शिक्षा का अधिकार अधिनियम के नीतिगत अंधेपन को भोगते गरीब बच्चे

नीति निर्माण के काम को बहुत संयम व दूरदर्शिता की जरूरत होती है। उनके बगैर बनी नीतियाँ अपने शुरुवाती दौर में ही पस्त हो जाती हैं। शिक्षा का अधिकार (आर.टी.ई.) अधिनियम के तहत अपवंचित व कमजोर वर्ग के बच्चों लिए सभी विद्यालयों में, यहाँ तक की निजी विद्यालयों में भी, मुफ़्त शिक्षा का प्रायोजन इसका एक जीवन्त उदाहरण है।

2009 में बने शिक्षा का अधिकार (आर.टी.ई.) अधिनियम में 6 से 14 साल के सभी बच्चों को उनके नजदीक के सरकारी विद्यालय में नि:शुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान है। नि:शुल्‍क शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालय की फीस ही नहीं बल्कि इसमें यूनिफार्म और पुस्तकों का खर्च भी सम्मिलित है। शिक्षा का अधिकार (आर.टी.ई.) अधिनियम के तहत हर मान्यता प्राप्त विद्यालय को कम से कम 25% सीट अपवंचित व कमजोर वर्ग (ई.डबल्यू.एस.) के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देने के लिए आवंटित करनी होती हैं। इस सुविधा पर हो रहे व्यय का भुगतान सामूहिक रूप से केंद्र व राज्य सरकारें करती है। सुविधा का लाभ उठाने के लिए बच्चों को आवेदन करना होता है और चुनाव लॉटरी के जरिए होता है। उत्तराखंड में इस सुविधा का लाभ उठाने के लिए अभिभावकों को आर.टी.ई. वेबसाईट (www.rte121c-ukd.in) पर जाकर अपने बच्चे का आवेदन पत्र जमा करना पड़ता है।

अधिनियम के अन्तर्गत सभी विद्यालय, सरकारी व गैर सरकारी, ई.डबल्यू.एस. सीटें आरक्षित करने के लिए बाध्य हैं अर्थात वे विद्यालय भी जिन्हें अपने संचालन के लिए सरकार से कोई सहायता नहीं मिलती। उत्तराखंड की सरकारी वेबसाईट के अनुसार ई.डबल्यू.एस. प्रणाली लागू करने के लिए अब तक केवल 13 विद्यालय पंजीकृत हुए हैं जिनमें से 7 ही सत्यापित किए गए। यह तब जब अधिनियम सन् 2009 में लागू हो गया था। गौर करने वाली बात यह भी है की उत्तराखंड में निजी विद्यालयों की संख्या ही 1000 से ऊपर है। राज्य में 15000 से अधिक प्राइमरी विद्यालय हैं जिनमें 10 लाख से अधिक बच्चे पड़ते हैं। पर ई.डबल्यू.एस. प्रणाली के तहत आज तक लगभग 12000 बच्चे ही लाभान्वित हुए। क्यों? इसका उत्तर ना जाने कौन देगा।

पर नीतिबद्ध अंधेपन का उदाहरण इतना ही नहीं है। मसला अभी और भी गंभीर होना बाकी है!

शिक्षा का अधिकार अधिनियम 6 से 14 साल के सभी बच्चों पर लागू होता है पर एक बार बच्चा 14 साल की उम्र पार कर गया तो यह अधिनियम लागू नहीं रहता। अर्थात एक गरीब घर का बच्चा ई.डबल्यू.एस. प्रणाली के तहत एक अच्छे निजी विद्यालय में दाखिला तो पा सकता है पर कक्षा 8 से आगे पढ़ नहीं सकता। अलमोड़े जैसे छोटे शहर में भी गरीब परिवारों के ऐसे बच्चों को कक्षा 8 के पश्चात हर माह लगभग रु. 2500 तक की फीस भरनी पड़ती है। क्योंकि यह बात अभिभावकों को पहले से मालूम नहीं होती, वे असमंजस की स्थिति में फँस जाते हैं। इस बार कोविड ने उन्हें और भी अधिक कठिन स्थिति में ला कर खड़ा कर दिया। बोर्ड के इम्तेहान शुरू होने से पहले विद्यालयों ने अभिभावकों से जबरन फीस भरवा ली। बच्चों के भविष्य की चिंता में फँसे अभिभावकों ने जैसे तैसे पैसों की व्यवस्था की। अब उन्हें यह व्यवस्था तब तक करनी होगी जब तक बच्चे बारहवीं कक्षा पास नहीं कर लेते। अब तक अंग्रेजी विद्यालयों में पढ़ रहे इन बच्चों के लिए सरकारी विद्यालयों की व्यवस्था में अपने को ढालना, वह भी तब जब इन्हें प्रवेश प्रतियोगिताओं की ओर ध्यान देना है, कितना मुश्किल कार्य है यह कोई भी सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी आसानी से समझ सकता है। पर हमारे नीति निर्माता इस अहम मसले को  समझने में चूक कर गए। यह गौरतलब है की इस मसले पर मामला दिल्ली हाई कोर्ट में चल रहा है।  पर कोर्ट भी इतनी आसानी से फैसला कैसे दे। इसके लिए तो अधिनियम के प्रावधानों को बदलना होगा ताकि कक्षा 9 से 12 तक ई.डबल्यू.एस. प्रणाली के तहत शिक्षा पर होने वाले रहे खर्च का भार सरकारें उठा सकें।

