व्यावसायिक कुमाऊँनी गीत और स्त्री

कविता, साहित्य, इत्यादि समाज को दर्पण दिखाते हैं। लोक गीत, संगीत व कला समाज की अनुभूतियों और आकांक्षाओं का चित्रण करते हैं। इनसे बहुत भिन्न होती है राजनीति, फिल्में और पॉप कल्चर। वे एक तरह से समाज का प्रतिबिम्ब होती हैं। जैसा समाज वैसी राजनीति, वैसी फिल्में और वैसा की पॉप कल्चर। लोक और व्यावसायिकता में यह एक अहम भेद है।

स्थानीय भाषा के गीतों के सामाजिक प्रभाव पर लिखा पिछला लेख ‘कौन देता है थल के बाजार को सीटी बजाने का हक’ बहुत पाठकों ने पढ़ा और उस पर चर्चा की। पर कुछ का यह भी मानना था की वह लेख किसी दुर्भाव या बात का बतंगड़ बनाने के लिए लिखा गया है। जैसा उस लेख में साफ साफ लिखा था की वह गाना एक प्रतीक के तौर पर लिया गया है, इस लेख में भी कई गानों का उल्लेख है। यह उल्लेख किसी व्यक्ति विशेष पर प्रहार नहीं अपितु मुद्दे को समझने के लिए उदाहरण भर है।

दिव्या पाठक से इस साक्षात्कार का आधार उनका शोध पत्र ‘व्यावसायिक कुमाउनी गीतों में स्त्री की छवि’ है जिसे दिव्या ने सेन्टर फ़ॉर वीमेंस स्टडीज द्वारा आयोजित सेमिनार के लिए लिखा था। शादी समारोह में बजने वाले कुमाउनी गीतों को सुनकर दिव्या को कोफ़्त तो होती ही थी, साथ ही यह भी महसूस होता था कि पितृसत्ता की जड़ें कितनी मजबूती से अपनी पकड़ बनाये हुए हैं। उनका मानना है कि ऐसे गीतों की बढ़ती लोकप्रियता हमारे समाज की मानसिकता और स्त्रियों के प्रति उनके रवैये को भी साफ तौर पर पेश करती है। उनके मन में इन गीतों के प्रति निराशा के साथ साथ वैचारिक प्रतिरोध तो पहले से ही था।

दिव्या की प्रारम्भिक शिक्षा जी.जी.आई.सी. बेरीनाग से हुई। ग्रेजुएशन दिल्ली विश्वविद्यालय, पोस्ट ग्रेजुएशन कुमाऊँ विश्वविद्यालय, एम.फिल. बनस्थली विद्यापीठ, तथा वर्तमान में डी.एस.बी. कैंपस नैनीताल से पी.एच. डी. कर रहीं दिव्या बतौर गेस्ट टीचर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर में कार्यरत हैं। उनका रंगमंच से गहरा जुड़ाव है और उनकी एकल प्रस्तुति ‘गोपुली बूबू’ का कई बार मंचन हो चुका है। हमने दिव्या से कुमाऊँनी गीतों में स्त्री के प्रस्तुतीकरण को ले कर, इस साक्षात्कार के माध्यम से, विस्तार में चर्चा की।

दिव्या, लोग जिन्हें आम तौर पर लोकगीत कहते हैं उन्हें आपने व्यावसायिक गीतों का दर्जा दिया है। आप इन्हें व्यावसायिक गीत क्यों कहती हैं और ये लोकगीत से कैसे भिन्न हैं?

उत्तराखंडी लोकगीत संगीत की गैर-व्यावसायिक परम्परा की जड़ें बहुत पुरानी है। लोक की सामुदायिक अभिव्यक्तियों से जुड़े गीतों को आप लोकगीत कह सकते हैं। उत्तराखंड में परंपरा से लोकसंगीत की दो स्पष्ट श्रेणियाँ रही हैं – पहली वह जो सामूहिक गायन के विभिन्न रूपों में सभी समुदायों में पाई जाती थीं, जैसे- मंगल गीत, होली गायन, चांचरी, झोड़े या खेल, स्थानीय त्योहारों के गीत (गमरा), आदि। इस किस्म के गायन में आप गायक और श्रोता का भेद नहीं पायेंगे।

