सच तो यही है कि ज़िन्दगी में काम आने वाली हर चीज़ हम अपने ख़ुद के प्रयास और अनुभव से सीखते हैं। रोज़मर्रा के काम, तमाम कलाएं जो अकसर हमारी पहचान बन जाती हैं और वे सारे पेशेवर हुनर, जिनकी स्कूल या कॉलेज में बाक़ायदा ट्रेनिंग दी जाती है- यानी हमारे कार्यकलापों के सभी क्षेत्रों पर यह बात लागू होती है। फिर भी निजी अनुभवों को वैसी इज्ज़त नहीं मिलती जैसी डिग्रियों को मिलती है। डिग्रियों की असलियत किसी से छुपी नहीं है! वे हमें नया ज्ञान और हुनर तो नहीं ही देती हैं, श्रम की परम्परागत विरासत से भी काट देती हैं। हमारे विद्यालयों/विश्वविद्यालयों में दी जा रही डिग्रियों की गुणवत्ता की पड़ताल करना फ़िलहाल हमारा मक़सद नहीं है। यहां हम सीखने की प्रक्रिया में अनुभवों के महत्व की चर्चा करेंगे और यह जानने की कोशिश करेंगे कि हम इन्हें अपनी उद्यमिता से कैसे जोड़ सकते हैं।
शिक्षा भावी जीवन की तैयारी नहीं, बल्कि जीने की उम्रभर चलने वाली प्रक्रिया है।
जॉन डेवी
वास्तव में अनुभव से सीखना यानी खुद करके सीखना है। यह किसी और को करते हुए देखकर या किसी को सुनकर या किताब पढ़कर सीखने से बिलकुल अलग है। दूसरों को करते हुए देखने, सुनने या किताबें पढ़ने से हमें काम की सूचना भर मिलती है। काम को खुद अपने हाथों से करते हुए अनुभव करना बिलकुल अलग चीज़ है, जिसमें हमारी समस्त ज्ञानेन्द्रियां सक्रिय हो जाती हैं।
स्वयं करके सीखने की प्रक्रिया में सफलता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण असफलता होती है जो सीखने वाले को समझ की गहराइयों में ले जाती है। हमारी परम्परागत शिक्षा व्यवस्था असफलता को अच्छी नज़र से नहीं देखती और दंडनीय समझती है। परिमाणस्वरूप बच्चे गलतियां छुपाने की कोशिश करते हैं और गलत हो जाने के डर से सीखने से वंचित रह जाते हैं।
ऊपर कही गई बातें यूं तो हर विषय पर लागू होती हैं लेकिन फिलहाल हम विज्ञान शिक्षा के ख़ास सन्दर्भ में बात करना चाहते हैं। हम जानते हैं कि स्कूली शिक्षा में विज्ञान की पहचान एक कठिन विषय के रूप में है। विज्ञान की पाठ्यपुस्तकें गूढ़ परिभाषाओं और पल्ले न पड़ने वाले जुमलों से भरी रहती हैं। देखा जाय तो वे किसी न किसी वस्तु, अनुभव या परिघटना से सम्बंधित अवधारणाएं व सिद्धांत हैं, जिन्हें आत्मसात करने के लिए उनका अनुभव अपरिहार्य है। लेकिन कक्षा में अच्छे से अच्छा शिक्षक भी उन्हें भाषा के माध्यम से ही समझाने का प्रयास करता है। नतीज़तन अनुभव से अनभिज्ञ बच्चे भाषा के भंवर में उलझकर विज्ञान से भय खाने लगते हैं। ये वही बच्चे हैं जो अपने निजी जीवन में तमाम तरह के खेल, काम और हुनर बिना किसी शिक्षक या पुस्तक की मदद के बखूबी सीख लेते हैं। ग्रामीण परिवेश के बच्चे तो प्राथमिक कक्षा पार करते-करते खेती, पशुपालन और जंगल से सम्बंधित बेशकीमती जीवनोपयोगी ज्ञान अनुभव के जरिए ही सीख जाते हैं। हस्त-कौशल के मामले में तो वे शहरी वयस्कों को भी पीछे छोड़ देते हैं।
