अपने चारों ओर के हालात देख मुझे कबीर की एक रचना याद आ रही है –
“साधो ये मुर्दों का गाँव रे,
पीर मरै पैगंबर मरिहे, मरिहे जिंदा जोगी
राजा मरिहे, परजा मरिहे मरिहे बैद और रोगी
पिछले एक वर्ष से कोरोना के रूप में आई महामारी से उपजे हालातों ने ये साबित कर डाला कि तर्क औए विवेक से दूर होते, हम बड़ी तेजी से काल्पनिक यथार्थ में जीने वाला समाज बनते गए हैं। अभी कुछ समय पहले सोशियल मीडिया में पहाड़ के किसी दूर-दराज़ गाँव में कुछ युवकों से संवाद करती बुजुर्ग महिलाओं का विडियो देख रहा था। अपने स्थानीय देवताओं की ओर इशारा करते हुए वो पूरे आत्म विश्वास से कर रही रही थीं “उनका देवता किसी बीमारी को यहाँ फटकने नहीं देगा। उन्हें मुँह ढकने के जरूरत नहीं। देवता के होते हुए उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता…”। मैदानों में तो ‘कोरोना मैय्या’ जैसी लोकदेवी की स्थापना और पूजा-अर्चना के चर्चे भी होने लगे थे। वैज्ञानिक समझ से इतर ये उनकी आस्था से उपजा आत्मविश्वास बोल रहा था।
दरअसल मानव इतिहास में शायद ही किसी घटना ने समाज और संस्कृति को इतने गंभीर रूप से प्रभावित किया हो जितना कि संक्रामक बीमारियों के रूप में आई महामारियों ने। फिर भी जैसा क्रोसबी कहता है इन ‘भुला दी गई महामारियों’ से हमने कोई सबक नहीं सीखा, और हमेशा की तरह हम हर बार बुरी तरह इनकी चपेट में आते रहे।
एक बार फिर महामारी की दूसरी लहर आ चुकी है। खबरें आने लगी हैं कि इस बार बीमारी दूर-दराज के इलाकों में भी पहुँचने लगी है। दिख रहा है कि इस बार का संक्रमण ज्यादा घातक है और तेजी से पाँव पसार रहा है। आमजन से लेकर तथाकथित धर्मध्वजा वाहकों के इसकी चपेट में आने के साथ-साथ कई मामलों में मृत्यु की खबरें भी मिल रही हैं। हाड़तोड़ मेहनत कर रोज की जिंदगी चलाने वाले समाज का बड़ा हिस्सा घबराहट और भविष्य की आशंकाओं से बेचैन है।
यह ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता कि बीते साल के अनुभवों से हमने क्या और कितना सीखा। हमारी वैज्ञानिक समझ और सूझ-बूझ का आलम यह है कि लगातार मास्क पहनने, शारीरिक दूरी बनाए रखने, हाथ धोने को लेकर किए गए धुआंधार विज्ञापनों के बावजूद नव-धनाद्य और मध्यवर्गीय तबके का एक बड़ा हिस्सा अभी भी घंटे-घड़ियालों, दिए-मोमबत्ती और शादी-ब्याह में आतिशबाज़ी से लेकर नदियों में डुबकी लगाने या फिर तमाम अंधविश्वासों में डूबा महामारी को भगाने की कल्पना में खोया हुआ है।
जहाँ एक ओर छोटे-बड़े कस्बों-शहरों की सड़कों गलियों में कोविड-कर्फ़्यू हटते ही बिना मास्क लगाए अंधाधुंध तरीके से मोटर-साइकिलें, स्कूटी दौड़ाते उत्तेजना भरे युवाओं वाले दृश्य आम है वहीं अस्पतालों में अपने लोगों का इलाज करवाने और जीवन से हाथ धो चुके लोगों के अंतिम संस्कार के लिए बदहवाश भटकते लोग देखे जा सकते हैं।ये चित्र 21वीं शताब्दी में खड़े तथाकथित आधुनिक होते हमारे समाज की सामूहिक चेतना और वैज्ञानिक समझ के साथ साथ राज्य-सत्ता पर न केवल कई सवाल खड़े करते है, बल्कि यह सोचने को मजबूर करते हैं कि आखिर हम लगातार किस तरह का समाज बनते और किस तरह के मूल्य गढ़ते चले जा रहे हैं।