दूसरी परंपरा, जिसे मैं उत्तराखंडी संगीत की प्रमुख परम्परा कहना चाहूँगी, वह है जिसे यहाँ का सवर्ण समाज ‘सम्मानजनक’ नहीं समझता और जो मुख्य रूप से जातीय श्रेणीक्रम में सबसे निचली जातियों के कर्म के रूप में मान्य है। गायन और वादन की सभी प्रमुख विधाएँ इन्हीं निम्न समझी गई जातियों की देन हैं, जिन्हें हम ‘कलाकार’ का सम्मानजनक दर्जा नहीं देते। इन्हें उत्तराखंड के परंपरागत कला श्रमिक कहना उचित होगा, जो खुद को जीवित रखने के लिए गाने-बजाने का श्रम करते हैं और इस श्रम के कारण अछूत भी समझे जाते हैं।

उत्तराखंड में सदियों से समाज के साथ-साथ संगीत में भी यह अपमानजनक विभाजन रहा है। इस परम्परा को तीन-चार दशक पहले तब गहरा झटका लगा जब टी-सीरीज के सस्ते कैसेट और टेप-रिकॉर्डर ने देशज संगीत का बड़ा बाजार निर्मित किया। उत्तराखंड में भी स्थानीय संगीत और कालाकारों की माँग बढ़ गई और देखते ही देखते चंद दशकों में सारा परिदृश्य ही बदल गया। संगीत में आर्थिक संभावनाओं को देखते हुए अब सवर्ण भी ‘अछूत संगीत’ के पारंगत बन गए और लोक परंपरा की जगह बाजार के लिए तैयार या कहें तो बिकाऊ संगीत ने ले ली। यह शुद्ध रूप से व्यावसायिक गायन है, जिससे म्यूजिक कम्पनियाँ मोटा मुनाफ़ा कमाती हैं और स्थानीय ‘सेलेब्रिटी कलाकार’ अच्छे पैसे लेकर स्टेज शो करते हैं। दरअसल गीत-संगीत नहीं बल्कि इन्हें श्रोता तक पहुँचाने की बाज़ार आधारित पद्धति इसे व्यावसायिक बनाती है। इसमें ‘लोगों की पसंद’ को किसी भी सांगीतिक मर्यादा से ऊपर समझा जाता है।

उपर्युक्त परिभाषा के परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज बदली हुई सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में कुमाउँनी लोकगीतों का स्थान नये व्यावसायिक गीतों ने ले लिया है। ये स्थानीय बोलियों में लिखे गये ऐसे गीत हैं, जिनका परम्परागत जीवनशैली या वास्तविकता से मुश्किल ही कोई सम्बंध है।

क्या आप ये कहना चाहती हैं कि बोली विशेष में लिखने भर से कोई गीत लोकगीत नहीं हो जाता?

यह एक अहम सवाल है कि बोली विशेष या परंपरागत धुन में रचे नये गीत क्या लोकगीत की श्रेणी में आयेंगे? यह प्रश्न आज रचे जा रहे कुमाउंनी गीतों के संदर्भ में महत्वपूर्ण हो गया है। कुछ गीतों की बानगी देखिये-

नैनताल की मधुली हिट म्यारा दगड़,
घुमि आलि धारचूला लैन मा।
धारचूला बे गाड़ी चली, कुमाउं हिलेमा,
तू छ मेरी मयादार, तू मेर दिले मा।

या

हल्द्वानी बाजार मा तेरी झुमका गिरी गो
झुमका उठुनै मा दुप्पटा गिरी गो
पतली कमर तेरी मारी छै लटैक,
बाजार हिटै छ जब लगैं छ ठुमुक
ठुमका लगुन में तेरी झुमका गिरी गो,
झुमका उठुनै मा दुप्पटा गिरी गो

ऐसे गीतों की फेहरिस्त काफी लम्बी है। ये गीत कहीं से भी लोक जीवन से जुड़े हुए नहीं हैं। सिर्फ बोली के आधार पर इन्हें लोकगीतों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। बाजार को ध्यान में रखकर लिखे ये गीत व्यावसायिक गीत कहे जा सकते हैं। पेशेवर कलाकारों द्वारा सचेत ढंग से बाजार के लिये गाये जाने वाले ऐसे गीतों को व्यावसायिक या बाजारू गीत कहा जा सकता है। इनकी लोकप्रियता के आधार पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि ये लोक की मनोदशा का कहीं ज्यादा प्रतिनिधित्व करते हैं। इन गीतों में स्त्री भोग्या या पुरुषों के इशारे पर चलने वाली के रूप में दर्शायी जाती है जो वास्तव में एक आक्रामक पुरुषसत्तात्मक मानसिकता के वर्चस्व का ही संकेत करती है।

दिव्या, तो क्या व्यवसायिक गीतों की परम्परा आधुनिकता की उपज है?