विज्ञान वास्तविक चीज़ों व घटनाओं के पीछे छुपे कारकों को अनावृत करने का एक ज़रिया है। सही समझ हासिल करने के लिए उनके साथ सीधे आमना-सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, अगर हमें मिट्टी कि क़िस्मों के बारे में जानना है तो तमाम तरह की मिट्टियों को देखे, छुए और परखे बगैर केवल लिखे हुए शब्दों के बल पर उन्हें नहीं समझा जा सकता। लिखे हुए शब्द सूचना भर होते हैं। सूचना ज्ञान नहीं देती, ज्ञान का भ्रम पैदा करती है। अनुभूति के लिए वास्तविक अनुभवों की ज़रूरत पड़ती है और अनुभव का गहरा रिश्ता शारीरिक श्रम से है। इसलिए विज्ञान की समझ पाने के लिए वास्तविक अनुभव और अनुभव की ख़ातिर शारीरिक श्रम तो करना ही पड़ेगा।
आज भी विज्ञान की स्कूली कक्षा में एक शिक्षक 45 मिनट का पीरियड लेता है। वह अपना पाठ भाषा के माध्यम से पढ़ाता/समझाता है। ज़्यादा मेहनती शिक्षक ब्लैकबोर्ड में चित्र वगैरह बना लेते हैं। लेकिन हक़ीकत में यह विज्ञान की नहीं, बल्कि भाषा की कक्षा है, विज्ञान तो सिर्फ़ पाठ का विषय है। विज्ञान की असली कक्षा अनुभव-अन्वेषण की कक्षा ही हो सकती है। अपने परिवेश का अवलोकन करना, वैज्ञानिक पद्धति से उसे जांच-परखकर निष्कर्ष निकालना, सीखने की बुनियादी शर्त है, क़िताबी सूचनाओं को रट लेना इसका स्थान नहीं ले सकता। यदि किसी शिक्षक को फूल-पत्तों के बारे में पढ़ाना है तो सिर्फ भाषा, चित्र या विडिओ के माध्यम से बच्चों में असल समझ पैदा नहीं की जा सकती। इसके लिए उन्हें कक्षा से बाहर निकलकर वास्तविक फूल-पत्तों की जांच-पड़ताल करनी होगी।
कक्षा से बाहर बच्चे अमूमन समूह बना लेते हैं और समूह में ही खेलते या अन्य गतिविधियां करते हैं। समूह में रहना मनुष्य की सहज वृत्ति है। हमउम्र बच्चों का इस तरह खुद की पहल पर मिल-जुलकर खेलना, समूह में चीज़ों को खोजना, सीखने की उनकी गति को कई गुना बढ़ा देता है। समूह की अन्वेषण क्षमता अकेले बच्चे की तुलना में बहुत ज्यादा होती है। इस तरह बच्चे जब खेल के माध्यम से सीखते हैं तो उन्हें पता लगता है कि चीज़ों को क़िताब में दी गई भाषाई परिभाषाओं में बांधा नहीं जा सकता। भाषा मनुष्य-जनित एक टेक्नोलॉजी है, एक तरह की वर्चुअल डिवाइस है जो वास्तविक अनुभवों को पूरी तरह पकड़ नहीं पाती। इसीलिए अनुभव की कई परतें भाषा में व्यक्त नहीं हो पातीं। उन्हें पकड़ने के लिए करके देखना पड़ता है। प्रकृति ने मनुष्य को भाषा से नहीं बल्कि ऐन्द्रिक अनुभूतियों के माध्यम से सीखने के लिए तैयार किया है (लर्निंग बाइ डूइंग)।
इस बात को एक छोटे से खिलौने से समझा जा सकता है। इस खिलौने का नाम है- ‘स्ट्रॉ की सीटी’। इसके लिए हमें एक कोल्डड्रिंक वाली स्ट्रॉ और कैंची चाहिए। स्ट्रॉ को फूंकने पर वह बजती नहीं है। बजाने के लिए इसके एक सिरे को दिए गए पहले चित्र के अनुसार क़लम की शक्ल में काट लें। इस तरह कटी नोक को दबाकर थोड़ा पिचकाएं और फिर होटों के बीच दबाकर फूंकें। स्ट्रॉ मोटे स्वर में बजने लगेगी। इसके बाद स्ट्रॉ के दूसरे सिरे को थोड़ा-थोड़ा काटते हुए उसका स्वर जांचते रहें। आप पाएंगे कि स्ट्रॉ जितनी छोटी होती जाती है, उसका स्वर उतना ऊंचा होता जाता है। इस अनुभव से हमें ध्वनि के गुणों के बारे में कुछ ठोस जानकारी मिलती है। वाद्ययंत्रों की लम्बाई से उनके स्वरों का क्या रिश्ता होता है? बांसुरी के संगीत का रहस्य क्या है? ट्रक और कार की आवाज़ के फ़र्क को क्या हम इस अनुभव के आधार पर समझा सकते हैं? लड़के या लड़की के स्वरों में अंतर को हम कैसे समझेंगे? इन सारे सवालों पर इस गतिविधि से मिलने वाले अनुभव को क्या किसी पाठ के माध्यम से हासिल कर सकते हैं?