दुर्भाग्यवश हमारी सामूहिक याददाश्त इतनी कमजोर बना दी गई है कि हम पिछली दो शताब्दियों में ही अपने इलाके में फैली महामारियों से सीख लेने के बजाय इस बात को तूल देने और महिमामंडित करने में गर्व महसूस करने लगे हैं कि न तो हमारे यहाँ कोई बड़ी बीमारी आ सकती है और न ही अपनी शारीरिक बनावट, रोग-प्रतिरोधक क्षमता और देवभूमि वासी होने के नाते ईश्वरीय अनुकंपा के चलते हम इन आयातित रोगों से ग्रस्त हो सकते हैं।
यूरोप में प्लेग के बाद हैजे या कौलरा को 19वीं शताब्दी की सबसे गंभीर महामारी के रूप में देखा गया। हालांकि ब्लैक डेथ के मुक़ाबले यह जनसंख्या की दृष्टि से उतनी विनाशकारी साबित नहीं हुई, लेकिन इसने समाज को नए तरीके से सोचने को मजबूर जरूर किया। अटलांटिक महासागर के दोनों ओर के समाजों पर इस महामारी ने गहरा प्रभाव डाला। 1830, 1840 और 1860 की महामारी ने जहाँ यूरोप में सामाजिक असंतोष, आपसी तनाव और झगड़ों को बढ़ाया वहीं समाज को म्युनिसिपल सुधारों की ओर कदम बढ़ाने और सामाजिक वर्गीय संरचना को भी तोड़ने को विवश किया। सरकारें और समाज दोनों ही आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और गम्भीर अनुसंधान की ओर कदम बढ़ाने को विवश हुए। दुर्भाग्यवश भारत जैसे महादेश में जहाँ 19वीं व 20वीं शताब्दी में ऐसी महामारियों से लाखों लोग मारे गए थे, सबक लेने की कोशिश नहीं की गई।
अतीत के कुछ एक प्रसंगों से ही शुरू करते हैं। बात बहुत ज्याद पुरानी नहीं है। इस घटना को बीते अभी दो सौ साल होने जा रहे हैं। 1823 में केदारघाटी में बड़ी महामारी फैली थी। तत्कालीन भारत सरकार के सेनेटरी कमिश्नर जी. हचिन्सन ने 1936 की अपनी रिपोर्ट में इसका विस्तार से वर्णन किया है। वो लिखता है कि यूरोप में प्लेग जैसी महामारी छटी शताब्दी ईसा पूर्व से ही दिखाई देने लगी थी और धीरे-धीरे इसने दुनियाँ की अधिकाँश मानव बस्तियों को अपनी जकड़ में ले लिया था। हालांकि भारत में यह स्थायी रूप से नहीं फैली थी थी, फिर भी यदाकदा ब्रिटिश कुमाऊँ और गढ़वाल में यह उभर आती थी। यूँ तो 1813 तक प्लेग मध्य भारत, राजपूताना कच्छ और काठियावाड़ में फैल चुका था लेकिन 1819 से लेकर 1836 तक मध्य भारत के अधिकाँश हिस्से में इसके ज्यादा प्रसार के संदर्भ नहीं मिलते हैं। खास तौर से यहाँ 1837 इसके बाद प्लेग के फैलने की खबरें आने लगी। ये माना जा रहा था कि इस बार राजपूताना में मेवाड़ के पाली और अजमेर इलाके में यह महामारी लेवोंट से भावनगर, सूरत के तटीय इलाकों से होते हुए यहाँ आई क्योंकि कपड़ों में छापा प्रिंट करने वाले छिप्पी समुदाय के लोग इसके पहले शिकार हुए थे।
अपनी रिपोर्ट में हचिन्सन बताता है कि पश्चिमोत्तर प्रांत के लगभग दस लाख आबादी वाले ब्रिटिश कुमाऊँ-गढ़वाल में यह महामारी जिसे ‘पुटक्या या गोला रोग’ कहा जा रहा था, 1823 में पहली बार दिखाई पड़ी। कुछ इलाकों में यह बाहर से आने वाले लोगों के साथ आई तो दूसरी जगहों में इसका स्वतः विस्फोट होता गया। कुछ लोगों का यह भी कहना था कि यह महामारी हरिद्वार में हुए मेले में पहली बार दिखाई दी। बीमारी का असर इतना गंभीर था कि संक्रमण के 24 से 48 घंटों के भीतर व्यक्ति की मृत्यु हो रही थी और इसके लक्षण मिश्र व सीरिया में फैले प्लेग की ही भाँति थे।