जी नहीं, इन्हें आधुनिक तो कतई नहीं कहा जा सकता क्योंकि इनका मूल्य बोध आधुनिक नहीं है। ये बाजारू गीत हैं जो स्त्रियों के प्रति घनघोर सामंती दृष्टिकोण रखते हैं लेकिन अपने अस्तित्व के लिए बाज़ार पर निर्भर हैं। इनसे पहले संगीत की अछूत परम्परा में भी कलाकारों को पारिश्रमिक दिया जाता था। लेकिन वे संगीत श्रमिक भर थे, व्यवसाई नहीं। संगीत मुश्किल से ही उनका पेट भर पाता था। इसलिए बाकी समय उन्हें दूसरे किस्म की मजदूरी करनी पड़ती थी। पुरानी जातीय गायन परम्परा व्यावसायिक नहीं थी।

आज का व्यावसायिक गायन किसी जाति विशेष के दायरे में न रहकर बाज़ार की शक्तियों के हाथों में आ गया है। मुनाफ़ा देखते ही जाति-व्यवस्था के ठेकेदारों ने निचली जातियों के संगीत पर बेशर्मी से कब्जा जमा लिया लेकिन उस समुदाय के प्रति, जिनकी यह विरासत है, जरा भी उदारता नहीं दिखाई। ‘हुड़क्या’ और ‘ढोली’ को  सबसे निचले पायदान पर रखने वाला समाज हुड़के या ढोल को अपनी विरासत बताता नहीं थकता मगर इन वाद्यों को बनाने या बनाने वालों को अपना मानने को तैयार नहीं।

उत्तराखंड के गीत-संगीत में मौजूद यह सामाजिक विरोधाभास स्त्रियों के प्रति उनके नजरिए को समझने में भी मदद करता है। यही कारण है कि उत्तराखंड के इन व्यावसायिक गीतों में पहाड़ी स्त्री की वास्तविक छवि नहीं बल्कि यहाँ के ‘पुरुष मन’ की फंतासी ही दिखाई देती है।

इन व्यावसायिक गीतों में आज की पढ़ी-लिखी स्त्री की छवि के बारे में आप क्या कहना चाहेंगी?

आज पहाड़ की स्त्री बदल गई है। वह पढ़-लिख रही है और अपनी अलग पहचान बनाना चाहती है। वह पुरानी पहचान के दायरे से बाहर आने की जिद पर अड़ी है। उत्तराखण्ड बोर्ड व अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण लड़कियों के साल दर साल बेहतर होते परिणाम इस बात के सबूत हैं। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से घर के सारे काम करने के बाद कई-कई किलोमीटर तय करके स्कूल कॉलेज जाने वाली ये पर्वतीय लड़कियाँ यहाँ के पितृसत्तात्मक समाज को मानो चुनौती दे रही हैं।

मगर लाखों श्रोताओं की पसंद बनाने वाले व्यावसायिक ‘लोकगीतों’ में एक पढ़ी-लिखी कॉलेज जाने वाली, सचेत और मेहनती लड़की की बिल्कुल अलग छवि दिखाई जाती है। ये गीत उसे जिस रूप में पेश करते हैं, उसे देखकर तो यही लगता है कि हमारा पुरुष प्रधान समाज स्त्री की इस नई सशक्त छवि को पचा नहीं पा रहा है। एक बानगी देखिए-

जिन्स पैंट पैरि बे उं छ, बागेश्वर बाजार मा
कॉलेज की भानु त्यार नखरा छन हजार ला
पैदल न जान्यूं कुंछै, बैठि छै तू कार मा
ठंड पाणि न पीनि तू, पी छै कोकाकोला
कोकाकोला पीण है तु, खोज छै होटल

लड़कियों का जींस पहनकर कॉलेज आना, कोकाकोला पीना, होटल में बैठना, कार में जाना उतनी ही सामान्य घटनाएं हैं, जितनी एक कॉलेज जाने वाले लड़के का। दरअसल, पहाड़ी समाज में स्त्री की छवि दिन रात खटने वाली स्त्री की है जो दिनभर काम करके रात में पति की मार खाने के लिये भी तैयार रहती है। ऐसी स्थिति में, पढ़ी लिखी लड़की का स्वतंत्र आचरण, स्त्री-विरोधी मानसिकता वाले समाज के मुँह पर करारा तमाचा है। मगर अपनी कुंठाओं की अभिव्यक्ति वह इस तरह के गीतों में कर बैठता है-