बच्चे हर तरह के खेलों को अनुभव से सीखते हैं। वे जानते हैं कि किसी बड़े क्रिकेटर की लिखी क़िताब या उसका वीडिओ देखकर वे क्रिकेटर नहीं बन सकते। उसके लिए उन्हें बैट-बॉल लेकर मैदान में उतरना पड़ेगा। हमारी हुनरमंद बच्चियां अपनी मां का हाथ बंटाते-बंटाते किशोर उम्र में ही दक्ष गृहणी बन जाती हैं। मोटर गैराजों में काम करने वाले ग़रीब बच्चे बहुत ज़ल्दी अच्छे मोटर मैकेनिक बन जाते हैं।
इस तरह अनुभव से हासिल समझ, सीखने वाले में आत्मविश्वास पैदा करती है। यह आत्मविश्वास क़िताबी ज्ञान से नहीं मिलता। दुःख की बात है कि हमारी स्कूली शिक्षा अनुभव को पर्याप्त तवज्जो नहीं देती। परिणामस्वरूप क़िताबी सूचनाओं को रटकर अच्छे-से अच्छे अंकों से परीक्षा पास करना ही शिक्षा का अंतिम उद्देश्य बन गया है। जीवन की असल चुनौतियों को हल करने में स्कूली शिक्षा कतई काम नहीं आती है।
यदि हम बच्चों की पाठ्य-पुस्तकों में दी गई विज्ञान की अवधारणों को अनुभव आधारित गतिविधियों में बदलकर बच्चों को ‘खोज’ के लिए प्रेरित करें तो यह शिक्षा को अर्थपूर्ण बनाने की दिशा में एक बड़ा योगदान होगा। यदि हम शिक्षित बेरोजगार युवाओं को विज्ञान सम्बन्धी रोचक गतिविधियों के संचालन का प्रशिक्षण दें तो विज्ञान संचारक के रूप में उद्यमिता की एक नई राह उनके लिए खुलेगी, जो उनकी आजीविका का ज़रिया भी बन सकती है।
ऐसे विज्ञान संचारक चाहें तो मामूली खर्च में अपने घर में एक छोटी सी विज्ञान खोजशाला स्थापित कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें चाहिए एक साफ़-सुथरी खुली जगह जहां 20-25 बच्चे चार या पांच के समूह में बैठकर कुछ सृजनात्मक काम कर सकें। इसके अलावा उन्हें चाहिए कैंची, पेपर कटर, परकार, चांदा जैसे मामूली औजार; फेविकोल, वैक्स कलर, स्केच पेन, पेन्सिल आदि स्टेशनरी और ढेर सारा कबाड़ जो विज्ञान के मॉडल बनाने में काम आ सकता है। ये विज्ञान संचारक स्कूल या समुदाय में अथवा किसी संस्था के साथ मिलकर फीस आधारित विज्ञान कार्यशालाएं कर सकते हैं।
- अनुभव से सीखना - September 14, 2020
वस्तुतः विज्ञान को पढ़ाया जाता है सिखाया नही जाता ।यदि विज्ञान को सिखाया गया होता तो हमारे समाज मे बेहतरीन समरसता होती । इसका एक कारण विज्ञानी की भांति सोच का अभाव और अध्यापक कम कर्मचारी वृती अधिक होना है ।
विज्ञान के कठिन से कठिन प्रश्नों का कॉपी में हल निकल लेना ही आज विज्ञान वर्ग के विद्यार्तियों की मंजिल हो गयी है
बहुत ही उम्दा लेख। वर्तमान में शिक्षा का मतलब सिर्फ अंक साधना ही रह गया है। आपने बिल्कुल सही कहा है सर, विज्ञान को जब तक किताबो से बाहर निकाल कर जीवन से नही जोड़ा जाएगा तब तक विज्ञान बस एक भाषा के रूप में ही रहेगा।
