत है। फिर वहाँ मेरे जैसे हजारों बच्चों के लिए सपने देखना और उसके लिए अपने मौजूदा परिस्थिति में रहते हुए मेहनत करना आसान हो जाएगा। जो हजारों मीटर पहाड़ चढ़ जाते हैं उनके लिए ये कुछ भी नहीं– अगर सही दिशा मिल जाए तो।

लाइव एक्शन, कैमरे का शौक कैसे हुआ? क्या किन्हीं लोगों या फिल्मों ने आपको प्रभावित किया?

फाइन आर्ट्स करते वक़्त मुझे ख़याल आया कि मुझे अपने सपनों के इस सफर में कुछ टेक्निकल कौशल भी सीखने चाहिए। उस समय मेरे पास न कैमरा था न लैपटॉप। यूट्यूब में डॉ एपीजे अब्दुल कलाम साहब की एक ऑटो बायोग्राफी मेरे हाथ लगी थी जिसे में हर रोज सुनते रहता था। सीख यह मिली की – “सपनों के आगे हालात ज्यादे मायने नहीं रखते, बस सपनों की उड़ान में बात होनी चाहिए।“

टेक्निकल कौशल सीखने के लालसा इसलिए भी थी क्योंकि मैं ये चाहता था कि पढ़ाई के साथ-साथ मैं आय के कुछ स्रोत भी खोज लूँ क्योंकि आर्ट्स की सामग्री काफी महँगी होती हैं। मैंने बहुत सारी फिल्मों और फिल्म निर्माताओं के बारे में जानकारी हासिल की और साथ ही साथ कैमरे का काम सीखने लगा।

अपने फिल्म/ व्लॉग में दिखाए गए इलाकों में आप पहली बार कब गए?

हमारे क्षेत्र में लोगों की आय का 75% स्रोत ये पहाड़ ही हैं। मैं भी 10वीं की परीक्षा के तुरन्त बाद से इन बुग्यालों में जाने लगा। एक दिन चट्टान से पैर फिसलने के कारण मैं नीचे गिर गया और मेरे पैर की हड्डी टूट गई। उस समय मैं इन पहाड़ों और अपनी मौत के काफी करीब पहुँचा हुआ था।

‘मन की पीड़’ की शूटिंग व एडिटिंग के बारे में कुछ शेयर करना चाहेंगे? क्या म्यूजिक वीडिओ बनाने का वो आपका पहला अनुभव था?

मुझे फिल्म मेकिंग करते हुए 2 साल हो चुके थे। मैं चाहता था कोई ऐसा प्रोजेक्ट मिले जिसमें मैं अपने खुद को बाहर ला सकूँ। तब अचानक गणेश दा (गणेश मर्तोलिया) मिले और बोले की वे मुझसे एक म्यूजिक वीडिओ बनवाना चाहते हैं। उन्होंने गाना सुनाया और स्टोरी बताई। फिर क्या था, मैं स्टोरी बोर्ड बनाने में जुट गया।

जब हम शूटिंग करने लगे तो मैं डरा हुआ भी था कि कहीं काम खराब न हो जाए। पर खुश भी बहुत था। हमने बहुत ही अच्छे से फिल्म को शूट किया और फिर उसे एडिट किया जिसका आउटपुट आपके सामने है। अक्सर ऐसे विषयों पर पहाड़ी गीत सुनने व म्यूजिक वीडिओ देखने को नहीं मिलते। ऐसा करना अपने आप में काफी हिम्मत और ख़ुशी की बात थी। इससे पहले भी मैंने कुछ म्यूजिक वीडिओ में थोड़ा बहुत काम किया था पर ऐसे स्वतंत्र रूप से काम करने का मौका पहली बार मिला।

अपने बचपन से अब तक जो बदलाव इन पहाड़ों में स्थानीय गाँवों व शहरों में दिखा है उसके बारे में कुछ बताना चाहेंगे?

मुझे लगता है कि सोच में बदलाव आया है। अब गाँव के लोगों को बेहतर शिक्षा और गाँव की अच्छाईयों के प्रति समझ बन रही है। यद्यपि ये बदलाव बहुत धीमे से काम कर रहे हैं पर ख़ुशी इस बात की है कि बदलाव हो रहा है। लेकिन गाँवों में अच्छी शिक्षा‌ व स्वास्थ्य सेवाओं का अभी भी अभाव है जो शायद तभी पूरी हो पाएंगी जब अच्छी सोच और समझ सामने आएगी और लोग अपना हक़ माँगेंगे। रही सड़कों की बात तो वे भटकते-भटकते जैसे तैसे पहुँच ही रही हैं।

कीड़ाजड़ी पर आपके व्लॉग में प्रकृति की अद्भुत छटा देख कर मन प्रसन्न हो जाता है। आपके कीड़ाजड़ी ढूँढने की कठिन प्रक्रिया को अपने व्लॉग में दर्शाया है। कीड़ाजड़ी का स्थानीय लोगों की जीवनशैली व आर्थिकी के संबंध के बारे में आपकी क्या राय है?

हिमालय ने हमें बहुत कुछ दिया है। उन्हीं में से एक है कीड़ाजड़ी जिसकी वजह से गाँव के बहुत घरों में चूल्हा जलता है। मेरे जैसे अनेक युवाओं के सपनों को गति भी कीड़ाजड़ी ही दे रही है। इसके बिना शायद ये सपने खोखले रह जाते। युवाओं के इन सपनों के साथ उनका परिवार, और साथ ही साथ पहाड़ भी आगे की ओर चल रहे हैं।

स्थानीय आजीविका और आधुनिक जीवनशैली के प्रभाव से बदल रहे सुदूर अंचलों के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?

मुझे लगता है कुछ मामलों में यह प्रभाव बहुत अच्छा है और कुछ मामलों में बहुत खराब। क्योंकि प्रभाव अच्छे भी होते हैं और बुरे भी, इसलिए अगर प्रभाव है तो दोनों ही होंगे। गाँव के जो लोग शहर की तरफ नहीं जाना चाहते उनके लिए आजीविका के नए नए स्रोत सामने आना अच्छी बात है। पर उसके साथ लोकल खान पान, संस्कृति पर भी इसका प्रभाव साफ देखने को मिल रहा है। इस विषय को भी हमें ध्यान में रखना होगा। आधुनिक जीवन शैली में बहुत समझ भी है और उस समझ का पहाड़ आना एक बड़ी बात है।

क्रिएटिव फील्ड के अब तक के सफर में क्या क्या कठिनाईयां आईं? और आगे का क्या सपना है?

सबसे बड़ी कठिनाई तो आर्थिक मजबूरियाँ ही हैं। कोशिश जारी है की इस भार को कम किया जाए। सपनों की बोलूँ तो मुझे एक फ़िल्मकार बनना है और फिलहाल इंडियन फ़िल्म इंडस्ट्री तक पहुँच पाना ही मुख्य सपना है।

नवीन पाँगती
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