जिन्स टॉप चल बेरिया त्यार दुप्पटा कां हराय
इस्क बिस्क नी पछ्यांण छी, हैल्लो हाय नी जाणै छी
इन्टर पास कर बेरिया त्यार दुप्पटा कां हराय
जिन्स टॉप पैरिरयां जब कॉलेज उं छी तू
आ रईं गौं का छोरा त्वे देखियां रुं छी
इण्टर पास कर बेरिया त्यार दुप्पटा कां हराय

कॉलेज जाने वाली एक लड़की को यह उलाहना दिया जा रहा है कि इण्टर पास कर लेने के बाद उसका दुप्पटा कहाँ चला गया। पहले तो वह कुछ नहीं जानती थी और अब वह सब जान रही है। गाना एक इण्टर पास लड़की की उपलब्धियों पर भी तो बन सकता था!

दरअसल, हम जिस समाज की बात कर रहे हैं वहाँ अभी भी लड़कियों के प्रति नजरिया सामंती ही बना हुआ है। लकड़ियां बेशक पढ़ रही हैं, नौकरी कर रही हैं लेकिन लोगों की यह मानसिकता कि ‘पढ़-लिखकर भी पकानी तो रोटियां ही हैं’ नहीं बदली है, इसीलिये लड़कियों की उपलब्धियाँ खुशी या प्रेरित करने के बजाय भय पैदा करती हैं। स्त्री विरोधी मानसिकता से लैस इन गानों पर महिलायें तक आपत्ति दर्ज नहीं करती। एक महिला गायिका द्वारा गाया ये गीत देखिये-

मैं सलवारा का निच पैंण छु एड़ी सैंडिल
पड़न जा रयूं मी डिगरी कॉलेज
कानि में पर्स हाथ मोबाइल मेरो फैसन
कुमाउं हिलै का लौंडा
कातिल नजर मेरी हिरनी सी चाल
रूप मेरि देखि बेर मचनी बबाल

एक स्त्री गायिका भी अगर अपने कॉलेज जाने को लड़कों को रिझाने, फैशन तक ही सीमित रखे तो यह पितृसत्तात्मक समाज की गहरी जड़ों का परिचायक है जिसे उखाड़ फेंकना इतना भी आसान नहीं है।

दिव्या, पढ़ लिख कर अनेकानेक लड़कियाँ नौकरी करती हैं। उनके प्रति समाज का रवैया बड़ा विचित्र हैं। लोग ऐसी कामकाजी बहू चाहते हैं जो चूल्हा बर्तन भी संभाले। इन व्यावसायिक गीतों में कामकाजी स्त्री की छवि के बारे में आपकी क्या राय है?

आज के दौर में महिलायें आर्थिक रूप से भी घर परिवार को चलाने में सहयोग दे रही हैं। ऐसा करते हुए वे दोहरी भूमिका अदा करती हैं। घर की सारी जिम्मेदारी वहन करते हुये नौकरी भी कर रही हैं। नौकरीपेशा महिलाओं पर बने कुमाउँनी गीत उनकी क्या छवि प्रस्तुत कर रहे हैं, देखिये-

पाठि दवात भूलि आई, चलि कॉपी पेन्सिल
जब भटे शहर चेलि, म्यार गौं में मैडम, चलि ग्ये नकल
म्यार नना की मर ग्ये अकल

नौकरीपेशा महिला की कार्यप्रणाली पर व्यंग्य करता ये गीत असल में महिलाओं की कार्यक्षमता पर आक्षेप करता प्रतीत होता है। जब से शहर की लड़की मैडम बन के आई है, गाँव में नकल शुरू हो गई है, बच्चों की अक्ल मर गई है। सरकारी स्कूल की अध्यापिकाओं पर कटाक्ष करता एक उदाहरण और है –

आय हाय हाय हाय मैडमैक साडि़
कभै जरी कभी सिल्की कभै पिंक
कभै मिल्की कभै बनारसीक बारी
खुटा हिल वाल सैंडिल, टक टकाटक चाल
हाथ मेंहदी नगों में पौलिस खाप चिलगम खुशबूदार
कटि बाल असरदार, थोर लिपिस्टिक लाल लाल
आँखों में काजल, हाथ में रुमाल, सेन्टेक खुशबू मजेदार
जो लै देखूँ देखते रूं,
घर में घरवाल, गौं में गूं वाल, इसकूल में ननतिनैक बारि
आय हाय मैडमैक साड़ि