पिछले 20 वर्षों से एक विज्ञान शिक्षिका होने के कारण मैं भी इस नतीजे में पहुँची हूँ कि विज्ञान विषय में मूल्यांकन का आधार लिखित परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के आधार पर न होकर विद्यार्थियों द्वारा समझे गए तथ्यों के आधार पर होना चाहिए। इसके लिए विद्यार्थिथों काे क्या समझ आया (विद्यार्थी द्वारा लिखा गया लेख) , उनके स्वयं के द्वारा बनाए गए प्रश्न जो विद्यार्थियों की संबंधित पाठ के प्रति जिज्ञासा बढ़ाएगें, अन्य विद्यार्थियों के द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने जो उनकी तर्क र्शाक्त बढ़ाएंगे।
Sir mai sikhana chahta per college me sab ratne ko kahte hai class 12pass out
यस सर आपने सही कहा जब तक हम बच्चो को उनके वातावरण से जोड़कर नहीं पढ़ाएंगे तब तक बच्चो में अपना अनुभव नहीं होगा जिससे बच्चे जिज्ञासु नहीं होंगे
इसलिए हमे बच्चो को अपने दैनिक जीवन से जोड़कर सीखना चाहिए हम कोशिश करते हैं कि बच्चे learning by doing से सीखे जो बच्चो को सीखने में बहुत मदद करेगी और बच्चे रुचि के साथ दिखेंगे जिससे बच्चो में आत्मशक्ति का विकाश होगा जिससे बच्चे सीखने के लिए जिज्ञासु होंगे।
आपने सही कहा सर कि हाथों से हमारी समस्त ज्ञानेन्द्रियां सक्रिय हो जाती हैं। साथ ही अनुभव में देखा जाए तो एक ग्रामीण क्षेत्र का बच्चा शहरी क्षेत्र के बच्चे से ज़्यादा अनुभवी होता है।
विज्ञान जैसे विषय को तो भाषा की तरह नहीं बल्कि हाथों से करके ही समझा जा सकता है।
बहुत ही उम्दा लेख है।
आपने सीखने और सिखाने को लेकर महत्वपूर्ण बातों का जिक्र किया है जैसे लर्निंग बाय डूइंग, परंतु यह होता हुआ हमारे आसपास कहीं भी नजर नहीं आता. बच्चों को सिर्फ रटाया जाता है ,ताकि वह ज्यादा से ज्यादा अंक प्राप्त कर सकें .अंक प्राप्त करने की इस दौड़ में असल में बच्चा कुछ सीख ही नहीं पाता. मैं ऐसे बहुत से विद्यार्थियों से मिला हूं जो 80% से ऊपर या 90% से ऊपर अंक लेकर के आए हैं परंतु उनको विज्ञान की बेसिक कॉन्सेप्ट्स भी नहीं मालूम. अब ऐसे अंको से क्या फायदा जब हमने कुछ सीखा ही नहीं. और यही सिलसिला उच्च शिक्षा में भी जारी रहता है बच्चे वहा भी अच्छी डिवीजन और प्रतिशत से ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट होते हैं परंतु वह उस लायक नहीं होते जिस लायक होने होना चाहिए. कारण सिर्फ और सिर्फ यही है कि हमने सिर्फ नंबर लाने के लिए पढ़ा है सीखने के लिए नहीं.अत: हमें आवश्यकता है कि हम बच्चों को ज्यादा से ज्यादा मोटिवेट करें कि बच्चा सीखने के लिए पढ़े, नंबर लाने के लिए नहीं.
