इतिहास बताता है कि दुनिया को तबाह करने वाली महामारियाँ हमेशा नए-नए रूपों में मानव सभ्यता पर हमला करती रही हैं और हर बार मनुष्य इसे किसी ईश्वरीय प्रकोप या अपने पड़ोसी द्वारा किए गए षडयंत्र से जोड़ कर देखता रहा है। 438 ईसा पूर्व की बात है। पेलोपोनेशियन युद्ध के समय एथेंस में प्लेग फैला और बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे। ग्रीक इतिहासकार थ्यूसीडाइडस अपनी किताब पेलोपोनेशियन वॉर में बताता है कि एथेंस में लोगों के एक हिस्से का विश्वास था कि दुश्मन देश स्पार्टा के लोगों ने उन्हें मारने के लिए ये जहर फैलाया है। वहीं बहुत से एथेंसवासियों की यह मान्यता थी महामारी का प्रकोप ईश्वर की नाराजगी का परिणाम था इसलिए वे अपने देवता को जागृत और प्रसन्न करने में जुटे थे। 1843 ई में फ़्रांसीसी अल्जीरिया के तटवर्ती नगर ओरान में फैले प्लेग को लेकर लिखे गए उपन्यास में अल्बर्ट कामू ने भी इसी तरह की सामाजिक तस्वीर का चित्रण किया है।
इतनी शताब्दियाँ बीत जाने के बाद भी हम अपने समाज को महामारियों को लेकर इसी तरह के मिथक गढ़ते और उन पर विश्वास करे हुए देख सकते हैं। चेचक को लेकर शीतला माता की स्थापना हो या फिर कोरोना मैय्या का उभार, तंत्र-मंत्र हों या हवन-अनुष्ठान, महामारियों को लेकर अवचेतन में बसी हमारी समझ और उससे लड़ने की सामुदायिक रणनीति, आधुनिक कहलाना पसंद करने वाले समाज के रूप में हम पर कई सवाल खड़े करती है।
दुर्भाग्य से महामारियों को लेकर आज तक हमारी समझ साफ नहीं हुई है। कोरोना वाइरस के लगातार बदल रहे व्यवहार को लेकर हमारे विषाणु विज्ञानी एक राय नहीं बना पा रहे हैं। उपचार को लेकर चिकित्सकों की अलग-अलग राय सामने आ रही हैं। इलाज को लेकर लगातार बदल रही रणनीतियों ने भी अनेक सवाल खड़े किए हैं।
देखने में आया है कि मौजूदा महामारी ने औपचारिक सामाजिक रिश्तों तक की जड़े इस कदर हिला डाली हैं कि अब हम ऐसे रिश्तों और कर्मकांडों को धीरे-धीरे निभाने के दबाव से भी मुक्त होने लगे हैं। संकट के समय जो रिश्ते हमारे लिए सामाजिक प्रतिष्ठा, संवेदनशीलता और सामुदायिक पहचान का सबब थे, आज मृत्यु भय के बीच कोसों दूर चले गए हैं। महामारी ने हमें इतना भयभीत कर डाला है कि व्यक्ति अब अपने परिजनों के पास सांत्वना देने जाने से भी कतराने लगा है। अंतिम संस्कारों को लेकर ग्राम समुदायों के बीच पैदा हो रहे मनमुटाव, नदियों में तैरते मिल रहे शव इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। दरअसल 21वीं सदी के उत्तराखंड में सामाजिक नैतिकता के मौजूदा हालातों को आज से 2300 साल पहले एथेंस में फैले प्लेग से पैदा हुए भय के बीच उभरी एथेंसवासियों की नैतिकता से जोड़ कर देखा जा सकता है।
महामारी का यह संकट आज इतना बड़ा हो गया है कि अब शहरों से गाँवों में पसर कर वहाँ की आबादी को आतंकित कर रहा है। महामारी से पैदा हुई परिस्थितियों के कारण सरकारों से लेकर आम जन में तक असमंजस और संशय बना हुआ है। राजनेताओं द्वारा महामारी पर जीत की दुंदुभि बजा लेने और उसकी समाप्ति के दावे कर लेने के बाद अप्रैल और मई के महीनो में महामारी का जो मंजर सामने आया है उसने समाज में जबरदस्त घबराहट और बेचनी पैदा की है। अति आत्मविश्वास में हम भूल गए कि महामारी अभी गयी नहीं है।
कहा जा रहा है कि नगरों, कस्बों में संक्रमण कम होने लगा है। इसका शायद एक बड़ा कारण है लाकडाऊन की रणनीति। लेकिन क्या यह रणनीति पहाड़ों में दूर-दूर फैले गाँवों में भी उतनी ही कारगर होगी यह बड़ा सवाल है? वह भी तब जब गाँवों में रोज़मर्रा की जरूरतों खासकर जानवरों के लिए चारा लाने, खेतों में काम करने कि लिए घर से बाहर निकलने का दबाव हो। इतना ही नहीं अधिकांश घरों में अकेले रह गए बुजुर्ग दम्पतियों और अकेले सदस्य के इस बीमारी की चपेट में आ जाने पर नई चुनौतियाँ खड़ी हुई है।