यहाँ एक प्रश्न खड़ा होता है कि आर्थिक रूप से सशक्त महिलाओं का अपने वेतन का कुछ हिस्सा खुद पर खर्च करना क्या हमारे गीतकारों को रास नहीं आ रहा है? आधुनिक व्यावसायिक गीत कामकाजी स्त्री की भूमिका को साफ तौर पर नकार रहे हैं। ये गीत नौकरीपेशा महिलाओं की आधुनिक जीवन शैली पर सवाल खड़े कर रहे हैं तो कभी उनकी कार्यकुशलता पर। महिलाओं की दोहरी भूमिका का वर्णन यहाँ भी प्रशंसात्मक न होकर व्यंग्यात्मक ही है। गौरतलब है कि अध्यापिकाओं को अक्षम बताने वाले ये गीत/कविताएँ अक्षम या भ्रष्ट अध्यापकों पर कोई टिप्पणी नहीं करते। गोया, यहाँ की शिक्षा व्यवस्था की बदहाली सिर्फ स्त्रियों के अध्यापक बन जाने की वजह से है।

और घरेलू स्त्री की छवि? क्या वो इस टीका टिप्पणी से बच पाई हैं?

पहाड़ों में आज भी महिलायें घरेलू काम-काज के अलावा खेती-बाड़ी का बड़ा हिस्सा संभालती हैं। जो महिलायें खेती से नहीं जुड़ी हैं वे घर परिवार, बच्चों के पालन पोषण जैसे महत्वपूर्ण कार्यों को अंजाम देती हैं। लेकिन ये गीत घरेलू महिला की कामचोर छवि को पेश करते हैं। एक बानगी दृष्टव्य है-

उठ जा रितु
आखों में तेरी नींद छ कैसी, नीदों में तेरी स्वीन छ कैसी
गौं चेलि ब्वारि जंगल जा बेर घास काटि बेर उं घरि ऐ ग्ये
गोरू भैंस तेरि अड़कन लै ग्यै, उठ जा वे रितु कस नींद ऐ ग्ये
काम्धाम् दिन नींद में रौली, औनेरा दिन कैसे काटौली
उठ जा रितु

आज भी पहाड़ों में हजारों रितुएँ रोज सुबह जल्दी उठकर जंगल जाती हैं। गाय-भैस, खेत की देखभाल के साथ-साथ घर का सारा काम करती हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वह दिन-रात मशीन की भांति खटती रहें। हमारे समाज की यह सोच आज भी नहीं बदली है। अगर किसी कारणवश वह ऐसा नहीं कर पाती तो अवहेलना व अपमान की पात्र बनती हैं। महिलाओं की आरामतलबी (जो कि अमूमन होती नहीं) को यह समाज झेल नहीं पा रहा है। ये गाने इसी सोच की उपज हैं-

घास कटान छोड़ि भौजि, खेति पाति में ध्यान तोड़ि
ब्यूटि पारलर मां घुमणि, डिस्को साड़ि मा घुमणि

या

भौजी जा रे दाज्यू बिउटि पारलर मा
हे भौजी, नी आणु त्वेके खाण बणुलो, नी आग जलुणों
नी आणु त्वीके घास कटुनो, नी चुल्ह लीपुणो
अरे कब तक पड़ी रौली

या फिर

भौजि खांणे होटल मा, ऐ रे मौज मा
मडुवा रोटि भुल ग्ये छै, दाज्यू कमै मां

परिवार को व्यवस्थित रूप से चलाने में महिलाओं का योगदान उतना ही महत्वपूर्ण जितना पुरुष का। लेकिन घरेलू महिला की भूमिका को यह कहकर खारिज कर दिया जाता है वह कुछ नहीं करती। पति की कमाई में ऐश करती है। ये गाने इस सोच के जीवन्त उदाहरण हैं। व्यावसायिक कुमाऊँनी गीतों ने घरेलू महिलाओं की परम्परागत छवि को बदला है, मगर जो नई छवि पेश की है उसका वास्तविकता से दूर-दूर तक संबंध नहीं है।

दिव्या, क्या कुछ और खास पक्ष भी हैं जो अपनी ओर आपका ध्यान आकर्षित करते हैं?