कुमाऊँ कमिश्नर मि. गोवन की रिपोर्ट का हवाला देते हुए 25 अप्रैल, 1836 की रिपोर्ट में हचिन्सन लिखता है कि 1823 में संक्रमित इलाके में पहली बार केदारनाथ में इसकी जानकारी मिली। इस महामारी ने मंदिर के मुख्य पुजारी-रावल को सबसे पहले चपेट में लिया और फिर वहाँ के अनेक पंडे काल के ग्रास बने। धीरे-धीरे यह महामारी घाटी के उन सभी गाँवों में फैल गई जो मंदिर की व्यवस्थाओं से सीधे जुड़े थे। गोवन लिखता है कि स्थानीय लोगों का विश्वास था कि बीमारी के फैलने का एक मात्र कारण धार्मिक व्यवस्थाओं से जुड़े लोगों का पथभ्रष्ट होना था। उनकी धारणा थी कि धार्मिक अनुष्ठानों तथा ‘होम’ आदि के लिए धर्मशास्त्रों में उल्लिखित व्यवस्थाओं का पालन न कर पुजारियों ने एक ऐसा पाप किया है जिसके कारण इस महामारी के प्रकोप के रूप में लोग ईश्वरीय कोप से अभिशप्त हुए हैं। केदार घाटी में इस महामारी से उस दौर में दर्जनों लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी थी। 1837 के आते-आते यह महामारी बधाण परगने समेत पिंडर नदी के उँचाईं वाले गाँवों और 1847 में रामगंगा के स्रोत तक पहुँच चुकी थी। दूधातोली इलाके में 7000 फीट की उँचाईं में बसे सरकोट गाँव की तो समूची आबादी को इसने समाप्त कर दिया था। अगले छः दशकों तक यह महामारी ब्रिटिश गढ़वाल और कुमाऊँ में अपना कहर बरपाती रही और पाँच से छः सौ लोग हर साल अपनी जान गँवाते रहे। 1860 में तो अकेले इस महामारी से पहाड़ के आठ परगनों में 1000 लोगों को अपनी जान से धोना पड़ा था।
1877 में गाँवों महामारी से उत्पन्न हुए हालातों और सामाजिक स्थितियों का जिक्र करते हुए गोरी घाटी में भ्रमण पर निकला डॉ वॉटसन लिखता है कि आलम गाँव की 9 वर्षीया धनुली किस तरह अपने 7 वर्षीय भाई के साथ बीमारी का सामना कर रही थी। “वह बता रही थी कि किस तरह दो महीने पहले (मार्च 1877) उसके माँ-बाप की मृत्यु हो गई थी और कुछ समय बाद एक और भाई चल बसा। पड़ोस के घर में सभी लोग बीमारी से मर चुके थे और जो जीवित बचे वे संक्रमित घरों में आग लगा कर दूसरी जगह चल दिये।“ यही नहीं धनुली यह भी जिक्र करती है कि कैसे वो अपने डेढ़ वर्षीय भाई को एक टोकरी में रख दफनाने गई। और कैसे उसने रात में सियार को अपने मृत भाई को ले जाते हुए देखा। अंग्रेज़ सरकार खुद अचंभित थी कि इतनी शुद्ध हवा और साफ पानी के होते हुए भी पहाड़ी इलाकों में बीमारी तेजी से फैल रही थी।
हमारे धार्मिक विश्वास और महामारियों के फैलाव के अंतर्सम्बंधों को एक और प्रसंग से समझा जा सकता है। 1877 में कुमाऊँ में महामारी की जाँच के लिए भ्रमण पर आया डॉ. रैने सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में लिखता है कि लोग अभी भी अंधविश्वास में डूबे हुए हैं। दस्तावेज़ बताते है कि 19वीं सदी के नवें दशक तक भी लोग और स्थानीय प्रशासन अलग-अलग ध्रुवों में खड़े थे और महामारी के विषाणुओं से फैलने जैसी अवधारणा को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।
