कोरोना के संदर्भ में देखें तो उत्तराखंड के पहाड़ों की स्तिथि डरावनी लगती है। कहीं कोई तैयारी नहीं दिखती। अखबारों की मानें तो अल्मोड़ा में 32 वेनटीलेटर हैं पर उन्हें चलाना किसी को नहीं आता। कोरोना के पिछले दौर में आक्सिजन प्लांट के लिए प्रस्ताव व पैसा पास हुआ और काम तब प्रारंभ हुआ जब दिल्ली कोविड के आग में धधक रही थी। भला हो उस एक व्यक्ति का जो महीनों से अल्मोड़ा जिले की सारी टेस्टिंग संभाल रहा है। ऐसे ही कुछ लोगों के कंधों पर सारी व्यवस्था टिकी है। जितना सुनने में आता है उससे तो यही लगता है की अन्य पहाड़ी जिलों की स्तिथि भी कुछ ऐसी ही है। लोगों से बात करने पर यह भी पता चलता है की राज्य में लोगों की आवाजाही में कोई खास रोकटोक नहीं है। कान्टैक्ट ट्रैसिंग की तो क्या ही कहें! जिस राज्य ने कोरोना को कुम्भ का आक्सिजन दिया उससे और आशा भी क्या की जा सकती है।
इधर कोविड के इलाज के लिए जरूरी आक्सिजन युक्त बेड और आईसीयू बेड के बारे में जानकारी आखिर सरकार ने छाप दी। इसमें क्या जानकारी सही है और क्या गलत इसका पता नहीं पर चलिए मान लेते हैं इस संकट की घड़ी में शायद झूठ बोलने से कतरायेंगे लोग (हालांकि ये अलग मुद्दा है बहस का)। सरकार की वेबसाईट पर मई 8, 2021 को दिए गए आंकड़ों का विश्लेषण करें तो यह निष्कर्ष निकलता है।
समस्त उत्तराखंड में –
आक्सिजन युक्त बेड प्रति 10,000 व्यक्ति – 4.76
आईसीयू बेड प्रति 10,000 व्यक्ति – 0.83
मैदानी जिलों में (नैनीताल, देहरादून, हरिद्वार, उधम सिंह नगर)
आक्सिजन युक्त बेड प्रति 10,000 व्यक्ति – 8.12
आईसीयू बेड प्रति 10,000 व्यक्ति – 2.09
पहाड़ी जिलों में
आक्सिजन युक्त बेड प्रति 10,000 व्यक्ति – 3.26
आईसीयू बेड प्रति 10,000 व्यक्ति – 0.27
समस्त जिलों की स्थिति (प्रति 10,000 व्यक्ति)
जिला | आक्सिजन युक्त बेड | आईसीयू बेड |
अल्मोड़ा | 2.44 | 0.06 |
टिहरी गढ़वाल | 4.56 | 0.11 |
चमोली | 3.19 | 0.15 |
बागेश्वर | 4.39 | 0.23 |
रुद्रप्रयाग | 4.95 | 0.25 |
पिथौरागढ़ | 3.87 | 0.41 |
चंपावत | 3.08 | 0.46 |
हरिद्वार | 2.73 | 0.56 |
उत्तरकाशी | 2.88 | 0.76 |
नैनीताल | 8.05 | 1.07 |
पौड़ी गढ़वाल | 5.94 | 1.16 |
उधम सिंह नगर | 5.57 | 1.33 |
देहरादून | 10.18 | 4.26 |
इन आंकड़ों में एक और हास्यास्पद तथ्य ये है की सर्वाधिक हॉस्पिटल बेड (बिना आक्सिजन वाले) गैरसैण में है। एक जगह पर इतने अधिक बेड (685 बेड) उत्तराखंड और कहीं भी नहीं है। शुक्र है इनमें अभी आक्सिजन सप्लाई नहीं है अन्यथा गैरसैण देखते ही देखते सचमुच की राजधानी बन जाती!
एक जगह में सबसे ज्यादा, 685 बेड, हैं गैरसैण में। शुक्र है इनमें अभी आक्सिजन सप्लाई नहीं है अन्यथा गैरसैण देखते ही देखते सचमुच की राजधानी बन जाती!
इन आंकड़ों से जो दूसरा तथ्य सामने आता है वो यह है की पहाड़ी इलाकों में ये सुविधाएँ अमूमन जिला मुख्यालयों तक ही सीमित है। मसलन अल्मोड़ा जिले के समस्त आईसीयू बेड जिला मुख्यालय में है। बागेश्वर, चंपावत, चमोली, टिहरी गढ़वाल व उत्तरकाशी का भी यही हाल है। इतने बड़े जिलों में दूरस्थ गाँवों से जिला मुख्यालय पहुँचने तक कितनी साँसे टूट जाती हैं इस तथ्य से कोई अनभिज्ञ नहीं है, सरकारें भी!