मुझे इन व्यावसायिक गीतों में टेक्नॉलजी सैवी स्त्री की छवि बड़ी अटपटी लगती है। पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी मोबाइल, इंटरनेट का इस्तेमाल भी बढ़-चढ़कर कर रही हैं। पुरुषों के लिए सब जायज है और सभी टीका टिप्पणियाँ स्त्रीयों पर केंद्रित हैं। उदाहरणार्थ –

हाथ में तेरो मोबाइल, अंगरेजी इसटाइल
भौजी रेसमा, तू भल देखि छ, भल देखि छ फेसबुक मा

भौजी रेशमा का मोबाइल फेसबुक इस्तेमाल करना उतना ही सामान्य है, जितना किसी भी दाज्यू का इस्तेमाल करना। फिर भी केन्द्र में एक महिला को ही रखा जाता है। उसके उठने-बैठने, खाने-पीने से लेकर किसी भी अत्याधुनिक वस्तु के प्रयोग को समाज उपहासपूर्ण नजरिये से देखता, समझता और परखता है। जो मोबाइल या फेसबुक एक पुरुष के लिये उपयोगी होता है, वही स्त्री के लिए अनुपयोगी कैसे को सकता है।

बात यह है कि महिलाओं ने जब भी बदलते समय के साथ खुद को बदलने की कोशिश की है, येनकेन प्रकारेण उसका विरोध होता रहा है। व्यावसायिक कुमाऊँनी गीतों में यह विरोध टेक्नोशैवी यानि टेक्नॉलजी के प्रति आग्रही युवतियों पर फब्तियों के रूप में सामने आ रहे हैं। इन गानों से एक युवती की ऐसी छवि निर्मित होती है जो सिर्फ स्टाइल मारने के लिये ही फोन का इस्तेमाल करती है।  एक कुमाउंनी गायक का पहाड़ों में मोबाइल फोन के बढ़ते प्रचलन पर एक गीत है-

हैल्लो हैल्लो कस चलि रे मॉडर्न जमाना,
मोबाइल फोन ले चलायो ऐसो फैशन

इस गीत की अगली पंक्ति को गाँव की स्त्रियों से जोड़ते हुये उनका मजाक बनाया गया है-

देश परदेश छोड़ो अब देखो पहाड़ मा,
चेलि ब्वारि बाजार घुमणि काम जाओ भाड़ मा,
अधिकटा पैरन देखो छाड़ि शरम लाज,
पढ़ी लिखि ब्वारि ए ग्ये को काटला घास

बिना किसी प्रसंग के हर गाने में महिलाओं को लेकर भद्दी टिप्पणियाँ करना बाजारू कुमाऊँनी गीतों की फितरत बन गयी है। ऐसे हिट गीतों की फेहरिस्त काफी लम्बी है। कुछ उदाहरण और देखिये-

गल्स कॉलेजे की रविना, पड़ि रे म्यार पछिने
फोन में लम्बी बातें, कभि करि छे मैसिजे
मेरि बेचैनी बढ़ि ग्ये, वी के नंबर दी बेर

या फिर

फेसबुक का चस्का त्वेकनि चढि़ ग्यो
भेज दे तू रिकवेस्ट मैं एकसेप्ट करूंलो
जब त्वेकणि मैं ऑनलाइन देखुंल
बीडियो कौलिंग त्यार संग करूंलो

लड़कियों का मोबाइल, फेसबुक, व्हाट्स एप यूज करने को एक विशेष घटना बनाकर इन गानों के माध्यम परोसा जा रहा है। ये गाने दिखाते हैं कि लड़कियाँ केवल लड़कों को रिझाने के लिये इन चीजों का इस्तेमाल कर रही हैं। इसने महिलाओं को बिगाड़ दिया है। जबकि सच्चाई यह है कि टेक्नोलाजी के दुरुपयोग के मामले में पुरुष उनसे कहीं आगे हैं। टेक्नोशैवी महिलाओं की ऐसी छवि समाज की पिछड़ी सोच की परिचायक है।

दिव्या, अगर स्त्री के पड़ने लिखने, नौकरी करने या टेक्नॉलजी इस्तेमाल करने से गीतकार इतने असहज हैं तो आत्मविश्वास से भरपूर एक आधुनिक स्त्री को वो कैसे देखते हैं?