1890 में अंततः पहली बार अंग्रेज़ सरकार ने स्वीकार किया कि महामारी का कारण विषाणु है और जनता के स्वास्थ्य प्रति उसका कुछ उत्तरदायित्व है। धार्मिक आस्था और विरोध की परवाह किए बिना हस्तक्षेप करते हुए उसने सख्त कदम उठाने शुरू किए। 1892 में जब एक बार फिर हरिद्वार कुम्भ में हैजे के रूप में फैली महामारी की दूसरी बड़ी लहर ने आबादी के बड़े हिस्से को अपनी चपेट में लिया तो पश्चिमोत्तर प्रांत की सरकार ने तत्काल साहसिक कदम उठाते हुए हरिद्वार कुम्भ मेले में प्रतिबंध लगा दो लाख से ज्यादा श्रद्धालुओं को नगर में प्रवेश करने से रोक दिया था। 1895 में इंडियन मेडिकल गज़ट में छपी रिपोर्ट में ब्रिटिश सर्जन हर्बर्ट ने हरिद्वार कुम्भ में एकत्र हुई भीड को उक्त महामारी को फैलाने का दोषी पाया था। उसके अनुसार 1891 के कुम्भ में 2,69,346 श्रद्धालुओं ने गंगा में डुबकी लगाई थी और इतनी बड़ी संख्या में भीमगोडा और नदी की मुख्य धारा में पवित्र जल से आचमन कर रहे और डुबकी लगा रहे लोगों के कारण हैजे के विषाणु बुरी तरह फैलते चले गए। कुम्भ से ले जाए गए पानी के साथ ये विषाणु अन्यत्र भी चले गए। वह यह भी उल्लेख करता है कि पहले कुछ श्रद्धालु अपने साथ विषाणु लेकर आए और फिर बड़ी संख्या संक्रमित होकर इसे अपने-अपने इलाकों को ले गई। इस तरह कुम्भ से वापस लौटे ग्रामीणों के साथ यह महामारी उत्तराखंड के ग्रामीण अंचल में भी पहुँची। इस बार हैजे से भारत में 46,000 से अधिक लोग मारे गए थे।
1895 में इंडियन मेडिकल गज़ट में छपी रिपोर्ट में ब्रिटिश सर्जन हर्बर्ट ने हरिद्वार कुम्भ में एकत्र हुई भीड को उक्त महामारी को फैलाने का दोषी पाया था। उसके अनुसार 1891 के कुम्भ में 2,69,346 श्रद्धालुओं ने गंगा में डुबकी लगाई थी और इतनी बड़ी संख्या में भीमगोडा और नदी की मुख्य धारा में पवित्र जल से आचमन कर रहे और डुबकी लगा रहे लोगों के कारण हैजे के विषाणु बुरी तरह फैलते चले गए।
मानव इतिहास में 1918-19 में आई महामारी इंफ्लुएंजा या स्पेनिश फ्लू अपने विनाशकारी रूप में 20वीं सदी की सबसे भयावह महामारी थी। इस महामारी से दुनिया में पाँच करोड़ और अकेले भारत में दो करोड़ लोगों के काल का ग्रास बनने का अनुमान है। तीन लहरों में आई इस महामारी में दूसरी लहर सबसे घातक रही थी। प्रथम विश्वयुद्ध में घिरी जर्मन सेना इस कारण अपने अपेक्षित लक्ष्य को नहीं पा सकी थी। कहा जाता है कि विश्वयुद्ध ने इस महामारी को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बड़ी संख्या में सैनिकों के इधर-उधर आने जाने से यह दूसरे महाद्वीपों में भी फैलती चली गई। कुमाऊँ-गढ़वाल में ‘युद्ध-जर’ कहलाई इस महामारी ने अकेले ब्रिटिश गढ़वाल में 30,000 और देहरादून जिले में 18,000 से ज्यादा लोगों की जान ले ली थी।
यह आश्चर्यजनक है कि आखिर क्यों उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में फैली ये महामारियाँ फिर भी भारतीय समाज और सरकारों को उतना उद्वेलित नहीं कर सकी जितना उद्वेलित इन्होंने यूरोपीय और अमरीकी समाज को किया। शायद यह हमारी सामूहिक चेतना (collective consciousness) और वैज्ञानिक समझ का प्रतिफल ही रहा कि महामारियाँ भुला दी गईं और हम इनकी गंभीरता को नहीं समझ सके।