बच्चों को विज्ञान समझाने और उनमें एक वैज्ञानिक दृष्टि उत्पन्न करने के लिए एक बहुत ही सार्थक आलेख
उपाध्याय जी आपकी लेखनी से टपकी उम्दा बातों ने दिल बाग-बाग कर दिया। कोई भी बात अनुभव से अथवा स्वयं के करने से सीखी जाती है वह जीवन भर अमिट रहती है। रटी रटाई बातों का क्या ? आभार
वर्तमान रटन्त शिक्षा एवम अर्जित अंकों से ही बच्चे के बौद्धिक मापन के दौर में यह अंतर कर पाना कठिन होता है कि विज्ञान की कक्षा है या इतिहास की। अधिकतर शिक्षक विज्ञान को इतिहास की तरह ही समप्रेषित करते नजर आते है इसमें उनका दोष नहीं क्योंकि हमने पढ़ा ही ऐसे है। आजकल आई सी टी का प्रयोग कर शिक्षक हालांकि वर्चुअल गतिविधि दिखाने का प्रयास कर रहे है जो निश्चित ही फ़ायदेबन्द तो है पर जो ज्ञान विद्यार्थी श्रम कर अनुभव के साथ सीखते है वही भविष्य में उन्हें काम के अनुभव से रूबरू कराकर उपयोगी बनने की दिशा एवम आत्मविश्वाश देता है। निश्चित ही आपके वृहद अनुभवों एवम विज्ञान लोकप्रियीकरण अभियान का लाभ सुदूर सुविधाओ से वंचित बच्चों में आत्मविश्वाश पैदा करने के साथ साथ उन्हें अनुभव आधारित विज्ञान की महत्ता समझाने में सहयोगी बन रहा है।
सूचना-ज्ञान-समझ-अनुभव-बुद्धिमत्ता। बहुत ही सुंदर लेख। सही मायने में भाषा किसी भी विज्ञान के नियम को बड़ी क्लिष्टता से समझाती है ।
A few things to mention:
1) I have nothing to comment upon the current education system, in which the purpose of “education” is completely lost and the “system” is the leftover. The leftover “system” is solely based on a business model, which DOESN’T have to do anything with “education.”
2) This article is written well. It started well, on the later stage, however, got into other sub-areas, such as assessment system, language as a tool, etc. Nevertheless, you connected all the threads nicely to experiential learning at the end, which was helpful to stick to the overall goal of the write-up in entirety.
3) You have a lot to say about several areas of education and learning. Spread it to the world before you get too old to be able to even speak. It would be interesting to hear from you on topics such as language as a tool and instructional scaffolding in more detail.
4) Mention the contact info of Dr. D. D. Pant Science Exploratory or your own for those who would like to learn to begin these exploratories at their places.
My best wishes!!
Please excuse me for writing in English. The article is thought provoking. Irrespective of resources of a school, the method of science teaching remains same. That means the limitation is universal and linked to our world view regarding science education. ThIs alienation Is best reflected to our response to on going pandemic. Now question remains how to universalise the experience based science over the present style. And how to mobilise resources at mass level?
विषय चाहे कोई भी हो , उसमें सीखना टैब तक नहीं हो पाता जब तक कि सीखने की प्रक्रिया में प्राप्त अनुभव हमारे दमझ का हिस्सा न बने। शिक्षाविद इसे संज्ञान कहना पसंद करते हैं। हरेक विषय की प्रकृति और शिक्षणशास्त्र अलग अलग होता है। विज्ञान विषय तो करके, अनुभव ग्रहण करके, अवलोकन, प्रयोग और निष्कर्ष तक पहुंचने के शिक्षणशास्त्र की मांग करता है। इन सभी में बच्चों के द्वारा किया गया मानसिक और शारीरिक श्रम ही बच्चों को अपने अपने अनुभव तक पहुंचने और आत्मसात करने में मदद करता है। दरअसल विज्ञान रटने और सीखने में गहन अंतर है। यह आलेख इस बात को पुख्ता ढंग से रेखांकित करता है। बहुत ही उपयोगी आलेख है।
बहुत ही महत्वपूर्ण और विचारणीय लेख है. जो बताता है कि विज्ञान ज्ञान का मंजिल नहीं, बल्कि ज्ञान तक पहुँचने का रास्ता है. ज्ञान तभी हासिल होगा जब उस रास्ते से होकर गुजरेंगे, उन रास्तों में भटकेंगे तथा उसका अनुभव करेंगे. अन्यथा सिर्फ सूचनाएं ग्रहण करने से ज्ञानी होने का भ्रम मात्र रहेगा.