व्यावसयिक गीतो में आत्मविश्वास से भरपूर आधुनिक स्त्री का सशक्त परिवर्तित रूप नदारद है। स्टीरियो टाइप किस्म के इन गानों में स्त्री का आधुनिक रूप फिकरों के रूप में ही नज़र आ रहा है-

ज्वान बुड़ों नजर, त्वीलै करि है खराब,
ओहो दीपा त्यार मिजात ने बिगाड़ो पहाड़
लान्ग टाप पैरि बे घुमणै बजार,
दीपा त्यार मिजात ने बिगाड़ो पहाड़
आंख पैरनि काल चसमा, टपटपान तेरि चाल,
जबे पड़ि लौंडों नजर, लौंड मौंडा में बड़ि बबाल
हिलहिलान तेरि कमर, मस्त फिगर बालि उमर
फूल जैसि तेरि मुखड़ि, ज्वान छोरों की पड़ि नजर

आधुनिक स्त्री अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हुई है। उसके रहन-सहन, पहनावे से लेकर आचरण तक में यह जागरूकता देखी जा सकती है। बेशक यह बदलाव समान रूप से पुरुषों में भी देखा जा सकता है। मगर समाज भी क्या महिला अधिकारों के प्रति जागरूक हुआ है? ऊपर दिये गाने से यह बात साफ तौर पर जाहिर हो रही है कि आत्मविश्वास से लबरेज आधुनिक स्त्रियों की उनके समाज में जगह नहीं है। लड़कियों के आधुनिक कपड़े पहनकर बाहर निकलने, लड़कों से बोलने, उनके साथ घूमने इत्यादि कार्य कलापों से पहाड़ बिगड़ रहा है। जवान बूढ़े सारे मर्दों की नजर खराब हो रही है। यह गीत इस बीमार मानसिकता का पोषक है कि आधुनिक कपड़े पहनने के कारण लड़कियों के बलात्कार होते हैं। गौरतलब है कि ऐसे गीत बहुत बड़ी संख्या में गाये जा रहे हैं-

मेरि मीनु मोटर साइकिल में बैठि बाल उडा़नि
मेरि मीनु जब घुमैछि बाजार त्वेकि लौंड देखनि
हाई फाई तू जिन्स पैरि, बैठि छ बाइक मां
तेरि ज्वानि कब तक रौली मीनू लाइफ मां

जब कोई अन्य पुरुष जीन्स पहनकर मोटरसाइकिल में बाजार घूमता है तो यह घटना उल्लेखनीय नहीं होती है। लेकिन जब कोई लड़की ऐसा करती है तो कानाफूसी शुरू हो जाती है। ये बात गीतों का विषय बनती है और हर गीतकार अपनी अपनी बुद्धि के हिसाब से उसकी चीरफाड़ शुरू कर देता है-

तेरि अधिकटा बिलौज, साड़ि है ग्ये पतली
त्वील हिन्दी फैसन छोड़ि, इंगलिस में बदली

हमारे गायकों की सोच का एक नमूना और देखिये-

कालि जिन्स में तेरि लाल बनियान,
त्यार फैसन देख बेर बुड़ा है ग्ये जवान
अंग्रेजी बाल तेरि कस्मीरी गाल तेरि,
होंठूंणी तू चबूनी जिबड़ी बुड़ काटैनी
ज्वानि कंट्रोल कर, बुड़ों को कै दे सॉरी,
उणैक तंग नि कर, बण जा अब तू मेरी

क्या यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि कुमाऊँ के व्यवसायिक गीत स्त्री को भोग की वस्तु के रूप में प्रस्तुत करते हैं?

जी नहीं। यह विषय तो हिट गानों के प्रमुख विषय है। ये गीत स्त्रियों से अपेक्षा करते हैं कि वे पुरुषों की इच्छानुसार आचरण करें, कपड़े पहनें। इस तरह की सोच पर आधारित एक गाना देखिये-

ऐसी जवानी का गुमान झन कर्यो,
लौंड मौंडों को यूं हैरान झन कर्यो
एक दिन ढल जालि जालि,
जिन्स टॉप मां जवानी तेरी सारी
न दिखा छोरी मै कै अपनो इस्टाइल,
हाथों में छोरी त्यारो कैसो यो मोबाइल
सूट मां छोरी बड़ि लगि प्यारि प्यारि,
अब तू बनि छोरि बाना घस्यारी

महिलाओं के शरीर को परोसते ये गाने स्त्री के प्रति भोगवादी नजरिये को दिखाते हैं और ऐसे ही गाने आजकल हर जगह ट्रेन्ड कर रहे हैं-

पतली कमर मंजू छोरि, चाल बड़ी मस्त छ
कजरारी आंख तेरी गाल जबरदस्त छ
नबंर वन मां तू ही तू छ,
लौंडों का दिल मां हलचल मची छ
जवानी बहार तेरी माल जबरदस्त छ

या

त्यार ठुमका देखि बेर शालू, बुड़ ले है ग्ये ज्वान,
लौंडा मौंडा सब सीटि मारनि, हैरान परेशान