मजे की बात तो यह है की ऐसी ही एक व्यवस्था उत्तराखंड के महाविद्यालयों में भी लागू की गई है जिसके तहत सामान्य श्रेणी के वे छात्र-छात्राएँ लाभान्वित होते हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से है। इस ई.डबल्यू.एस. प्रणाली के तहत दाखिले में 10 फीसदी सीटें आरक्षित की गई है। यह प्रणाली सभी सरकारी विश्वविद्यालयों व महा विद्यालयों तथा सरकारी सहायता प्राप्त महा विद्यालयों में लागू कर दी गई है। अर्थात कक्षा 1 से कक्षा 8 तक व कॉलेज में शिक्षा के लिए तो आर्थिक सहायता का प्रावधान है पर कक्षा 9 से कक्षा 12 तक आप अपने भाग्य के हवाले है।

वैसे अधिनियम में बहुत सारे अच्छे प्रावधान भी हैं जिसमें के कई, सालों बाद भी, क्रियान्वित किए जाने के इंतज़ार कर रहे हैं। इनमें से कुछ यूँ ही अनदेखा कर दिए गए हैं तो कुछ राज्य सरकारों द्वारा विधिवत टाल दिए गए हैं। अधिनियम के अनुसार हर विद्यालय में –

  1. 30:1 का विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात होना चाहिए।
  2. 10% से अधिक शिक्षक पद रिक्त नहीं होने चाहिए।
  3. पुस्तकालय, पढ़ाने-सिखाने की सामग्री व खेलकूद के उपकरण होने चाहिए।
  4. हर शिक्षक के लिए एक क्लास रूम, हेड टीचर के लिए अलग कमरा, लड़के लड़कियों के लिए अलग अलग शौचालय, पीने के लिए साफ पानी व खेलने के लिए मैदान होना चाहिए।
  5. कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों के लिए 1 किलोमीटर तथा कक्षा 6 से 8 के बच्चों के लिए 3 किलोमीटर से कम दूरी पर विध्यालय होना चाहिए।

साथ ही साथ अधिनियम यह भी स्पष्ट करता है कि –

  1. विद्यालय में शुरुआती चयन के लिए किसी प्रकार का कोई इम्तेहान या अन्य जाँच प्रणाली ना हो।
  2. किसी भी बच्चे को साल में किसी भी समय दाखिले के लिए मना ना किया जाए – ट्रांसफर सर्टिफिकेट (टी.सी.) के बिना भी। यह प्रावधान तब भी लागू रहेगा जब बच्चे ने पहले किसी स्कूल में ना पढ़ा हो।
  3. बच्चे को उसकी आयु के अनुकूल कक्षा में दाखिला दिया जाए। अगर देरी से भर्ती के कारण बच्चा पढ़ाई में पिछड़ रहा हो तो विद्यालय उसकी अतिरिक्त पढ़ाई की समुचित व्यवस्था करे।

अपने आस पास के विद्यालयों में देखिएगा और जानिएगा कि क्या कुछ होना अभी भी बाकी है। अगर आप मूल अधिनियम पढ़ने में रुचि रखते हैं तो हिन्दी के लिए यहाँ और अंग्रेजी के लिए यहाँ क्लिक करें

नवीन पाँगती
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