श्री आशुतोष उपाध्याय द्वारा की जा रही गतिविधियों का मैं चश्मदीद गवाह हूं विगत 3 वर्षों से हम श्री आशुतोष उपाध्याय जी के साथ मिलकर जनपद बागेश्वर के विभिन्न विद्यालयों में विज्ञान गतिविधियां कर रहे हैं ।इसके अलावा हमारे द्वारा डाइट बागेश्वर की प्रशिक्षुओं व एवं शिक्षकों के साथ भी विभिन्न गतिविधियां की गई इन गतिविधियों को देखकर यह अनुभव होता है की यदिविज्ञान को भाषा से अलग किया जाए वह विज्ञान को पढ़ाने से पहले उन चीजों का अनुभव दिया जाए जिन पर हम बात करना चाहते हैं । उसे बच्चे बहुत ही रोचक एवं आनंददायक ढंग से सीखते है।
बात और यह देख कर भी हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिन्हें हम बहुत ही कमजोर विद्यार्थी मानते थे कक्षाओं में उनकी सीखने की तत्परता वह तीव्रता अच्छे अंक लाने वाले बच्चों की तुलना में कहीं अधिक है हमें मानना ही होगा कि विज्ञान पढ़ाने का तरीका और भाषा पढ़ाने का तरीका एक ही नहीं हो सकता विज्ञान को पढ़ाने के लिए हमें छोटी-छोटी गतिविधियां जो बच्चे स्वयं करें और उस पर पांच करें वह बहुत ही महत्वपूर्ण है यह बड़ा शाश्वत है कि
हम खुदा चुंबक पर के खेल दिखाने से केवल ब्लैक बोर्ड में रेखाएं खींच के उत्तर दक्षिण ध्रुव दिखा देते हैं प्रकाश सीधी रेखा में चलता है गांव में बोर्ड में सीधी रेखा से दिखा देते हैं और सबसे बड़ी बात की प्रश्नों की डेट के उत्तर देने पर जो बच्चे अधिक ले आते हैं उनको हम सर्वश्रेष्ठ घोषित कर देते हैं विज्ञान की पढ़ाई बिना अनुभव की नहीं हो सकती है और हम उन्हें विज्ञान के अनुभव कैसे दे सकते हैं उसके लिए आशुतोष उपाध्याय जी द्वारा डाइट बागेश्वर से के साथ मिलकर कुछ हैंड्स ऑन एक्टिविटीज की भी पुस्तिका निकाली गई है अनुभव आधारित विज्ञान कार्यशाला ओं का हमारा अनुभव श्री आशुतोष उपाध्याय जी के साथ बहुत ही आनंददायक रहा है और विज्ञान को समझने पढ़ाने और महसूस करने की एक नई तस्वीर देख पाए है।यह हमारा सभी का कर्तव्य है कि विज्ञान आधारित गतिविधियों को अधिक से अधिक बढ़ावा दें लेकिन यह अत्यंत ही चिंतनीय विषय है कि बड़े-बड़े नामी-गिरामी स्कूलों में भी रटने के आधार पर विज्ञान के परीक्षा में अंक दिए जा रहे हैं और हम उन्हीं बच्चों को अधिक मेधावी और उस व्यवस्था को न्याय संगत मान रहे हैं जिसमें रटने के आधार पर अंक आ रहे हैं और उन्हें ही हम महिमामंडित कर रहे जिस कारण अनुभव आधारित विज्ञान शिक्षण पीछे छूट जा रहा है। और हम विज्ञान में नया कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं अतः हमारा सभी का कर्तव्य है कि हम अनुभव आधारित विज्ञान शिक्षण जिसमें सीखने की प्रक्रिया में बच्चा स्वयं एक प्रतिभागी होता है या हम कहें कि यह ज्ञान का सृजन स्वयं करता है।को बढ़ावा दे। श्री आशुतोष उपाध्याय जी के साथ किई विभिन्न गतिविधियों पर हमने डाइट बागेश्वर में शोध कार्य भी किया और जिसके बड़े ही अचंभित करने वाले परिणाम भी आए और इस शोध कार्यों पर आधारित शोध आलेख हमारे द्वारा एनसीईआरटी की विज्ञान सेमिनार में प्रस्तुत किया गया जिनके द्वारा यह स्वीकारा गया कि यह अनुभव आधारित विज्ञान कार्यशाला अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।