या फिर

हाय रे बाना तेरो रंगीलो फैसन,
रोज आंछि ब्याल बजार घुमण
दगड़ू का साथ छोरी जब आंछि बाजार
त्वेकि देखि देखि रौनि सब दुकानदार
ख्वार में तेरो काल चसम, यो हाथ में मोबाइल
घड़ि घड़ि मैके देखि मार छि इस्टाइल

पुरुषवादी सोच इस बात का भी ख्याल नहीं करती जिस स्त्री का वह वर्णन कर रहा है किस उम्र की है। जहाँ से महिला ने अपनी खुशी, इच्छाओं के बारे में सोचना शुरू किया वहाँ से समाज की घेराबंदी शुरू हो जाती है। ‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम’ की तर्ज पर एक वृद्ध महिला पर तंज कसता एक गाना देखिये-

म्यार आमा है रे फैशन वाली, म्यार बुबू जै रन बजार बल
हे आमा, पचपन उमर आया, फुल ग्ये त्यार बाल
अरे, कस सान सौक आमा यो बुढ़िया काल
अरे, बुढ़ियाकाल आमा, पुन्यू जैसी जूनी
हैल्लो हैल्लो कूं छी आमा, कै कूंनै नी उं छी
चार दिन धुमधाम, तस देखि रौली,
अरे, मुख में चिमड़ पड़ौ, आंखों में हौली

गौर से देखें तो स्त्री के शरीर का इस्तेमाल उसी के खिलाफ किया जा रहा है। ये गीत व्यवसायिक लाभ के स्रोत बनकर रह गये हैं जिसमें स्त्री को वस्तु के तौर पर बेचा जा रहा है। उसका वास्तविक रूप इन गीतों से पूरी तरह नदारद है।

दिव्या, अगर यह पूछें की आपके शोध का निष्कर्ष क्या है तो आप क्या कहेंगी?

मेरा मानना है की व्यावसायिक कुमाऊँनी गीतों में उभरती हुई नई स्त्री के प्रति एक खास तरह का दुराग्रह है। लगभग हर गीत स्त्री देह को पुरुष उपभोग की वस्तु से आगे नहीं देख पाता। अगर इन गीतों को प्रमाण माना जाय तो उनके मुताबिक वर्तमान युग की हर समाजिक बीमारी का कारण पढ़ी-लिखी, आधुनिक होती, स्वावलंबी और कामकाजी स्त्री है।

जब एक ही तरह की छवि अधिकांश गानों में उखेरी जाती है और उसका कोई विरोध नहीं होता तब एक समाज का पूर्वाग्रह साफ नजर आता है। मुझे तो लगता है कि कुमाऊँ के आधुनिक सांस्कृतिक परिवेश का प्रतिनिधित्व करने वाले ये गीत स्त्री सशक्तीकरण को पचा नहीं पा रहे हैं। या दूसरे शब्दों मे कहें तो कुमाऊँ का सांस्कृतिक मन आज भी पूरी तरह सामंती और पुरुषसत्तात्मक है और बदलने को हरगिज तैयार नहीं। उसे स्त्री का आर्थिक तौर पर ज्यादा उत्पादक होना तो आकर्षित करता है लेकिन स्त्री स्वतंत्रता के रूप में वह इसकी कीमत नहीं चुकाना चाहता। इन गीतों में बदलती हुई सशक्त स्त्रियों पर की जाने वाली फूहड़ टिप्पणियाँ उसकी खीज को उजागर करती हैं। समाज बदल रहा है लेकिन लगता है संस्कृति का प्रतिगामी अंग इस बदलाव को स्वीकार कर पाने में असमर्थ है।

नवीन पाँगती
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5 Comments on “व्यावसायिक कुमाऊँनी गीत और स्त्री”

  1. Baut hi umda baat ki,lekin matra ek paksh ko sune uhu nishkarsh bar nahi paucha ja sakta,nischit roop mai in geeto mai kahi na us soch ya nazriye ko dikhta hai jo samaj dekhna chahta hai. Dusre paksh ka bhi jinhone geeto ki rachna ki janna ati awasak hai,uske peeche unki kiya kalpna thi ,tabhi purn roop say niskrash mai paucha ja sakta hai.

    1. अगर गीतों की रचना करने वालों को लगता है की उनका पक्ष भी सुना जाए तो उन्हें अपना पक्ष साझा करना चाहिए। उनकी बात अगर जायज है तो हम उसे भी प्रकाशित करना चाहेंगे।

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