आँकड़े यह तथ्य भी उजागर करते हैं की पहाड़ के समस्त जिलों का मिला जुला औसत राज्य के मूल औसत से कम है। पौड़ी गढ़वाल को छोड़ सभी जिलों का निजी औसत भी राज्य औसत से कम है। पौड़ी गढ़वाल के अपवाद का कारण श्रीनगर मेडिकल कॉलेज है। ऐसे में कोई कैसे कह सकता है की उत्तराखंड एक पहाड़ी राज्य है?
अमूनन लोगों को लगता है की उत्तराखंड, या उत्तराखंड जैसे पृथक पहाड़ी राज्य, की चाहत का कारण भावनात्मक है। कई लोगों को लगता है की यह चाहत एक साँस्कृतिक पहचान को बचाए रखने की पहल है। साथ ही साथ लोग यह भी मानते हैं की ऐसे राजनैतिक पहल पहाड़ के दूरस्थ स्थानों को वो लाभ दिलवायेंगे जो आज तक वहाँ पहुँच ना सके। पर ऐसी सोच रखते हुए हम अक्सर उन कारणों को अनदेखा कर देते हैं जिनके कारण आजादी के कई दशकों के बाद भी पहाड़ मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं।
मेरा मानना है की पहाड़ों का मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहने का मुख्य कारण जनसंख्या घनत्व है। जहाँ से वोट नहीं, वहाँ से चोट नहीं अतः छुटभय्या नेताओं नेत्रियों के सिवा पहाड़ की राजनीति से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। पहाड़ों में मैदानों सा घनत्व संभव भी नहीं हैं। कुछ मूलभूत सुविधाओं के बिना बड़े शहर बस नहीं सकते। और बसने भी नहीं चाहिए क्योंकि पहाड़ों में इन शहरों का बोझ ढोने की क्षमता नहीं है।
जैसे जैसे जनसंख्या बढ़ती जाएगी, मैदानी इलाकों का घनत्व और बढ़ेगा जिसकी वजह से उन क्षेत्रों से और अधिक जन प्रतिनिधि विधान सभा व लोक सभा में जाएंगे। पहाड़ बस मुद्दा बनाने के लिए थे और शायद मुद्दा ही रह जायेंगे, जब तक की मैदानी भागों को उत्तराखंड से हटाया ना जाए या फिर जन प्रतिनिधित्व की नीतियाँ बदले।
ऊपर से परेशानी यह भी की निजीकरण का फैलाव भी राजनीति की तरह ही होता है। जहाँ बाजार है वहीं अस्पताल होगा। निजी व सरकारी संस्थाएँ ये मानते हुए जवान हो गईं की पहाड़ की शुद्ध हवा खाने वाला पहाड़ी बीमार नहीं पड़ता। इसलिए एक मामूली हड्डी जोड़ने के लिए भी पहाड़ों को मैदानों की ओर जाना पड़ता है। शुक्र है दिल का दौरा कम ही लोगों को पड़ता है वरना मैंने खुद देखा है दिल के मरीज को 7 घंटे का सफर कर मैदानों को जाते हुए ताकि जान बच सके। ये मसला दिल्ली, मुंबई, लखनऊ का होता तो अखबारों में आग लग जाती। यहाँ अखबार जाड़ों की आग सुलगाने के लिए ही इस्तेमाल होते हैं।
लोगों को इस बात का रंज हो या न हो, पर पहाड़ों को जरूर इस बात का दुख रहेगा की उसके दोहन शोषण के लिए हम चार लेन सड़क तो ले आए पर हम यहाँ के लोगों को मूलभूत सुविधाएँ न दे सके। हम तो पहाड़ी राज्य की राजधानी तक तो पहाड़ न चड़ा सके क्योंकि ‘स्वर्ग’ तो मैदानों में ही बसता है। पहाड़ तो महज कहने के स्वर्ग हैं जहाँ उसके हितैषी तक नहीं रहते!
‘भुला दी गई महामारियों’ से हमने कुछ नहीं सीखा – आज एक बार फिर कोरोना के रूप आई महामारी की भयावहता ने सिद्ध कर दिया है कि हम अंधविश्वास और पोंगापंथी के चलते इस विभीषिका के सामने लाचार होते चले जा रहे हैं। अपने अतीत से हमने कुछ सबक नहीं सीखा। शायद यह हमारी सामूहिक चेतना और वैज्ञानिक समझ का प्रतिफल ही रहा कि महामारियाँ भुला दी गईं और हम इनकी गंभीरता को नहीं समझ सके। आगे पढ़ें…
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