आज एक बार फिर कोरोना के रूप आई महामारी की भयावहता ने सिद्ध कर दिया है कि हम अंधविश्वास और पोंगापंथी के चलते इस विभीषिका के सामने लाचार होते चले जा रहे हैं। अपने अतीत से हमने कुछ सबक नहीं सीखा।
कोरोना काल में उत्तराखंड के पहाड़ों की स्वास्थ्य व्यवस्था – कोरोना के संदर्भ में देखें तो उत्तराखंड के पहाड़ों की स्तिथि डरावनी लगती है। कहीं कोई तैयारी नहीं दिखती। आंकड़ों की माने तो पहाड़ के समस्त जिलों का मिला जुला औसत राज्य के मूल औसत से कम है, जो अपने आप में कम है। ऊपर से पहाड़ी इलाकों में सुविधाएँ अमूमन जिला मुख्यालयों तक ही सीमित है। लोगों को इस बात का रंज हो या न हो, पर पहाड़ों को जरूर इस बात का दुख रहेगा की उसके दोहन शोषण के लिए हम चार लेन सड़क तो ले आए पर हम यहाँ के लोगों को मूलभूत सुविधाएँ न दे सके। आगे पढ़ें…
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महोदय नमस्कार,
वैश्विक महामारीयों पर आपका ऐतिहासिक वृतांत काफी रोचक और ज्ञानवर्धक लगा ।
आपने भुला दी गई पुरानी महामारीयों से सबक न लेने की बात कही .
मेरा यह मानना है कि इतिहास तो सतत् बनने की प्रक्रिया है और मनुष्य की सीमित स्मरण शक्ति और भूलने की आदत, इसलिए इतिहास और इतिहासकार की महत्ता काफी बढ़ जाती है लेकिन विगत की इन महामारीयों के संदर्भ में इतिहासकार पुनः स्मरण का कार्य और जिम्मेदारी बखूबी नहीं निभा पाये ।
दूसरी बात कुछ धर्मावलंबी, अंधविश्वासी अपनी आस्थाओं के चलते महामारी का अपने बौद्धिक और सामाजिक स्तर पर समाधान कर रहे हैं ऐसा तब होता है जब हमारे पास कोई समाधान नहीं हो और हमने जनमानस में चमत्कारिक शक्तियों को प्रतिपादित किया है जो सर्वशक्तिमान मानी, मनायी गई है तो यह सब होना स्वाभाविक ही है ।
जहां तक विज्ञान का सवाल है प्रोटोजोएल और बैक्टेरियल महामारीया अब नियंत्रण में आ चुकी है हां वायरस जनित महामारी का चिकित्साविज्ञान निदान नही ढूंढ पाया है जैसा कि सभी कुछ इवाल्विग है विज्ञान भी है जरुर भविष्य में इस पर भी विजय पा लेंगे।
धन्यवाद…
रिगार्ड्स
प्रो. गिरजा पांडेय जी का शोधपरक लेख,ब्लेक डेथ से लेकर स्पेनिश फ्लू एवं कोविड 19 तक की परिस्थितियों का अवलोकन किया,गज़ेटियर,जनगणना रिपार्ट, मौखिक इतिहास को समेटते हुए ,बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया।सारगर्भित लेख को सलाम,आपको बहुत बहुत साधुवाद।
बहुत ही अच्छा लेख है। यह महामारियों के इतिहास को वर्तमान से जोड़ने वाले चुनिंदा लेखों में एक है, इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
बहुत शोधपरक लेख है. यह लेख बताता है कि हमने महामारियों के इस भीषण इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा. इस प्रसंग को इस समय आगे ले जाने की जरूरत है. आपको इसे वर्तमान आवशयकताओं से जोड़ कर नीति निर्धारकों तक ले जाना चाहिये.
An extraordinary well researched article by Prof. Pande.In the present scenario there is an immense need to have a look on the past history.Its an eye opening article which definitely arouse the interest of bureaucrats n leaders to look back n have some discourse so that some sort of possibilities may be seen.