बहुत सुंदर एवं हकीकत को बयां करता एक सुनहरा लेख । आदरणीय आशुतोष जी द्वारा वास्तव में विज्ञान के क्षेत्र में अद्भुत कार्य किए जा रहे हैं । विगत वर्ष उनके द्वारा जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान पिथौरागढ़ डीडीहाट मैं d.El.Ed शिक्षकों के लिए प्रक्रिया एवं गतिविधि आधारित विज्ञान शिक्षण कार्यशाला का आयोजन किया गया । इस कार्यशाला के द्वारा प्रशिक्षुओं को अद्भुत लाभ हुआ। तदोपरांत प्रशिक्षु अध्यापकों को जब इंटर्नशिप हेतु चंपावत एवं पिथौरागढ़ के 60 से अधिक राजकीय जूनियर हाईस्कूलों एवं इंटरकॉलेजों में भेजा गया, वहां अध्ययनरत 3000 से अधिक विद्यार्थियों को प्रत्यक्ष लाभ हुआ ! बेरीनाग ब्लॉक में उनके द्वारा स्थापित ‘बाल विज्ञान खोजशाला ‘ से भी अनेकों शिक्षक एवं विद्यार्थी लाभान्वित हो रहे हैं । जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान पिथौरागढ़ डीडीहाट द्वारा उनके नेतृत्व में कक्षा 6 से कक्षा 8 के विद्यार्थियों हेतु विज्ञान कांग्रेस की 4_4 दिवसीय ,चार कार्यशालाएं प्रस्तावित है। यद्यपि कोविड-19 के कारण अभी विद्यालय बंद है परंतु विद्यालय खुलते ही आदरणीय आशुतोष जी द्वारा उक्त कार्यशालाएं संचालित की जाएंगी। एवं जनपद में वृहद स्तर पर विद्यार्थियों को समझ एवं अनुभव आधारित विज्ञान सीखने का आनंद प्राप्त होगा ।
मैं विज्ञान संचारक के लिए तैयार हूँ अंकल जी
आपके आलेख को पढ़कर गैलीलियो गैलिली का उद्धरण याद आ गया कि “आप एक आदमी को कुछ भी नहीं सिखा सकते हो; आप केवल उसे स्वयं से खोजने में सहायता प्रदान कर सकते हो।”
आदरणीय आशुतोष सर की ये पहल उत्तराखंड में ही नहीं बल्कि देश के विभिन्न प्रान्तों में काम कर रही है और लाखों बच्चों को इसका लाभ भी मिल रहा है। वास्तव में मैंने भी ये अनुभव किया है कि हम विद्यार्थी जीवन में सिर्फ विषयों को रटतें हैं जिससे हम अच्छे अंक हासिल कर सकें उसके बाद हम उन किताबों की तरफ देखते भी नहीं हैं क्यूं कि परीक्षा पास करने के बाद ऐसा लगता है आज हमारे सिर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया। परन्तु अगर हमें भी अनुभव के आधार पर सीखने के पर्याप्त मौके दिए जाते तो शायद हमें किसी भी concept की सूचना के बजाय उसका हमें स्थायी ज्ञान होता जो हमारे मस्तिष्क पर अपनी अमिट छाप बना पाता और हम उस ताउम्र नहीं भूल पाते। मुझे भी आशुतोष सर के सानिध्य में लगभग साढ़े तीन वर्ष काम करने का मौका मिला जिसमें मैंने कई विद्यालयों के हजारों बच्चों के साथ सर के निर्देशन में अनुभव आधारित विज्ञान की कार्यशालाएं एवं विज्ञान मेले आयोजित किए जिसमें वास्तव में बच्चों की विज्ञान के प्रति रुचि को देखकर आश्चर्य और खुशी भी । और ऐसा सोचने पर मजबूर होता काश! बच्चों को सीखने के लिए ऐसे मौके दिए जाते तो बच्चे पढ़ाई से जी नहीं चुराते बल्कि पढ़ाई के लिए उनकी जिज्ञासा और बढ़ती. सच कहूं मै भी अपने बारे में तो मुझे भी विज्ञान कि सच्ची समझ भी सर ने ही दी और विज्ञान की जटिल शब्दावली का हल कैसे करके सरल हो जाता है कि जब तक हम खुद से उस कार्य या प्रयोग को नहीं करते नहीं समझ सकते । मेरे भी विज्ञान के सारे concept स्पष्ट तभी हुए जब मैंने भी विज्ञान कि कार्यशालाओं में प्रतिभाग किया और सर की जी कार्यशैली है वो तो किसी को भी अपनी और आकर्षित कर सकती है।तभी से मुझे विज्ञान के प्रति बहुत रुचि पैदा हुईं और बहुत आनंद आता है । मै कोटि कोटि धन्यवाद देता हूं सर को उनके इस भागीरथ प्रयास के लिए जो विज्ञान की
इस पहल को हर बच्चे तक पहुंचा रहे हैं जिससे बच्चो में वैज्ञानिक सोच विकसित हो रही है और विज्ञान विषय को सहजता से सीख रहे हैैं।