दरअसल गाँवों में बीमारी के गंभीर दुष्परिणामों की समझ न होने और उन्हें हल्के में लेने या फिर नजरंदाज करने से स्थितियाँ ज्यादा गंभीर हुई हैं। ग्राम समाज ने सामूहिक कार्यक्रमों का आयोजन कर संक्रमण को खुला आमंत्रण देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पिछले दिनों गाँवों में आयोजित बारातों, सामूहिक आयोजनों, पारिवारिक अनुष्ठानों में जिस तरह लोग कोविड अनुकूल व्यवहार का पालन किए बिना लापरवाही के साथ इकत्रित हुए और बढ़चढ़ कर ऐसे आयोजनों में भागीदारी की उसने इस संकट को बढ़ाने और परिस्थितियों को बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है। परिणामस्वरूप गंभीर संक्रमण के मामलों की संख्या समानान्तर रूप से बढ़ी है। आँकड़े बता रहे हैं कि तेजी से पसरते संक्रमण के कारण इधर दूर-दराज के अधिकांश गाँवों में बड़ी संख्या में लोगों के संक्रमित हुए हैं। सामान्य चिकित्सा सुविधाओं से महरूम इन गाँवों के लिए यह एक चिंताजनक स्थिति है। ज़्यादातर गाँवों में स्वास्थ्य केंद्र या तो हैं नहीं और यदि हैं भी तो उनमे बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं का जबरदस्त अभाव है। इसलिए यहाँ रह रही बड़ी आबादी आज भी बंगाली क्लीनिकों और आर.एम.पी. नुमा चिकित्सकों पर निर्भर है। जब अधिकांश कस्बों में जाँच सुविधाएँ नहीं है तो गाँवों की हकीकत को समझा जा सकता है। पञ्चेश्वर-गुमदेश का रहने वाला युवा बतलाता है कि उसे आक्सीजन स्तर की जाँच तक के लिए पीड़ित को 45 किमी दूर लोहाघाट आना पड़ता है।
इधर महामारी का एक और पीड़ादायक सामाजिक पक्ष सामने आया है। विषाणु को लेकर हमने बीते एक बरस में जिस तरह की सामाजिक समझ को बनने दिया है उसका ये खामियाजा हुआ है कि महामारी से बचने को महानगरों से अपने ही गाँव लौट रहा इंसान, बीमारी से आतंकित समाज द्वारा सामाजिक बहिष्कार झेलने को मजबूर हुआ है। बीते बरस अदूरदर्शी महामारी प्रबंधन और एकांतवास में रखे गए पीड़ितों के कड़ुवे अनुभवों को सुन कर भयभीत ग्रामीण समाज अस्पतालों या आइसोलेशन केन्द्रों में रखे जाने से न केवल भयग्रस्त है बल्कि वह आसन्न सामाजिक तिरस्कार की आशंका से त्रस्त हो बीमारी के लक्षणों को छुपाने और अस्वीकार करने में लगा है। दुर्भाग्यवश महामारियों के सामाजिक-मानसिक दुष्प्रभावों से बेखबर तंत्र की लापरवाही के साथ-साथ भ्रांतियों और अंधविश्वास में जीने वाले समाज में वैज्ञानिक चेतना की कमी ने इन परिस्थितियों को न केवल बढ़ाया बल्कि जटिल भी बना डाला है। अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हाल ही में गाँव में स्वास्थ्य जाँच के लिए पहुँचे दल को देख वनराजी समुदाय के लोग अपने जंगलों की ओर भाग खड़े हुये। दरअसल घबराए वनराजियों का मानना था कि बाहर से आए लोगों के छू लेने से यह बीमारी उन्हें लग सकती है। कई अन्य गाँवों में भी लोग जाँच करवाने से मुकर रहे।
आज हमारे चारों ओर एक ऐसे सामाजिक वातावरण का निर्माण कर दिया गया है जिसके केंद्र में असहज सामाजिक व्यवहार और आसन्न मृत्यु के खतरे बुरी तरह मन में घर कर गए हैं। स्थिति यहाँ तक आ चुकी है की अंतिम संस्कार को भावनात्मक रूप से महत्वपूर्ण कर्मकांड मानने वाले समाज को शवों को नदियों में बहाने पर मजबूर होना पड़ा है। हाल ही में भारत-नेपाल की सीमा के पास बसे एक गाँव में महामारी से मृत व्यक्ति के अंतिम संस्कार स्थल को लेकर दो गाँवों के निवासियों के बीच हुए आपसी संघर्ष और पथराव जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को भी इस संदर्भ में देखा जा सकता है।
इस संकट ने सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की हकीकत और नीति-नियन्ता के रूप में हमारी क्षमता को बुरी तरह से बेपर्दा कर सामने ला दिया है। ऐसे में उन गाँवों का क्या होगा जहाँ आज भी किसी बीमार को अस्पतालों तक लाने में एक दो दिन लग जाते हैं। यदि हमने समय रहते इस महामारी को रोकने के कारगर कदम नहीं उठाए तो गाँवों में उभरते हालात किस तरह की चुनौतियाँ पैदा करेंगे इसका शायद हम अनुमान भी नहीं लगा सकते।
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